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में आनन्द का सागर हिलोरे लेता रहता है ।
भावना ज्ञान से भावित बनी आत्मा कर्मों से लिप्त नहीं होती परन्तु उक्त भावना ज्ञान भी गुरु से ही प्राप्त होता है ।
ज्ञान पूर्ण रूपेण गुरु के अधीन है । गुरु-भक्त को शास्त्रों के गुप्त से गुप्त रहस्य प्राप्त हो सकते हैं ।
अभयकुमार को आकाश-गामिनी विद्या नहीं आती थी, फिर भी पदानुसारिणी प्रज्ञा से उन्हों ने उस विद्या की पूर्ति कर दी थी, जो समर्पण का ही प्रभाव है । किसी को भी आप पूछोगे तो वह अपने गुरु के प्रभाव का ही वर्णन करेगा । अन्य दर्शनवाले तो गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश कहते हैं ।
'गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वरः ।' हमें भी कुछ अजैन बुलाते हैं तो कहते हैं - 'प्रभु ! आदेश दो ।' इस प्रकार वे प्रभु कह कर पुकारते हैं।
गुरु की कृपा के बिना आत्मानुभूति का विकट कार्य पूर्ण नहीं होता । प्रत्येक जन्म में सब कुछ मिला है, परन्तु आत्मानुभूति नहीं मिली । गुरु की कृपा के बिना यह नहीं मिलती ।
एकाध पद को भी भावित करने से वह मोक्ष का कारण बन सकता है, यदि उसमें गुरु के प्रति समर्पण सम्मिलित है । माषतुष, चिलातीपुत्र आदि इसके उदाहरण हैं ।
हमें तो अनेक आगम-श्लोक कण्ठस्थ हैं, परन्तु कमी यह है कि वे ज्ञान-भावित नहीं हैं ।।
* अभी जल वापरते समय शास्त्रीय पदार्थ याद आया है, जिसका निर्देश हरिभद्रसूरिजी ने दिया है - कोई भी जीव सर्व प्रथम धर्म किस प्रकार प्राप्त करता है ? कौन सा जीव प्राप्त करता है ?
योगावंचक प्राणी ही धर्म प्राप्त कर सकता है ।।
योगावंचक से तात्पर्य है - गुरु में भव-तारक की बुद्धि रखने वाला प्राणी । इस भव में या पूर्व भव में योगावंचकता प्राप्त हुई हो वही धर्म प्राप्त कर सकता है। योगावंचक हुए बिना कोई जीव धर्म प्राप्त नहीं कर सकता ।
___ 'निर्मल साधु-भक्ति लही, योगावंचक होय; क्रियावंचक तिम सही, फलावंचक जोय ।'
___ - पूज्य आनंदघनजी (१७६ 800 Goose GSSSSSSS GOOD कहे कलापूर्णसूरि - ३)