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SentireBOASTARANGANA
पू. रत्नसुंदरसूरिजी के साथ, सुरत, वि.सं. २०५५
२४-८-२०००, गुरुवार
भाद्र. कृष्णा -९
* भगवान का यह लोकोत्तर तीर्थ देख कर अनेक भव्य आत्मा प्रसन्न होती हैं । यह प्रसन्न होना ही योग-बीज है । बीज पड़ने पर ही अगली प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। जिन्हों ने पूर्व जन्म में बीज डाले होंगे, उनके अंकुर कभी न कभी अवश्य फूटेंगे ।
भगवान मिलते हैं परन्तु बीज कब पड़ते हैं ? जब आदर जागृत होता है तब बीज पड़ते हैं । भगवान अनेक बार मिले, परन्तु हमारे भीतर अहोभाव जागृत नहीं हुआ, आदर उत्पन्न नहीं हुआ । इसीलिए हमारा ठिकाना नहीं पडा । अब भी आदर उत्पन्न नहीं हुआ तो ठिकाना पड़ जायेगा, यह न मानें ।
योगावंचक प्राणी को भगवान की वाणी अमृत के समान मधुर लगती है। हम देखते हैं कि किसी को भगवान की वाणी अच्छी लगती है, किसी को अच्छी नहीं लगती ।
दो भाई सदा साथ रहते थे । किसी क्रिया में भेद नहीं था । पढ़ना, खेलना, भोजन करना, घूमना सब साथ-साथ करते थे; परन्तु भगवान की देशना सुन कर एक को आनन्द हुआ, उसे समकित मिला । दूसरे को कोई भी आनन्द नहीं आया । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 0 0 0 0 6600 66666666666666665 66 6 6 6 २८५)