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भी एक बार भी गोचरी नहीं वहोरा सका, क्योंकि वे राज-पिण्ड ले नहीं सकते थे । मैं ने राज्य का त्याग क्यों नहीं किया ?
यह हे गुरु-भक्ति !
प्रभु की आज्ञा का पालन गुरु करते हैं । गुरु की आज्ञा का पालन हमें करना है। गुरु-तत्त्व के बिना कभी किसी का उद्धार नहीं हो सकता । देव, गुरु और धर्म, इन तीनों के मध्य गुरु है। जो मुख्य होता है वह मध्य में ही रहता है। दीपक को बीच में रखने से दोनों कमरों में प्रकाश आ सकता है । इसे देहली-दीपक-न्याय कहते हैं । देव और धर्म दोनों की पहचान गुरु के द्वारा होती है ।
प्राप्त करने जैसा गुण गुरु-समर्पण है ।
हृदय में गुरु बसे हों यह तो ठीक है, परन्तु गुरु के हृदय में हमारा स्थान हो जाये तो काम बन जायेगा । एकलव्य का स्थान गुरु के हृदय में भी था ।
शास्त्रों में कहा गया है कि सम्भव हो तो गीतार्थ गुरु बनें, अथवा उनके शरणागत बनें । तीसरा कोई विकल्प नहीं है ।
हमारे नगर में गुरु आते हैं और हम उनकी परीक्षा करना चाहते हैं । यह है हमारा समर्पण ! गुरु की परीक्षा नहीं, प्रतीक्षा करें । प्रथम स्वयं की परीक्षा करें । अभी गुरु की परीक्षा का हमें अधिकार नहीं है ।
एक प्रसंग याद आता है । किसी गुरु ने शिष्य को कहा, 'गोचरी के साथ धारदार चाकू भी ले आना ।' समर्पित शिष्य ने वैसा ही किया ।
मध्य रात्रि में गुरु उसकी छाती पर चढ़ बैठे । यदि ऐसा हो जाये तो क्या करेंगे आप? वह तो समर्पित शिष्य था । गुरु ने चाकू से अंगुली में से खून लिया और चले गये ।
प्रातः गुरु ने शिष्य को पूछा तब उसने उत्तर दिया - 'जिसको मैंने अपना सम्पूर्ण जीवन सौंप दिया, उनसे क्या डरना ? वे जो भी करेंगे, वह मेरे हित में ही होगा ।'
गुरु ने कहा, 'तेरा पूर्व जन्म का कोई शत्रु सांप तुझे डंसने के लिए आया था । उसका निवारण मैं ने इस प्रकार किया । यदि मैं ऐसा नहीं करता तो तेरे प्राण चले जाते ।
(१९२ wwwwwwwwwwwwwwwww00 कहे कलापूर्णसूरि - ३)