SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाय मालिक की शरणागति स्वीकार करती है तो उसकी सुरक्षा होती है । हम गुरु की शरणागति स्वीकार करेंगे तो हमारी सुरक्षा होगी। पूज्य मुनिश्री धुरन्धरविजयजी म. : जिसने गुरु की उपासना की हो, उसका जीवन धन्य है । जिन्हों ने दीक्षा ग्रहण करके मात्र गुरु-भक्ति ही की है, वे पं. वज्रसेनविजयजी अब वक्तव्य देंगे ।। * पूज्य पं. वज्रसेनविजयजी म. : _ 'मेरे अज्ञान का नाश करनेवाले गुरु हैं' - यह लगे तो गुरु याद आयें और 'अहं' टूटे । अनादिकाल से 'मेरी बात रहनी चाहिये' वैसी इच्छा है । यह इच्छा टूटने पर ही गुरु को समर्पण हो सकता है । उसमें भी जिन गुरु ने विशिष्ट उपकार किया हो, उनके प्रति विशेष समर्पित रहना चाहिये । * पंच परमेष्ठी में अरिहंत एवं सिद्ध परम गुरु हैं । आचार्य, उपाध्याय, साधु गुरु हैं । गुरु अनुपस्थित हों अथवा गुरु हमसे अल्प बुद्धिवाले हों तो भी समर्पण से कार्य होता ही है । एकलव्य ने मिट्टी के पुतले के द्वारा ही समर्पण से सफलता प्राप्त कर ली थी। पू. जंबूविजयजी म. को अपने गुरु पू. भुवनविजयजी म. पर कैसी भक्ति है ? दर्शन करने के लिए जाना हो तब भी उनके फोटो से आज्ञा लेकर जाते हैं और दर्शन करने के पश्चात् भी फोटो के समक्ष कहते हैं - 'मैं दर्शन करके आ गया ।' स्थापनाचार्य के प्रति भी ऐसा ही भाव । कदाचित् गिर जायै तो उसी दिन वे उपवास करते हैं । ऐसे अन्य भी अनेक महात्मा होंगे । यह तो मेरे अनुभव में आई हुई बात मैं कहता हूं । अपने गुरु की स्मृति में ४० वर्षों से आज भी वे प्रति माह अट्ठम करते हैं । गुरु की सहायता मिलती है, उस प्रकार उन्हें सतत अनुभूति होती रहती है । (कहे कलापूर्णसूरि - ३00woooooooooooooo00 १९३)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy