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से उपदेश प्राप्त किया है। हकीकत में तो वे स्वयं अपनी योग्यता से प्राप्त करते हैं । इसीलिए भगवान स्वयंसंबुद्ध कहलाये हैं ऐसा हरिभद्रसूरिजी का कथन है । जो मानते हैं कि महेश के अनुग्रह से ही बोध होता है इस पदसे उस मत का खण्डन हुआ ।
अडियल घोड़े के समान कुछ खडूस चाहे जितना समझाने पर भी समझते नहीं हैं। कुछ कठोर मूंग ऐसे होते हैं जो पकते ही नहीं हैं । मूंगशेल पर पुष्करावर्त मेघों की वृष्टि हो तो भी वे भीगते नहीं हैं, उस प्रकार कितनेक ऐसे अयोग्य होते हैं कि उन्हें चाहे जितने समझाओ, परन्तु वे समझते ही नहीं ।
यह उपादान की अयोग्यता है । भगवान का उपादान इतना तैयार होता है कि गुरु को विशेष कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता । उनके लिए थोड़ा निर्देश, थोड़ा संकेत पर्याप्त होता है ।
कोमल पौधे को थोड़ा सा ही कुल्हाडी का स्पर्श होते ही वह कैसा कट जाता है ?
भगवान को होने वाला सम्यग्दर्शन 'वरबोधि' कहलाता है। जात्य रत्न की तरह उनमें यह सहज योग्यता होती है। भगवान का तथाभव्यत्व अनादि काल से ही विशिष्ट होता है । _ 'नमुत्थुणं' के प्रत्येक विशेषण से अन्य अन्य मतों का खण्डन होता जाता है । गणधर भगवन्तों के द्वारा स्तुति ही उस प्रकार की होती है जिसमें उनकी स्तुति अरिहन्त को ही लागू पड़ती है, अन्य का व्यवच्छेद होता जाता है । (६) पुरिसुत्तमाणं ।
भगवान पुरुषों में उत्तम हैं। बौद्ध मानते हैं कि समस्त जीव समान हैं । यहां उस मत का खण्डन हुआ है ।
भगवान में कतिपय ऐसी विशेषताएं हैं कि जो दूसरों में देखने को नहीं मिलती ।
भगवान की कतिपय विशेषताएं : (१) आकालमेते परार्थव्यसनिनः ।'
भगवान सदा के लिए परोपकार-व्यसनी होते हैं । जिसे किसी वस्तु का व्यसन होता है वह उसके बिना रह ही नहीं सकता । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 00000
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