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________________ किसी की आवाज धीमी हो तो भी चिन्ता नहीं करें, दर्शन करके सन्तोष माने । सबको भारी आशा है, इतने आचार्य भगवन् क्या करेंगे ? हमें मैत्री करनी है, संघर्ष नहीं करना है । संघर्ष करना है कर्मो के साथ, धुलमिल जाना है प्रभु में । यही हमारा कर्तव्य है । श्री भद्रबाहुस्वामी नेपाल में महाप्राणायाम ध्यान करने गये थे । बारह वर्षों का अकाल पडा । श्रुत परम्परा विच्छिन्न होने लगी । आपका धंधा जैसे बहियों से चलता है, उस प्रकार प्रभु का शासन श्रुत से चलता है। श्रुत परम्परा को अविच्छिन्न रखना सबका कर्तव्य है। जिसके पास जो श्रुतज्ञान हो वह लेना है। आचार्य भगवन् भी विद्यार्थी बनकर उसके पास जायें । पाटलिपुत्र में श्रमण संघ एकत्रित हुआ । ग्यारह अंग मिले, परन्तु दृष्टिवाद नहीं मिल सका । दृष्टिवाद के ज्ञाता एकमात्र भद्रबाहुस्वामी नेपाल में थे । उनको दो साधुओं के द्वारा निमंत्रण भेजने पर भी उनका उत्तर मिला कि आवश्यक ध्यान के कारण मैं नहीं आ सकूँगा । पुनः दो मुनियों के द्वारा उन्हे पुछवाया कि 'जो संघ की आज्ञा का उल्लंघन करे, उसे क्या प्रायश्चित आता है ?' भद्रबाहुस्वामी चौंके, ‘में संघ का सेवक हूं । जो कहे वह करने के लिए बंधा हुआ हूं ।' श्रमणसंघ के शीर्षस्थ नायक के ये शब्द हैं । तीर्थंकर भी 'नमो तित्थस्स' कहकर जिसे नमस्कार करते हैं, उसकी भद्रबाहु स्वामी किस प्रकार अवहेलना कर सकते हैं ? ___ 'वहां नहीं आ सकूँगा, परन्तु सुनकर याद रख सकें वैसे बुद्धिमान मुनियों को भेजो, मैं नित्य सात वाचना दूंगा ।' यह है संघ की गरिमा । . 'आयरिय उवज्झाए' इस सूत्र की प्रथम गाथा में आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, स्वधर्मी, कुल, गण के साथ जो कषाय किये हों वैसे कहा, परन्तु 'पूज्य' शब्द का प्रयोग सकल श्रमण संघ के लिए हुआ है । आगे की गाथा में देखो, 'सव्वस्स समण संघस्स भगवओ ।' संघ को 'भगवान' शब्द से नवाजा गया है। भगवान शब्द पूज्यतावाची है। ऐसे श्रमण संघ का मूल्यांकन (कहे कलापूर्णसूरि - ३00000000000 Homom ३५)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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