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________________ नहीं किया जा सकता । इस तीर्थ की यात्रा नित्य दर्शन के रूप में की जा सकती है । प्रत्येक रविवार को ये दर्शन हो सकते एकत्रित होना ही मंगल हैं ! यही शक्ति का संचय है । एक दूसरे के प्रति सद्भाववाले मुनि साथ बैठें जिससे अकल्पनीय महा शक्ति उत्पन्न हो । बोलेगा तो कोई एक ही, परन्तु वह सबकी ओर से बोलेगा । मेरी क्या शक्ति है बोलने की ? परन्तु सबका पीठ-बल है । आप सभी विभिन्न गांवों के एकत्रित हुए हैं, परन्तु कहीं भी झगड़ा होने का नहीं सुना । होता भी कहां से ? प्रारम्भ से ही श्रमण संघ के दर्शन से मंगल हुआ है। अब यह मंगल प्रत्येक सातवे दिन होता ही रहेगा । * ईसामसीह के २००० वर्ष पूरे हो गये हैं। अब महावीर स्वामी के वर्ष प्रारम्भ होने चाहिये । ईसामसीह के वर्ष अर्थात् लड़ाई के वर्ष । अब लड़ाई के नहीं, मैत्री के वर्ष चाहिये । हमारे गुरुदेव पू.पं. श्री भद्रंकरविजयजी म. की यही इच्छा थी । भले ही वे आज मौजूद नहीं हैं, परन्तु अदृश्य रूप में वे सक्रिय हैं ही। यह सकल संघ का मिलन उसका प्रमाण है । पूज्य आचार्यश्री विजयजगवल्लभसूरिजी : येन ज्ञानप्रदीपेन, निरस्याऽभ्यन्तरं तमः । ममात्मा निर्मलीचक्रे, तस्मै श्रीगुरुवे नमः ॥ धर्म चक्रवर्ती श्री महावीर स्वामी के प्रभाव से हम समतांगन में उपस्थित हुए हैं । सबको मैत्रीभाव से भावित करने हैं । अन्तरात्मा कहती है - किसी को मैत्री के लिए कहने की आवश्यकता नहीं है, मानो मैत्री प्रकट ही है। किसी भी क्षेत्र में मैत्री के बिना नहीं चलता । साधु-जीवन में भी मैत्री चाहिये । मित्र होंगे परन्तु मैत्री न हो तो ? मैत्रीरहित मित्र व्यर्थ हैं । पूज्य आचार्य भगवान् की अध्यक्षता में मैत्री का मंगल मनाते हुए अपनी आत्मा सम्यग्दर्शन की स्पर्शना करता (३६ Www S s s कहे कलापूर्णसूरि - ३
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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