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हुआ सद्गति एवं सिद्धि गति प्राप्त करे, यही ।
पूज्य आचार्यश्री यशोविजयसूरिजी : यह चातुर्मास अहोभाव की धारा में झूमने का अवसर बन जायेगा । अजैन संत सूरदास ने कहा है - सदा हमारे नेत्रों में वर्षाऋतु रहे । प्रभु को देखते ही नेत्रों में से हर्षाश्रु के तोरण बंधने चाहिये । सम्पूर्ण चातुर्मास इस प्रकार व्यतीत करना है ।।
* मेरे मुख्य तीन शब्द हैं : रूप परमात्मा, वेष परमात्मा, शब्द परमात्मा ।
* पू. यशोविजयजी ने गाया है - इतनी भूमि प्रभु ! तू ही आण्यो, परि परि बहुत बढ़ावत माम ।
हे प्रभु ! निगोद में से निकालकर आप ही यहां तक लाये हैं । अब दो-चार गुण-स्थानक आगे बढ़ा लो तो क्या आपत्ति है ?
पुत्र पूछता है : मम्मी ! मामा का घर कितना दूर है ? मम्मी : 'दीपक जलता है उतनी दूर ।' भगवान कहते हैं : अब मुक्ति का घर कहां दूर है ?
जोसेफ मेकवान ने एक अंग्रेजी कृति का अनुवाद किया है : एक यात्री-भक्त रेगिस्तान में अकेला जा रहा है ।
प्रवास में अकेले को आनन्द नहीं आता ।
अंग्रेजी में लोगों के लिए तीन कम्पनी है, चार भीड़ है । अपने वहां एक कम्पनी है, दो भीड़ हैं । _ 'प्रभु ! क्या मेरे साथ आप नहीं आयेंगे ?' उस यात्री ने भगवान को कहा । हम प्रतीक्षा करें उससे परम चेतना अपनी अधिक प्रतीक्षा कर रही है। भगवान आने के लिए तैयार हैं, केवल हमारे निमन्त्रण की आवश्यकता है ।
थोड़ी ही देर में उसे दो परछाई दिखाई दी । उसे प्रतीत हुआ कि प्रभु हैं । पुनः देखा तो एक ही परछाई थी। उसे लगा कि भगवान चले गये प्रतीत होतें हैं । कानों में आवाज आई - मैं दुःख में तुझे उठाकर चल रहा था, अतः एक ही परछाई दिखाई दे रही थी।
* 'भगवन् ! आपने भले ही मेरे चित्त को चुराया हो, परन्तु मैं तो पूरे के पूरे आपको चुराकर हृदय में बसा लूंगा ।' (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 6000000000666666 ३७)