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________________ किसी को भी आप कहेंगे - 'तू मेरा मित्र है ।' वह निश्चित रूप से प्रसन्न होगा । जीवों के साथ पहले मित्रता का सम्बन्ध, फिर आत्म-तुल्य सम्बन्ध और उसके बाद एकता का सम्बन्ध विसित करना है । इससे भी आगे बढ़कर सब में परमात्म-दृष्टि आयेगी, सब में परमात्मा बैठे दृष्टिगोचर होंगे । __ हमारा संघ मैत्रीमय बने, यही शुभकामना है । पू. मुनिश्री धुरन्धरविजयजी : इतने सारे आचार्य भगवंतों का एक साथ दर्शन अनेक व्यक्तियों के लिए प्रथम बार होगा । धन्य है यह क्षण जहां इन सबके दर्शन होते हैं । यहीं समवसरण है। यहां ही भगवान हैं, ऐसा अनुभव होगा । ___ हमारे परम सौभाग्य से प्रभु के परम भक्त, आगमों के रहस्यों के उद्घाटक पूज्य आचार्य श्री विजयकलापूर्णसूरिजी मुख्य आचार्य देव के रूप में हैं। __ पूज्य आचार्य भगवन् के शब्द चाहे आपको सुनने में नहीं आये हों, परन्तु उन शब्दों की तरंगे तो यहां से बही ही हैं । आपको उन पवित्र शब्दों का स्पर्श हुआ ही है । आप पर उनका प्रभाव भी हुआ ही है। आपको सुनाई नहीं देता हो फिर भी आप शान्तिपूर्वक बैठे रहे, यही इस बात का प्रतीक है। यहां पू. रामचन्द्रसूरिजी, पू. सागरजी, पू. भुवनभानुसूरिजी, पू. धर्मसूरिजी, पू. नेमीसूरिजी, पू. ॐकारसूरिजी, विमलशाखा, त्रिस्तुतिक, अचलगच्छ आदि समुदायों के महात्मा उपस्थित हैं । आज शिष्य आगे बैठे हैं । गुरु पीछे बैठे हैं, मानों शिष्यों की पीठ थपथपा रहे हैं । प्राचीनकाल में चार जैन राजधानियां थीं, ऐसा उल्लेख मिलता सम्यकत्व सप्ततिका ग्रन्थ के मल्लवादी के प्रबन्ध में लिखा है कि पटना (पाटलिपुत्र), पैठन (प्रतिष्ठानपुर), वलभीपुर (वला), जीर्णदुर्ग (जूनागढ) ये चार जैन राजधानियां थीं, जहां सभी गच्छों के उपाश्रय थे । आजकल राजनगर (अहमदाबाद) और पालीताना राजधानी गिनी जाती हैं। आज आप यहां उपस्थित हैं, यह अपना सौभाग्य समझें । |३४ 0000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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