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श्री सुधर्मास्वामी के पास सुने अवश्य थे । भगवान महावीर कैसे थे । इसका वर्णन 'सूयगडंग' में हो चुका है। (वि. संवत् २०३६ में पालीताणा में चातुर्मास में 'सूयगडंग' पर व्याख्यान दिये थे ।)
पुनः पुनः कच्छ आ-आकर पूज्यश्री ने कच्छ-वागड़वासियों को धर्ममय बनाये। उन्होंने उजाड़ रणभूमि को वृन्दावन में परिवर्तित कर दी । उनका उपकार आज भी आप याद करते हैं ।
परन्तु क्या समुदाय के प्रति अपना उत्तरदायित्व याद आता है ? मेरे परिवार में से किसी को मैं इन उपकारी गुरुदेवों के पास पढ़ने के लिए भेजूं, यह याद आता है ?
प्रातः विष्णु मन्दिर जाते, बासी खिचड़ी खाते, इस समाज को धर्म मार्ग की ओर उन्मुख करने के लिए उन्हों ने अथाक परिश्रम किया है, उसे न भूलें ।
आप अपने सन्तानों को इस मार्ग पर मोड़ने के लिए प्रेरणा दो तो कुछ अंशो में उन उपकारों का बदला चुकाया जा सकता है।
पू. जीतविजयजी महाराज उस युग में समस्त समुदायों के महात्माओं के द्वारा प्रशंसा पा चुके थे । उनका शिष्य परिवार पूज्य कनकसूरिजी, पू. आनन्दश्रीजी आदि भी प्रशंसा पा चुके थे ।
ऐसे उपकारी पूज्यश्री वि. संवत् १९७९ में आज के दिन 'पलासवां' में सिद्धों का ध्यान करते हुए काल धर्म को प्राप्त हुए ।
* वि. संवत् २०२७ में खम्भात का अत्यन्त ही आग्रह होते हुए भी पू. देवेन्द्रसूरिजी ने 'आधोई' में चातुर्मास करने की इच्छा व्यक्त की । इस प्रकार आधोई में अनेक बड़े-बड़े चातुर्मास हुए हैं । आज आधोई संघ तथा वागड़ के संघ जो कार्य कर रहे हैं, उनमें इन उपकारी गुरुजनों का प्रभाव है।
मालशी मेघजी - स्वास्थ्य अशक्त होते हुए भी उपकारी गुरुजनों के उपकारों का वर्णन किये बिना रहा नहीं जाता । ।
हम किसान थे । प्रातः शीघ्र भोजन करके खेत पर जाते और रात्रि में लौटते थे । जाड़ी रोटियां एवं छास के द्वारा काम चलाकर पू. गुरु भगवंतोने जो उपकार किया है वह कैसे भुलाया जा सकता है ? उनके उपकारों की हारमाला याद आने पर आंखो से आंसू बहने लगते हैं ।
[२२ Boooooooooooooooooom कहे कलापूर्णसूरि - ३)