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अपनी प्रतिज्ञा सफल करने के लिए यहां पालीताना आकर चतुर्थ व्रत की प्रतिज्ञा ली ।
तत्पश्चात् गुरु की खोज करते-करते अनेक वर्ष व्यतीत हो गये । अन्त में उन्हों ने पद्मविजयजी महाराज को ढूंढ निकाले । (पद्मविजयजी नाम यति अवस्था का है । संवेगी दीक्षा ग्रहण की तब गुरु पं. मणिविजयजी ने प्रेमविजयजी नाम रखा था, परन्तु बडी उम्र में संवेगी दीक्षा ग्रहण की होने से पद्मविजयजी नाम ही प्रचलित रहा । संवेगी दीक्षा में अपने शिष्य जीतविजयजी से वे केवल एक वर्ष ही बड़े थे ।) आडीसर गांव में उनके पास वैसाख शुक्ला ३ को, वि. संवत् १९२५ में दीक्षा अंगीकार की । उस समय उनकी आयु २९ वर्ष की थी । दीक्षा के समय रायण का सूखा वृक्ष नवपल्लवित हुआ और जिस कुंए के जल से दीक्षा से पूर्व स्नान किया, उस कुंए का जल मीठा हो गया ।
__ पू. पद्मविजयजी म. प्रखर ज्योतिर्विद थे, नैमित्तिक भी थे । ऐसी घटना से उन्हें ज्ञात हो गया कि यह जयमल्ल जीतविजयजी बनकर अब महान् प्रभावक बनेगा ।
वि. संवत् १९३८ की वैसाख शुक्ला-११ के दिन यद्यपि गुरु पद्मविजयजी म. कालधर्म को प्राप्त हुए, परन्तु उनके आशीर्वाद सदा उन पर वृष्टि करते रहे । तत्पश्चात् जीतविजयजी महाराज ने मारवाड़, मेवाड़, गुजरात, कच्छ आदि स्थानों पर विचरण करके अत्यन्त ही धर्म-प्रभावना की ।
हमारा बारह वर्ष पूर्व 'वाव' में चातुर्मास था । उस समय वहां के वृद्ध पुरुष कहते - यहां दादा जीतविजयजी म. ने चातुर्मास किया है । उन्हों ने चौमासी चौदस के दिन कहा था - आप यहां शान्ति से प्रतिक्रमण करें, वर्षा की चिन्ता न करें । सचमुच ऐसा ही हुआ । प्रतिक्रमण पूर्ण होते ही वरसाद टूट पड़ा । पूज्यश्री ऐसे वचन-सिद्ध थे ।
__यद्यपि हमने पूज्यश्री को देखे नहीं है, परन्तु जिन्होंने देखे हैं, उनके पास से (पू. कनकसूरिजी म. के पास से) उन्हें अनेक बार सुना है ।
. जंबूस्वामी ने भगवान महावीर को भले देखे नहीं थे, परन्तु कहे कलापूर्णसूरि - ३nommonsomnommon २१)