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कच्छ वागड़ के मनोहर गांव मनफरा में वि. संवत् १८९९ की चैत शुक्ला-२ के शुभ दिन माता अवलबाई एवं पिता उकाभाई के घर 'जयमल्ल' का जन्म हुआ था ।
बचपन से ही माता-पिता की ओर से जयमल्ल को धर्म के संस्कार मिले थे। वागड़ में मनफरा प्रसिद्ध है। यहां भी अनेक महात्मा मनफरा के हैं । बारह वर्ष की आयु में जयमल्ल को आंखों की पीडा प्रारम्भ हुई और १६ वर्ष की आयु में वे पूर्णतः अन्धे हो गये । युवावस्था में अंधत्व का कष्ट आ जाये यह कितनी दुःखद बात है ?
जन्म से ही अन्धे को अधिक कष्ट प्रतीत नहीं होता, परन्तु देखते हों और अचानक अन्धा होना पड़े तब दुःख का पार नहीं होता । यह तो अनुभव करने वाला ही जान सकता है ।
__ जयमल्ल जैन-तत्त्वों के ज्ञाता थे । वे समझते थे कि मैं ने पूर्वजन्म में किसी की आंखे फोड़ी होंगी अथवा ऐसे शब्द कहे होंगे । इसी कारण से आज मेरी आंखे चली गई हैं । मेरे किये हुए मुझे ही भोगने पड़ेंगे ।
समस्त उपचार व्यर्थ सिद्ध होने के पश्चात् उन्होंने मनफरा में प्रतिष्ठित भगवान श्री शान्तिनाथ की शरण ली - 'प्रभु ! अनाथ का नाथ तू है । अब मैं तेरी शरण में हूं । तेरी कृपा से यदि आंखे मिल गई तो मैं तेरे मार्ग पर आऊंगा ।'
सचमुच ही चमत्कार हुआ । दृढ संकल्प से वे देखते हो गये । चमत्कार वहां नमस्कार नहीं, यह नमस्कार वहां चमत्कार था । चौथे आरे में तो नमि राजर्षि की दाह-वेदना, अनाथी मुनि की आंखों की वेदना इस प्रकार दूर हुई थी, परन्तु यह तो पांचवे आरे की घटना है ।
जिन शान्तिनाथ भगवान के समक्ष उन्होंने प्रार्थना की थी, वह प्रतिमा आज भी मनफरा में विद्यमान है । (वर्तमान में वि. संवत् २०५७ की माघ शुक्ला द्वितीया के दिन आये भयंकर भूकम्प से यह गांव पूर्णतः ध्वस्त हो चुका है। अत: यह प्रतिमा मुंबई के विलेपार्ले - पश्चिम के जिनालय में बिराजमान है । अभी वह प्रतिमा पुनः मनफरा आ चुकी है । भूकम्प में ध्वस्त हो चुके मनफरा के जिनालय का चित्र इस पुस्तक में दिया जा चुका है।) (२०nomoooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)