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वासक्षेप पूजा, मध्यान्ह में चन्दन पूजा और सायंकाल में आरती पूजा ।
(३) उचित आसन ।
(४) युक्त स्वरता - अन्य को व्याघात न हो वैसी आवाज निकालना । जिनालय में वरिष्ठ व्यक्ति बैठे हों तब ऊंचे स्वर में
नहीं बोलना चाहिये । यह अविनय है। छोटे-बड़े किसी के योग , में बाधा न पड़े उस प्रकार आवाज निकालनी । इसे युक्त-स्वरता कहते हैं ।
जैसे आदिनाथ के दरबार में गये हों और सबके साथ मेल जमता हो तो साथ में स्तवन आदि बोले जा सकते हैं । यदि ऐसा नहीं होता हो तो विवेक रखें ।
(५) पाठ का उपयोग : चैत्यवन्दन के समय बोले जानेवाले सूत्रों का ध्यान हो । एक बार नहीं, सदा उपयोग होता है ।
* उचित वृत्ति के पांच लक्षण : (१) लोकप्रियता
(२) अगर्हित क्रिया : इस लोक-परलोक के विरुद्ध कार्य ही न हों ताकि कोई निन्दा करे ।
(३) संकट के समय धैर्य __ (४) शक्ति के अनुसार त्याग
(५) लब्ध लक्षता - जो ध्येय निश्चित किया हुआ हो वह न मिले तब तक बैठा न रहे ।
ये पन्द्रह गुण मिलते हों वैसे अधिकारी जिज्ञासु को यह पाठ देना, अन्यथा दोष लगता है ।
* पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. कहते थे कि एक नवकार बराबर आत्मसात् करें तो भी पर्याप्त है।
एक नवकार सूत्र, अर्थ, तदुभय से आत्मसात् करने के लिए द्वादशांगी की आवश्यकता होगी ।
तदुभय अर्थात् जैसा पढ़े हैं वैसा जीवन में उतारना । ज्ञानाचार का यह भेद होने पर भी यह चारित्राचार हो वैसा लगे । ज्ञ परिज्ञा और प्रत्याख्यान परिज्ञा, ग्रहणशिक्षा एवं आसेवन शिक्षा यहां प्रत्याख्यान परिज्ञा से तथा आसेवन शिक्षा से जीवन जीने की बात ही आई है। (कहे कलापूर्णसूरि - ३ooooooooooooooooooo0 २७)