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________________ मैं उन्हें वन्दन करता । वे मुझे इनकार करते, वे कहते - आप आचार्य हैं, आप वन्दन नहीं कर सकते; परन्तु मैं कहता - इस समय मैं आचार्य नहीं हूं, विद्यार्थी हूं, शिष्य हूं; तो भी पाट पर तो मुझे समीप ही बिठाते । उनकी उपस्थिति में मैं प्रवचन भी करता । भगवान ज्यों बुलवायेंगे वैसे बोलूंगा । कोई टेढ़ा-मेढ़ा होगा तो पंन्यासजी म. बतायेंगे वैसे करूंगा । चिन्ता क्या है ? ऐसे विचार के साथ प्रवचन भी कर चुका हूं । (५) स्थिरता : सच्चा ज्ञानी कदापि विवाद नहीं छेड़ता । __ आप भी देखते हैं, कितनों का जीवन वाद-विवाद में ही पूरा हो जाता है। अनेक गृहस्थ कोर्ट-कचहरी के लफरों में जीवन पूरा कर डालते हैं । सच्चा ज्ञानी भोले मनुष्यों की बुद्धि में भेद नहीं करता । योग्य व्यक्ति को वह अपना ज्ञान देता है । इसका नाम ही पात्रता है। ___ यह पात्रता ही गुणवान मनुष्यों को मान्य है। यह तो मूर्तिमंत शमश्री है ! भाव-सम्पत्ति का स्थान है ! द्रव्य सम्पत्ति तो अनेक व्यक्तियों को मिलती है। जिसै भावसम्पत्ति प्राप्त हो वह सच्चा भाग्यशाली गिना जाता है । ज्ञान का अध्ययन करना हाथ की बात है, गुण प्राप्त करने हाथ की बात नहीं है । ध्यान लगना, स्थिरता-प्राप्ति क्या हाथ की बात है ? आप निश्चय करो कि आज मुझे अपना मन स्थिर रखना है और मन भागने लगेगा । इसीलिए आनन्दघनजी ने कहा है - ___ 'मनई किमही न बाझे हो कंथुजिन !' उनकी भी ऐसी दशा हो तो अपनी तो बात ही कहां ? मन को स्थिर करने का प्रयत्न करो तब लगता है कि मानों खटमल हो । पकड़ने जाओ तो भागे । मन की चार अवस्थाऐं समझ लो - विक्षिप्त, यातायात, सुश्लिष्ट और सुलीन । प्रारम्भ में आप स्थिर रखने का प्रयत्न करोगे तो मन विक्षिप्त (१२०wooooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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