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________________ गृहस्थों के पास धन-सम्पत्ति हो, उस प्रकार अपनी सम्पत्ति ज्ञान है । धन नष्ट हो जाता है । यह सम्पत्ति अखूट है । धन को चोर लूटता है । यहां तो कोई नहीं लूटता । कदाचित् कोई लूट लें तो भी यहां तो कम नहीं होता । चक्रवर्ती का साम्राज्य टिकता नहीं है । अन्त में छोड़ना ही पड़ता है । नहीं छोड़ें तो नरक में ले जाता है । अन्त में उसे यही साधुत्व की शरण में आना पड़ता है । जो नहीं आये वह नरक में जाता है। कतिपय गृहस्थों को धन से अभिमान आ जाता है, उस प्रकार साधु-जीवन में ज्ञान आदि सम्पत्ति से कइयों को अभिमान आ जाता है । ज्ञान का ही नहीं, अन्य किसी भी लब्धि का अभिमान करने योग्य नहीं है। दूसरे के अज्ञान पर हास्य एवं मजाक करने की इच्छा हो तो समझे कि अपना ज्ञान अभिमान-कारक है । आणंदजीभाई पंडितजी पाठ याद नहीं होने पर कहते - 'सर्वथा बुद्ध है, 'ढ' है ।' यद्यपि वे तो विद्यार्थी पाठ अच्छी तरह याद करें उसके लिए कहते । यह अभिमान नहीं कहलाता, परन्तु दूसरे का अपकर्ष करने की बुद्धि से ऐसे वाक्य कहे जायें, उसमें अभिमान सच्चा ज्ञानी अपनी ऋद्धि का गर्व नहीं करता, अन्य अज्ञानियों का उपहास नहीं करता, व्यर्थ विवाद नहीं करता, भोले मनुष्यों में बुद्धि-भेद न कराये, समझदार व्यक्तियों को वह समझाता है, दूसरों को नहीं । इसका नाम ही पात्रता है। पूज्य पं. श्री भद्रंकरविजयजी म. हमें अनेक बार पूछते - आपको क्या बनना है ? वक्ता कि पण्डित ? प्रभावक कि आराधक ? गीतार्थ कि विद्वान ? तत्पश्चात् वे कहते - आराधक, गीतार्थ बनें । यदि गीतार्थ उत्तर दिया हो तो वैसे बनें । पू. नूतन आचार्यश्री : 'आपने तो पूछ लिया होगा ?' पूज्यश्री : मैंने तो पहले से ही निश्चित कर लिया था, पूछने की आवश्यकता ही नहीं थी । कहे ooooooooooooooooooon ११९
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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