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हे भगवान् ! आपके प्रभाव से उत्पन्न परम पद जब तक मैं प्राप्त न कर लूं, तब तक मुझ शरणागत की शरण आप न छोड़ें।
कलिकालसर्वज्ञ आचार्यश्री की ऐसी प्रार्थना अपने हृदय की प्रार्थना क्यों न बने ?
भगवान की एक ही शर्त है - आप बराबर रथ में बैठे रहें । रथ में से उतरे नहीं । उतर जाओगे तो मैं क्या कर सकूँगा ? आप रथ से चिपके रहोगे तो पहुंच जाओगे । यदि रथ छोड़ दोगे तो संसार में कुचले जाओगे ।
___ 'प्रभु-पद वलग्या, ते रह्या ताजा;
अलगा अंग न साजा रे ।' प्रभु ! आप होते हैं तब मेरे मन-गृह की शोभा बढ़ती है । आप जाते हैं तब मन रूपी घर वीरान हो जाता है । प्रभु ! आप स्थायी रूप से यहीं रहें । आपके आगमन से मेरा घर सुशोभित हो जायेगा । मेरा मन वैकुण्ठ बन जायेगा ।
भगवान को मेहमान के रूप में रखो तब तक हटाये जा सकते हैं, परन्तु प्रतिष्ठा होने के पश्चात् ?
भगवान को हृदय में मेहमान (अतिथि) के रूप में ही मत बिठाना, प्रतिष्ठा ही कर दें ।
बाह्य मन्दिर में भगवान का प्रवेश-प्रतिष्ठा इत्यादि मनमन्दिर में भगवान का प्रवेश-प्रतिष्ठा आदि कराना है, इसके सूचक हैं।
जब तक यह न हो तब तक मन्दिर में नित्य जाना है।
* भगवान की विशेषता है - स्व-सेवक को जीवन भर सेवक ही न रखकर अपने समान बनाते ही है। आप अपनी सम्पत्ति अपने पुत्र को ही देते हैं । भगवान अपनी सम्पत्ति अपने सभी भक्तों को ही देते हैं । भगवान के लिए जगत् के समस्त जीव पुत्र हैं।
अपने समान बनाने की शक्ति भगवान में है। भगवान का यह स्वभाव है।
(कहे कलापूर्णसूरि - ३ ooooooooooooooooo50 ८३)