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________________ सेवा करने से शरीर नहीं घिसता । घिस जाये तो मेरी जवाबदारी । मैं ठीक कहता हूं - सेवा से शरीर नहीं बिगड़ता । वास्तव में तो सेवा एवं श्रम छोड़ देने से ही शरीर बिगड़ता भगवान के साधुओं की सेवा का सौभाग्य कहां से प्राप्त हो ? सेवा से भगवान की आज्ञा का पालन होता है । पूज्य गणिश्री मुक्तिचन्द्रविजयजी : दूसरे कम काम करें उसका दुःख है ।। पूज्यश्री : मन को बदल दो । मन का झुकाव बदलेगा तो सब ठीक हो जायेगा । दूसरे कम कार्य करें कि बिल्कुल न करें, परन्तु आप अधिक-अधिक करेंगे तो आपको तो अधिक लाभ ही मिलेगा, अधिक पुण्य बंधेगा । * 'भरहेसर सज्झाय' में जिन महापुरुषों और महासतियों के नाम महान् आचार्य भगवन् भी लेते हैं, उसका क्या कारण है ? आज तक किसी महान् आचार्य भगवन् ने प्रश्न नहीं उठाया कि हम श्रावक-श्राविकाओं के नाम क्यों लें ? स्वयं भगवान महावीर ने सुलसा, आनन्द, कामदेव श्रावक आदि की समवसरण में प्रशंसा की है। जब कुमारपाल को कंटकेश्वरी ने कोढ़ग्रस्त (कुष्ठ रोगी) बनाया तब हेमचन्द्रसूरिजी ने कुमारपाल को बचाया था । करुणामय जैन धर्म की कोई निन्दा न करे, अतः कुमारपाल चिता में जल मरना चाहते थे, परन्तु उदायन मन्त्री ने हेमचन्द्रसूरिजी को बात करने पर उन्हों ने अभिमन्त्रित जल के द्वारा उनका कुष्ठ रोग दूर किया था । ऐसे थे कुमारपाल, अतः उन्हें 'परमार्हत्' का बिरुद मिला हुआ है । 'परमार्हत्' अर्थात् परम आहेत, परम श्रावक । कुमारपाल जैसे को आचार्यश्री क्यों बचायें ? कुमारपाल जैसे की आचार्यश्री प्रशंसा क्यों करें ? उपबृंहणा अर्थात् क्या ? चतुर्विध संघ में रहे गुणवान की प्रशंसा । वह उपबृंहणा भी न करें तो दर्शनाचार में अतिचार लगता है, यह जानते हैं न ? ३३८0mmonasooaratasoooomnosक
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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