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________________ 'संघमांही गुणवंततणी अनुपळहणा कीधी' - अतिचार यह सब भगवान से प्राप्त होता है। इसीलिए मैं भक्ति पर इतना बल देता हूं । कल अष्टापद की पूजा में देखा न ? भरत कहता है - 'दीओ दरिसण महाराज !' भरत क्या अनपढ़ थे? क्या वे नहीं जानते थे कि सम्यग्दर्शन मिले तो ही प्रभु का दर्शन मिलेगा । परन्तु इस तरह प्रभु का स्मरण करने से ही प्राप्त सम्यग्दर्शन निर्मल होता है, यह भी वे जानते थे न ? ऐसे दर्शन के लिए आपके मन में उत्कण्ठा जगी ? भगवान को जिनहर्ष की तरह आप भी कहें - प्रभु दर्शन दें । 'धुंआडे धीजें नहीं साहिब ! पेट पड्या पतीजे ।' मुझे ऐसे ही सन्तोष नहीं मिलेगा, मुझे दर्शन चाहिये ही । * एक भगवान को पकड़ो तो भगवान के सभी गण आपके । एक गुरु को पकड़ो, गुरु के सभी गुण आपके ।। 'अब तो अधिकारी होइ बैठे, प्रभु-गण अखय खजान में...' ___ हम मगन भये प्रभु ध्यान में, बिसर गई दुविधा तन-मन की अचिरासुत गुण-गान में ।' - उपा. यशोविजयजी तन-मन सब भूल जाये, मात्र चिदानंद का आस्वादन ही बाकी रहे, ऐसी प्रभु की मग्नता यशोविजयजी को मिल जाये, 'रंग रसिया रंग रस बन्यो' ऐसा बोलनेवाले वीरविजयजी को वेधकता का आस्वादन मिल जाये तो हमें क्यों न मिले ? प्रभु के साथ लीनता आ जाये तो फिर दीनता कैसी ? इसीलिए कहता हूं - भगवान में तन्मय बनें, भगवान को पकड़े । भगवान को पकड़ ने पर समस्त गुण आ जायेंगे । इस 'ललित विस्तरा' में भार देकर कहा गया है कि भगवान के अनुग्रह के बिना एक भी गुण नहीं मिलेगा । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 60mwwwwwwwwwwwwws ३३९)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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