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पुरुषार्थ छोड़ना नहीं है, परन्तु अधिक से अधिक करना है और प्रभु को प्रार्थना करते रहना है - 'प्रभु ! आपके पसाय से मेरा यह पुरुषार्थ सफल हो ।' 'होउ ममं तुह प्पभावओ ।'
- जय वीयराय 'होउ मे एसा सम्म गरिहा ।'
- पंचसूत्र कई मनुष्य क्या नहीं कहते ? 'गुरुदेव ! मासक्षमण करने की मुझमें शक्ति नहीं है। आपकी कृपा चाहिये ।' इसका अर्थ यह नहीं कि मासक्षमण करने का पुरुषार्थ छोड़ दें । पुरुषार्थ चालु रख कर भगवान के पास नम्रता पूर्वक बल मांगना है, कृपा की याचना करनी है ।
* व्याख्या के सात अंग हैं : (१) जिज्ञासा, (२) गुरुयोग, (३) विधिपरता, (४) बोध-परिणति (५) स्थिरता, (६) उक्तक्रिया, (७) अल्प भवता (अल्प संसार)
जिज्ञासा : अपने शब्दों में कहे तो झंखना ! तमन्ना ! ये हो तो ही गुरु आदि का योग मिलता है, और आगे का काम होता है।
ऐसी लगन लगने के कारण ही घोड़े को मुनिसुव्रत स्वामी का और उदायन राजा को श्री महावीर स्वामी का योग हुआ था । आपकी लगन प्रबल बने तब गुरुयोग होता ही है ।
__ अनेक बार देखा है - आपको जो ग्रन्थ पढ़ने की तीव्र उत्कण्ठा हो, गुरु को भी वही ग्रन्थ पढ़वाने की तीव्र उत्कण्ठा हो ।
* जिज्ञासा के साथ साधक में स्थिरता भी चाहिये । यह नहीं हो तो पूरा पढ़ा नहीं जायेगा । आर्यरक्षितसूरिजी पढ़ते थे और घर में से बार-बार बुलावा आया - 'जन्मभूमि में आइये ।'
वज्रस्वामी को पूछा : कितना अध्ययन बाकी है ? 'बिन्दु अध्ययन किया है, सागर बाकी है ।'
वज्रस्वामी के इस उत्तर से अधीर एवं अस्थिर बने आर्यरक्षितसूरिजी ने जन्मभूमि की ओर विहार किया, पदार्पण किया । इसी कारण से साढ़े नौ पूर्व से अधिक फिर वे अध्ययन नहीं कर सके ।
(८८000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ३)