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है । उपयो सामायिक धर्म र
इस तरह अधिक जाप होने के पश्चात् (भीतर अनाहत नाद उत्पन्न होने के पश्चात्) एक नवकार पर्याप्त है। वहां संख्या का आग्रह नहीं रहता । अपयस्स पयं नस्थि ।
- आचारांग 'अशब्द आत्मा को शब्द से नहीं पकड़ी जाती ।' परन्तु यह बात पकड़कर अभी से ही जाप छोड़ मत देना ।
* सामायिक धर्म पुस्तक में - उपयोग की बात आती है । उपयोग एवं ध्यान में कोई अन्तर नहीं हैं । ध्यान क्या है ? क्या उपयोग (जागृति) रहित ध्यान सम्भव है ? उपयोग अर्थात् जागृति, ध्यान ।
सतत उपयोग पूर्वक का जीवन अर्थात् सतत ध्यान की धारा चालु हो तो दैनिक प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ? इस प्रश्न का भी सुन्दर उत्तर दिया है । विषयान्तर होने के कारण यहां अधिक कुछ नहीं कहता ।
* अन्य विषयों में मन को नहीं जाने देना प्रभ की पूजा है, क्या ऐसा ज्ञात होता है ? अन्य विषयों में मन को जाने देना प्रभु की आशातना है, क्या यह कदापि समझ में आया ?
* 'नमुत्थुणं' में पहला ही 'नमः' अत्यन्त ही अद्भुत है । समस्त ध्यानों का उसमें समावेश है ।
आपको नमस्कार करने वाला मैं कौन होता हूं? आपके प्रभाव से मुझ में नमस्कार करने की शक्ति आये - यह बताने के लिए 'नमोऽस्तु' लिखा । 'नमोऽस्तु' अर्थात् नमस्कार हो । 'मैं नमन करता हूं ।' ऐसा कहने का साहस नहीं चलता ।।
पू. हेमचन्द्रसागरसूरिजी : क्या पुरुषार्थ सर्वथा गौण है ?
पूज्यश्री : पुरुषार्थ तो करना ही है, परन्तु उसे सफल बनाने के लिए प्रभु को प्रार्थना करनी है - प्रभु ! एक बार भी नमन करने का पुरुषार्थ सफल हो जाये तो काम हो जाये ।
'एक वार प्रभु वंदना रे, आगम रीते थाय । कारण सत्ये कार्यनी रे, सिद्धि प्रतीत कराय ।'
___- पू. देवचन्द्रजी (कहे कलापूर्णसूरि - ३000000000000८७)