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कथयितव्य को मुख्यता से कहा जाता है । सामने श्रोताओं को जिसकी आवश्यकता हो, उस नय को आगे करके भगवान देशना देते हैं । 'अर्पिताऽनर्पितसिद्धेः'
- तत्त्वार्थ ऐसा न हो तो कुछ भी बोला ही नहीं जा सके ।
अतः प्रश्न पूछते समय ख्याल रखें कि मैं इस समय किस नय को आगे करके बोल रहा हूं। जिस नय को आगे करके बोला जाता हो उसका अर्थ यह नहीं है कि दूसरों का महत्त्व नहीं है । उस समय अन्य नय गौण होते हैं ।
* शास्त्रों की व्याख्या छ: प्रकार से होती है :
संहिता, पद, पद का अर्थ, पद का विग्रह, चालना एवं प्रत्यवस्थान ।
* 'नमोऽस्तु' में 'नमः' पूजा के अर्थ में है । द्रव्यभाव से संकोच करना पूजा है । काया एवं वाणी का संकोच द्रव्य-संकोच कहलाता है ।
मन का संकोच भाव-संकोच कहलाता है । __ हजारों स्थानों पर भटकते मन को एक ही स्थान (प्रभु में) पर केन्द्रित करना भाव-संकोच है । द्रव्य-संकोच से भाव-संकोच कठिन है ।
मन को सूत्र, अर्थ अथवा आलम्बन में कही जोड़ देना चाहिये । यदि मन जुड़ जाये तो आपको अलग ध्यान करने की कोई आवश्यकता नहीं है ।
रूपातीत अवस्था का भावन अनालम्बन योग है। हम यह बात समझते नहीं हैं अतः तीव्रता से चैत्यवन्दन करके ध्यान में बैठने का प्रयत्न करते हैं । आप चैत्यवन्दन छोड़ कर अन्य कौन सा ध्यान करेंगे ?
क्या काउस्सग्ग में ध्यान नहीं है ? 'झाणेणं' शब्द का अर्थ क्या होता है ? क्या चैत्यवन्दन में काउस्सग्ग नहीं आता ?
* आगे की भूमिका आने पर तो अर्थ चिन्तन पूर्वक का एक लोगस्स भी पर्याप्त है, फिर वहां संख्या का आग्रह नहीं रहता । (८६oooooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)