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________________ 'अद्य छिन्ना मोहपाशा, अद्य रागादयो जिताः । अद्य मोक्ष-सुखं जातमद्य तीर्णो भवार्णवः ॥' ये भक्त के उद्गार हैं । दूर स्थित भगवान भी भक्त को समीप ही प्रतीत होते हैं । परन्तु भगवान प्रत्येक को दर्शन नहीं देते, भक्त को ही देते हैं । भक्त को दर्शन दिये बिना रहते ही नहीं है, ऐसे भी आप कह सकते हैं । तीर्थ के नमस्कार में तीर्थंकर को नमस्कार हो गया कि नहीं ? जिन - वचनों के बहुमान से जिन का बहुमान हो गया कि नहीं ? जिन्हों ने शास्त्र ( जिन वचन) आगे किये, उन्हों ने भगवान आगे किये ही; तो ही कर्म-क्षय होते हैं । शास्त्र छोड़ दिये, विधि छोड़ दी तो भगवान छोड़ दिये । भक्त जब त्रिगुप्ति से गुप्त होते हैं, तब ही भगवान दर्शन देते हैं । यही समापत्ति कहलाती है । तीन गुप्तियां हमें छोटी वस्तु प्रतीत होती हैं, परन्तु हम नहीं जानते कि इसमें तो समापत्ति समाविष्ट है । इसमें तो भगवान को मिलने की कला छिपी हुई है । मैं तो यहां तक कहूंगा कि इस एक मुहपत्ति के बोल में समग्र जैन - - शासन भरा पड़ा है । इसमें बोलते हैं न ? 'मन गुप्ति, वचन गुप्ति, काय गुप्ति आदरुं ।' मुहपत्ति पडिलेहण हमें छोटी क्रिया लगती है, परन्तु अनुभवी की दृष्टि में अत्यन्त ही विराट् है । इसमें साधना के बीज हैं । उनके माध्यम से आप केवल ज्ञान रूपी वृक्ष प्राप्त कर सकते हैं । * इस तीर्थ की महिमा समझनी हो तो संसार की भयंकरता समझनी पड़ेगी । सागर की भयंकरता समझे बिना जहाज का महत्त्व समझ में नहीं आता। रावण के बिना राम की, दुर्योधन के बिना युधिष्ठिर की, अंधकार के बिना प्रकाश की महिमा समझ में नहीं आती । यह संसार कितना भयंकर है वह तो देखो । इस संसार सागर में जन्म - जरा - मृत्यु रूप जल है । मिथ्यात्व अविरति से वह गहरा है । महा भयंकर कषाय पाताल है । ये कषाय अत्यन्त भयंकर प्रतीत हों तो ही उन्हें निकालने के आप प्रयत्न करेंगे न ? कषाय भयंकर ही नहीं, 'महा भयंकर' 200 AAAAAAAAAAAAAAAHAHAH ne acuteft-3) *
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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