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________________ हमें कई बार कहते, 'यह धर्मशाला यात्रियों के लिए नहीं, परन्तु महात्माओं के लिए रखनी है। यात्री तो नित्य हैं ही। महात्माओं का लाभ कहां से मिले ? इतना बड़ा स्थान नहीं होता तो यहां कैसे रहा जाता ? रायशी लखधीर : पूर्व भव में हमने ऐसे पुण्य किये होंगे जिसके कारण खीमई बेन जैसी माता मिली । यों तो वे खेती का कार्य करती थी, फिर भी उन्हों ने हमें धर्म-संस्कार देने में कोई कमी नहीं रखी । नई मुंबई में जब पूज्यश्री ने प्रथम बार पालीताणा में चातुर्मास करने की बात की तब हम भाव-विभोर हो गये थे । चैत शुक्ला-४ को सोने का सूरज उगा, जिस दिन इस धर्मशाला में पूज्यश्री का संघ के साथ पदार्पण हुआ । धर्मशाला पवित्र हो गई । फिर तो बहुत ही शानदार अनुष्ठान हुए । साढ़े पांच महिनों तक पूज्यश्री का सान्निध्य मिला जो हमारा पुण्य है । वाचना के समय तो ऐसा लगता मानो भगवान देशना दे रहे हों । इस होल में सर्वत्र पूज्यश्री की आवाज सुनाई देती । यह मैं ने प्रत्यक्ष देखा है । जिन्हें जैन समाज में सर्वोत्कृष्ट रूप में प्रत्येक समुदाय के लोग देखते है, ऐसे पूज्यश्री का सतत साढ़े पांच महिनों तक सान्निध्य मिला है जिसका हमें गौरव है । __ अत्यन्त सावधानी रखते हुए भी व्यवस्था में त्रुटि रह गई हो तो मिच्छामि दुक्कडं मांगता हूं । मालशी लखधीर : एक साथ वागड़ समुदाय रह सके ऐसा स्थान अमुक अंशो में बना उसका गौरव है । पालीताणा में हैं तब तक यहां लक्ष्य रखें, ऐसी पूज्यश्री को विनती है । ABNAIL 38
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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