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लकड़ा लेने के लिए जाना हो तो भी विधि बताने की छोटी सी बात भी वे चूके नहीं हैं ।
* कल हमने संसार की भयंकरता पर विचार किया । संसार की भयंकरता समझ में आये उसे ही तीर्थ की महत्ता समझ में आती है । धूप की उष्णता के बिना छाया की महिमा कहां समझ में आती है ?
जब तक इस संसार में रहेंगे तब तक जन्म-मरण के चक्कर में भ्रमण करना ही पड़ेगा । यहां कहीं भी एक स्थान पर सतत रहने की सुविधा नहीं है। कर्म सत्ता का स्पष्ट आदेश है कि यहां फिरते ही रहो, सरकते ही रहो । सतत सरकता, सरकाता रहे वही संसार है ।
ऐसे संसार से शीघ्र छूटने के लिए ही हम संयम रूपी जहाज में बैठे हैं ।
* अठारहों पापों से छ: काय जीवों को दुःख होता है। उन्हें होने वाले दुःख से अपना ही दुःख बढ़ता है। इसीलिए इन पाप-स्थानकों के सेवन करने का भगवान ने निषेध किया है ।
वास्तव में तो हमें दूसरे जीवों पर उपकार करना चाहिये, परन्तु हम अपकार कर रहे हैं ।
* चतुर्विध संघ तीर्थ रूप है। हम यदि वैसे गुणों वाले हैं तो संघ में हैं; अन्यथा स्वतः ही संघ से बाहर हैं । वल्कलचीरी जैसे व्यवहार से संघ से बाहर होने पर भी गुणों से संघ के भीतर हैं।
गुणों की सम्पत्ति के आधार से ही हम साधक बन सकते हैं ।
* बैल बोझ उठाने में सुदृढ गिने जाते हैं । सत्त्वशाली मुनि भी गच्छ का बोझ उठाते हैं । इसीलिए कहा है कि - 'मुनिगणवृषभैर्धारितं बुद्धिमभिः ।' ।
__ सचमुच तो यह वृषभ की पदवी लेने योग्य है । वृषभ जैसे मुनियों से ही समुदाय सुशोभित होता है। किसी भी समय गोचरी, पानी, काप निकालने आदि का कार्य हो तो तैयार ।
पूज्य प्रेमसूरिजी के समुदाय में पूज्य मणिभद्रविजयजी, पूज्य धर्मानंदविजयजी ऐसे वृषभ मुनि थे । किसी भी काम के लिए सदा तैयार ही रहते थे ।
आप शायह यह मानते होंगे कि कोई काम न हो, अध्ययन नहीं करना हो वे गोचरी-पानी आदि का काम करते रहते हैं;
[२७४000000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ३)