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परन्तु यह जान लें कि पूज्य धर्मानन्दविजयजी (बाद में पूज्य धर्मजित्सूरिजी) तब कर्म प्रकृति का अध्ययन करते थे । पिण्डवाडा के समय निशीथ सूत्र पढ़वाते थे । अत्यन्त ही पहुंचे हुए विद्वान थे, फिर भी काम-काज में भी ऐसे ही मजबूत थे ।
ऐसे मुनि मुनि-वृषभ कहलाते हैं ।
* चतुर्विध संघ का प्रत्येक सदस्य अर्थात् मोहराजा के विरुद्ध संग्राम करने वाला बहादुर योद्धा ।।
खारे समुद्र जैसे संसार में हम सब रहते हैं, परन्तु चतुर्विध संघ के यदि हम सदस्य हों तो संसार का खारापन हमारा कुछ नहीं कर सकता ।
दूसरी सब मछलियों खारा पानी पीती है, परन्तु शृंगी मत्स्य खारे समुद्र में भी मीठा (मधुर) पानी पीता है । चतुर्विध संघ का प्रत्येक सदस्य शृंगी मत्स्य है ।
'उत्तम आचारज मुनि अज्जा, श्रावक-श्राविका अच्छजी; लवण जलधिमांहे मीठं जल, पीवे शृंगी मच्छजी ।'
___- जिनविजयजी * सागर का ज्वार उतरने के बाद समझदार यात्री जहाज को छोड़ता नहीं है । जहाज को आप नहीं छोड़ेंगे तो पार उतारने की जवाबदारी उसकी है । तीर्थ रूपी जहाज को यदि हम नहीं छोड़े तो भवसे पार लगाने की जवाबदारी उसकी है ।
* मुनिसुन्दरसूरिजी ने 'अध्यात्म-कल्पद्रुम' में यतिशिक्षाधिकार में मुनि को अच्छे झटके लगाये हैं कि तू दिन में नौ बार 'करेमि भंते' बोलता है, फिर भी पुनः पुनः ऐसी सावध क्रिया करता है ? अतः है मुनि ! तेरा क्या होगा ? तू किस मुंह से स्वर्ग-मोक्ष की आशा रखता है ?
__ यह शिक्षा दूसरे को नहीं, स्वयं को ही देनी है । हम एक स्वयं को छोड़ कर दूसरों को सलाह देने में होशियार हैं ।
इसी लिए 'संथारा पोरसी' में लिखा है - 'अप्पाणमणुसासइ ।' इस तरह मुनि अपनी आत्मा को शिक्षा दे ।
अपार पुण्य हो तो ही ऐसी दुर्लभ सामग्री मिलती है और ऐसा मिलने के बाद भी प्रमाद होता रहे तो क्या मानें ? अपार पाप मानें ? कहे कलापूर्णसूरि - ३ aamana G 55055 २७५)