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* स्व दुष्कृत-गर्दा कि सुकृत-अनुमोदना अपने जीवन में नहीं है क्योंकि अपने जीवन में शरणागति नहीं है । यदि शरणागति हो तो दूसरे दो आये बिना नहीं रहेंगे ।
आराधना आदि कुछ नहीं हो तो भी निराश न हों । बाल्टी चाहे कुंए में हो, रस्सी हाथ में है। रस्सी हाथ में हो फिर चिन्ता कैसी ? जब तक आयुष्य की डोर हाथ में है, तब तक जागृत हो जायें ।
ऐसी अविच्छिन्न उत्तम परम्परा स्थानकवासी, तेरापंथी, दिगम्बर, कानजी, रजनीश या दादा भगवान के किन्ही अनुयायियों को मिली नहीं है, हमें मिली है; जो अपना कितना सौभाग्य गिना जाता है ?
मुझे तो ऐसी उत्तम परम्परा, उत्तम साधना-पद्धति कहीं भी देखने को नहीं मिली । यहां क्या नहीं है ? यहां उत्तम कक्षा का ध्यानयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग, चारित्रयोग आदि सभी हैं।
इतना मिलने पर भी हम संसार-सागर नहीं तैर सकें, इसका अर्थ यह हुआ कि चलते जहाज में से हम सागर में कूद गये हैं; परन्तु डरें नहीं, भगवान को पकड़ लें । ये भगवान आपको चाहे जैसे तूफान में हाथों हाथ पकड़ कर बाहर निकालेंगे । _ 'पण मुज नवि भय हाथो हाथे, तारे ते छे साथे रे ।'
चाहे जैसी विकट परिस्थिति में ये भगवान मार्ग बतायेंगे । अभी ही भरी सभा में धुरन्धरविजयजी ने पत्थर फैंका कि 'संघ को भगवान भी नमस्कार करते हैं तो ऐसे संघ को नवकार में नमस्कार क्यों नहीं किया ?
उस समय तो मैंने कहा था कि नवकार में संघ को नमन है ही, परन्तु दूसरे ही दिन विचार आया - नमो अरिहंत + आणं - अरिहन्त की आज्ञा को नमस्कार हो । आज्ञा अर्थात् संघ । यहां संघ को नमस्कार आ ही गया ।
इस प्रकार मुझे सिखाने वाले भगवान को कैसे भूला जा सकता है ?
आप भगवान को नहीं छोड़ो तो भगवान आपको नहीं ही छोड़ेंगे । नाम आदि चार में से किसी एक रूप में भगवान को पकड़ रखें ।
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