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कह कर बैठ जाते हैं । वीर्योल्लास के बिना कर्मों का क्षय नहीं होता ।
मरुदेवी माता ८३ लाख पूर्व गृहस्थ-जीवन में पुत्र भगवान के साथ रहे । इतने समय तक जिसने पुत्र का सम्पर्क किया हो वह माता पुत्र के ही विरह में रोये, क्या यह सम्भव है ? नहीं, माता पुत्र में भगवान का रूप देखती थी ।
माता का प्रेम तो अद्भुत है । माता की ओर के इस प्रेम के कारण ही प्रवचन माता, धर्म माता आदि शब्द शास्त्रों में प्रयुक्त
पू. गणि मुक्तिचन्द्रविजयजी : क्या नाभिराजा को कुछ नहीं हुआ ?
पूज्यश्री : मां तो मां है । माता के जितना प्रेम (वात्सल्य) पिता में स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर नहीं होता । इसीलिए प्रवचन माता इत्यादि शब्दों का प्रयोग हुआ है, प्रवचन पिता आदि शब्दों का नहीं ।
उस समय नाभिराजा जीवित थे, वैसा कोई उल्लेख जाना नहीं है । सम्भव है - उस समय वह विद्यमान नहीं भी हो ।
जितना शास्त्रों में उपलब्ध है, उतना तो पकड़ें । __क्या मरुदेवी इन्द्रों के द्वारा हो चुके अभिषेक नहीं जानते थे ? इन्द्र के द्वारा राज्याभिषेक, विवाह, दीक्षा आदि क्या नहीं जानते थे ? उन्हें ज्ञात ही था कि मेरा पुत्र भगवान है ।
गौतम स्वामी को केवल ज्ञान से गुरु-भक्ति विशेष प्रिय लगी थी । कदाचित् पांचवे आरे के जीवों को गुरु-भक्ति समझाने के लिए ही उन्हों ने ऐसा किया हो । कदाचित् नहीं किया हो तो भी हमारे लिए वह आदर्श रूप है ही ।
'मुक्ति थी अधिक तुज भक्ति मुज मन वसी' क्या इस पंक्ति का विरोध करोगे ?
जिस प्रकार गौतम स्वामी का भक्ति-राग होने पर भी भगवान का राग भी था ही । मन में पता ही है कि ये भगवान हैं । इसीसे उनका शोक विराग में बदल सका । भगवत्ता याद आई
और केवल ज्ञान हो गया । (२१८ Booooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)