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अहिंसा, संयम, तप के पालन में जितनी कच्चाई (कमी) होगी, तीर्थ की आराधना में उतनी ही कच्चाई (कमी) रहेगी ।
श्रावक के पास जिस प्रकार स्थावर-जंगम सम्पत्ति होती है उस प्रकार भगवान के तीर्थ की भी सम्पत्ति होती है । इसीलिए लिखा है - त्रैलोक्यगतशुद्धधर्मसम्पयुक्तमहासत्त्वाश्रयं प्रवचनम् । तीनों लोकों में विद्यमान शुद्ध धर्म की सम्पदावाले सत्त्वशाली जीव भगवान की ही सम्पत्ति हैं । - यहां ढाई द्वीप न लिख कर त्रैलोक्यगत लिखा, क्योंकि असंख्य देशविरतिधर, असंख्य सम्यग्दृष्टि देव, नारक ढ़ाई द्वीप से बाहर हैं, उन सबको समाविष्ट करने के लिए त्रैलोक्यगत लिखा है । यहां दृष्टि अत्यन्त ही विशाल है। हमारी दृष्टि संकुचित है । हम अपनों को भी समाविष्ट नहीं कर सकते । भगवान का संघ इतना विशाल है कि समग्र ब्रह्माण्ड को अपने भीतर समाविष्ट कर लेता है।
भगवान का यह संघ अचिन्त्य शक्ति युक्त कहा गया है । अचिन्त्य अर्थात् चित्त से विचार नहीं किया जा सके ऐसी शक्ति से युक्त ।
यह संघ अनेक प्रकार से उपकार करता ही रहता है ।
नलिनीगुल्म विमान का वर्णन सुन कर जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त अवंतीसुकुमाल को लगा था कि निश्चय ही ये मुनि वहां जाकर आये प्रतीत होते हैं, अन्यथा वे ऐसा वर्णन कैसे कर सकते थे ?
इसीलिए लिखा है - 'अविसंवादि अर्थात् संवादि ! सत्य ! जैसा है वैसा कहने वाला यह प्रवचन है ।
प्रवचनं सङ्घो वा । ऐसा इसलिए लिखा कि प्रवचन (द्वादशांगी रूप प्रवचन) का आधार संघ है। संघ के बिना प्रवचन कहां रहे ?
तीर्थ किसे कहते हैं ? चतुर्विध श्रमण संघ तीर्थ कहलाता है, साधु-साध्वी तो श्रमण हैं ही। श्रावक-श्राविकाओं को भी यहां श्रमण कहा है, क्योंकि भविष्य में वे श्रमण बनने वाले हैं और तप आदि साधना के लिए श्रम आदि करते रहते हैं। श्रम करते हैं वे श्रमण । इस अर्थ में चतुर्विध संघ के समस्त सदस्य 'श्रमण' हैं । कहे कलापूर्णसूरि - ३nmoonsomwwwoooooooom २७९)