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भी जिन्हों ने साक्षात् भगवान देखे हों उनके मुंह से भगवान का वर्णन सुनना कितना प्रिय लगता है ? गणधरों ने भगवान को साक्षात् देखे हैं । उन देखे हुए भगवान का 'नमुत्थुणं' में वैसा ही वर्णन
* मुनिचन्द्रसूरिजी ने पंजिका में लिखा है कि तीर्थ रहे तब तक भगवान का उपकार चालु ही रहता है, इस समय भी चालु है और अभी साढ़े अठारह हजार वर्षों तक उपकार चालु ही रहेगा । भोजनशाला चलती हो तो अन्न-दान का उपकार होता रहता है, उस प्रकार यहां धर्म-दान का उपकार होता रहता है ।
तीर्थ का एक ही कार्य है - जीवों को संसार से पार उतारना । यह कार्य पांचवे आरे के अन्त तक चलता ही रहेगा; तब तक भगवान की शक्ति सक्रिय रहेगी । जो कोई उस शक्ति का स्पर्श करेगा, उसका कल्याण होगा ही ।
* 'ध्यान-विचार के २४ वलय देखो तो ख्याल आयेगा कि ये भगवान से भिन्न नहीं हैं, भगवान के साथ जुड़े हुए ही हैं।
भगवान मार्ग-दर्शक हैं और स्वयं मार्ग भी हैं । ___ 'नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र ! पन्थाः ।
- भक्तामर भगवान को छोड़ कर दूसरा कोई मुक्ति का मार्ग नहीं है।
* माता-पिता की सम्पत्ति पुत्र की है, उस प्रकार भगवान की सम्पत्ति भक्त की है। भक्त ही भगवान का सच्चा उत्तराधिकारी
* 'प्रश्नव्याकरण' में अहिंसा के ६० पर्यायवाची नाम हैं, जिनमें 'सिद्धों का आश्रय-स्थान' (केवली भगवान का स्थान) नाम भी है ।
अर्थात् जो अहिंसा पर बैठता है वही सिद्धशिला पर बैठ सकता है । केवली भगवान का स्थान भी अहिंसा है।
चरण-करण सित्तरी अहिंसा के प्रकार हैं ।
अहिंसा की आराधना के बिना, तीर्थ की आराधना के बिना क्या कोई सिद्ध बन सकता है ? इसी लिए अहिंसा को सिद्धों का आश्रय-स्थान कहा है । (२७८ oooooooooooo 66666 कहे कलापूर्णसूरि - ३)