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बताई है । जगत् में किसी के पास न हो ऐसी सम्पदा भगवान के पास है। उसकी श्रद्धा रखें तो भी काम हो जाये, ३४ अतिशय, ३५ वाणी-गुण, आठ प्रातिहार्य देखकर ही विरोधी भी फीके पड़ जाते हैं ।
पाण्डित्य बताने के लिए नहीं, परन्तु उपकार करने के लिए प्रभु का जगत् में पदार्पण हुआ है ।
* पूज्यश्री हरिभद्रसूरिकृत 'ललित विस्तरा' में भगवान की अद्भुत महिमा बताई है । परार्थ सम्पत्ति से भक्त को ख्याल आता है - कि मैं चाहे निर्बल हूं, मेरे भगवान निर्बल नहीं हैं । वे मुझे तारेंगे ही, मेरा उद्धार करेंगे ही।
एक अनुभवी सन्त ने कहा - 'नमो अरिहंताणं' में से मात्र 'नमो' आ जाये तो भी पर्याप्त है । एक बार भाव-नमस्कार आ जाये तो भी पर्याप्त है । इसके लिए ही ये द्रव्य-नमस्कार हैं ।
नमस्कार पूजा के अर्थ में हैं । पूजा अर्थात् द्रव्य-भाव का संकोच । तन, धन, वचन आदि प्रभु के चरणों में धरना द्रव्यसंकोच है । मन को अर्पण करना भाव-संकोच है ।
प्रभु की प्रशंसा करने से ऐश्वर्योपासना होती है, परन्तु माधुर्योपासना करनी हो तो प्रभु के साथ सम्बन्ध जोड़ना चाहिये । उसके बिना प्रभु के साथ प्रेम प्रकट नहीं होगा । 'त्वं मे माता पिता नेता' यह माधुर्योपासना है ।
संसार का राग आग बनकर जलाता है । प्रभु का राग बाग बनकर जीवन को उज्जवल करता है ।
प्रभु का राग करने से दोषों का नाश और गुणों का प्रकटीकरण होता है।
यह बात गणधरों ने स्पष्ट की है ।
छ: आवश्यक अर्थात् मात्र प्रतिक्रमण नहीं, परन्तु सम्पूर्ण जीवन छः आवश्यकमय होना चाहिये ।
खाना-पीना तो कभी होता है, परन्तु सांस तो प्रतिपल चाहिये, उस प्रकार प्रभु सांस बनने चाहिये । प्रत्येक सांस में प्रभु याद आने चाहिये ।
. 'समय-समय सो वार संभारूं' ऐसी अपनी स्थिति होनी चाहिये।
(कहे कलापूर्णसूरि - ३00 ooooooooooooooooo ९१)