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________________ * इन समस्त गुणों के द्वारा भगवान की श्रेष्ठता जानी । अब ये गुण चाहिये, तो क्या करें? जौहरी का माल अच्छा लगा । खरीदने की इच्छा हो गई तो क्या करना पड़ेगा ? मूल्य चुकाना पड़ेगा न? यहां सिर्फ गुण-राग की आवश्यकता है। जो गुण पसन्द पड़ने लगें तो वे आये बिना नहीं रहेंगे । जौहरी के जवाहिरात पसन्द आ जायें तो मिल ही जायेगा ऐसा नहीं है, परन्तु यहां गुण पसन्द आ जायें तो आने लगते ही हैं । इसमें कोई शंका नहीं है। 'गुणानुराग कुलक' में यहां तक कहा है कि 'आतित्थयरपयाओ' तीर्थंकर पद तक की पदवी गुणानुरागी के लिए दुर्लभ नहीं हैं । * आपका एक भी दोष बोला नहीं जाये उसकी मैं सतत सावधानी रखता हूं। आपको हितोपदेश देते देते भी इस विषय में मैं अत्यन्त जागृत रहता हूं, क्योंकि पू.पं. भद्रंकरविजयजी महाराज, पू. कनकसूरिजी महाराज आदि के द्वारा हमें यह सीखने को मिला है। उनके मुंह से मैं ने कभी किसी का दोष कहते नहीं सुना । __ दूसरे के दोष बताना कि दोष सुनना अर्थात् स्वयं दोषी बनने के लिए भूमिका तैयार करनी । यह जीभ इसलिए नहीं मिली । यदि इस जीभ का उपयोग दोष बताने में किया तो पुनः यह जीभ कहां मिलेगी ? पढ़ते हैं पुस्तक, परन्तु आभास होता रहता है कि हम 'वांकी' में बैठे हैं और उनके स्वमुख से ही सुन रहे हैं । सचमुच, यह पुस्तक हम जैसों के जीवन में दीपक तुल्य नहीं, परन्तु सूर्य के समान है ।। - साध्वी विश्वनंदिताश्री, (कहे कलापूर्णसूरि - ३000000 sooooooooom ३३३)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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