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________________ पदवी प्रसंग, वि.सं. २०५२, माघ शु. १३, मद्रास १४-९-२०००, गुरुवार अश्विन कृष्णा-१ : सात चौबीसी धर्मशाला * इतने वर्ष व्यतीत होने पर भी तीर्थ की शक्ति आज भी कम नहीं हुई । तारने का कार्य यह कर ही रही है । मात्र सम्पर्क में आने की आवश्यकता है । जिस लोहे का पारसमणि के साथ स्पर्श हुआ, वह स्वर्ण ही बन गया । प्रभु-शासन का जिसे स्पर्श हुआ वह परम बन ही गया । * भगवती में पांच प्रकार के देव आते हैं : (१) भव्य द्रव्य देव, भविष्य में जो देव बनने वाले हैं वै ।, (२) नरदेव - चक्रवर्ती, (३) धर्मदेव-साधु, (४) देवाधिदेव - तीर्थंकर भगवान्, (५) भावदेव - वर्तमान में देव । इनमें देवाधिदेव कितने ? नरदेवों की अपेक्षा संख्यातगुने अधिक । एक ही भगवान से कार्य नहीं होता ? नहीं, पुनः पुनः भगवान होते ही रहते हैं । भगवान तो पहले भी थे, परन्तु हम तैयार नहीं थे, उपादान तैयार नहीं था । उपादान भी निमित्त के बिना तैयार नहीं होता, यह भी समझ लें । अण्डे के बिना मुर्गी नहीं और मुर्गी के बिना अण्डे नहीं । उपादान के बिना निमित्त और निमित्त के बिना उपादान तैयार नहीं होता । (३३४ 0 0 0666666666 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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