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दर्शनमोह, मान, कषाय आदि गुरु-भक्ति में रुकावट करते हैं।
पं. वज्रसेनविजयजी ने कहा उस प्रकार गुरु-भक्ति के प्रभाव से 'अहं' नष्ट हो जाता है ।
धर्मराजा का भवन नमस्कार पर खड़ा है । मोहराजा का भवन अहं पर खड़ा है ।
अहं पर झटका लगते ही बस, संसार का समग्र भवन धराशायी हो जाता है । - 'ललित विस्तरा' (परम तेज) पढ़ो तो गुरु एवं परम गुरु की भक्ति बढ़ेगी, समर्पण-भाव में वृद्धि होगी ।
सब के हृदय में ऐसी भक्ति का परिणमन हो ऐसी अभिलाषा
पूज्य धुरन्धरविजयजी म.: गुरु के प्रति तीव्र बहुमान ही मोक्ष है । इससे ही मोह का क्षय होता है ।
मैत्री प्रभु के अनुग्रह के बिना नहीं मिलती । प्रभु का अनुग्रह गुरु के अनुग्रह के बिना नहीं मिलता, ऐसी बातें हमने पूज्यश्री से सुनी ।
अब पूज्य भद्रसूरिजी के आजीवन अन्तेवासी पूज्य ॐकारसूरिजी के आजीवन अन्तेवासी पूज्य यशोविजयसूरिजी :
प्रार्थना सूत्र 'जयवीयराय' में प्रभु के समक्ष नित्य दोहराते हैं। ___ 'सुहगुरुजोगो ।' प्रभु ! तू मुझे सद्गुरु का योग करा दे । मेरे समग्र अस्तित्व का जुड़ाव जब तक सद्गुरु के साथ न हो तब तक जीवन का अर्थ नहीं है। यह विरलतम घटना है। सद्गुरु एक खिड़की है, जिसके द्वारा परम का असीम आकाश देखा जा सकता है ।
खिड़की एवं अलमारी बाहर से समान प्रतीत होती हैं, परन्तु खोलने पर पता लगता है। जिसके पीछे दीवार हो वह अलमारी, जिसके पीछे खाली हो वह खिड़की है ।
जो भीतर से शून्य बन गये हैं वे सद्गुरु हैं ।
हो सकता है कि पू. हेमचन्द्रसूरिजी अथवा पू. हरिभद्रसूरिजी के समय में भी हम हों, परन्तु उन सद्गुरु के साथ जुड़ाव नहीं था ।
(कहे कलापूर्णसूरि - ३00000000000000000000 १९७)