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झांझण ने दस दिनों तक गुजरात को भोजन कराया, उसके बाद भी मिठाइयों के भण्डार भरे पड़े थे ।
संघ के साथ ऐसा सम्बन्ध जोड़ने के बाद ही आगेवान बना जा सकता है । जिसे संघ का छोटा बच्चा भी प्रिय लगे वही आगेवान बन सकता है ।
ऐसे आगेवान थे । तब बड़े सम्राट् भी श्री संघ के कार्य कर देते थे । वर्तमान दशा बदल गई है । आज तो छोटा सा अधिकारी भी जैन संघ को दबा सकता है । इसका कारण यह है कि व्यक्ति स्वयं को संघ की अपेक्षा बड़ा गिनता है ।
कच्छ-सौराष्ट्र आदि के संघ सल्तनत के सामने भी खड़े हो जाते थे, क्योंकि संघ - भावना थी ।
लालभाई दलपत की माता गंगा मां के घर साधु-साध्वियों की अद्भुत भक्ति रहती थी । उनके घर तीन सौ तीन सौ तो पात्रों की जोड़ी रहती थी, वे भी रंगी हुई होती थी ।
गंगा मां के पुण्य से ही सेठियों की सेठाई बची हुई है । जिन ट्रस्टियों को संघ के प्रति प्रेम एवं आदर भाव नहीं है, उनका पुण्य बढ़ता नहीं है, जिससे उन्हें किसी भी कार्य में सफलता मिलनी कठिन हो जाती है ।
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चतुर्विध संघ के प्रति आदर चाहिये । यही इस संघ की रक्षा कर सकता है ।
संघ अत्यन्त उदार है । छोटे से कार्य का भी बड़ा प्रतिसाद देता है । वावपथक का उदाहरण देता हूं । मार्ग में चलते भिखारी को कुछ देने की मैंने बात कही और दो मिनट में ढाई लाख रूपये एकत्रित हो गये ।
* संघ के प्रति अहोभाव दुश्मनी भी तोड़ डालता है । नागपुर से संघ लाने वाला पूनड मोयुद्दीन का मंत्री था । वस्तुपाल वीर धवल का मंत्री था ।
दोनों के बीच की दुश्मनी श्रावक के नाते टूट गई । अपने हाथ से वस्तुपाल ने उसके संघ की भक्ति की थी । यहीं श्री संघ है, जिस में से शासन स्तम्भ उत्पन्न हुए हैं और होंगे । बाहर से नहीं आये । इसी संघ में से आये हुए हैं ।
कहे कलापूर्णसूरि ३
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