________________
मुझे तो यही लगता है कि जिस प्रकार 'नवकार' चौदह पूर्व का सार है, उस प्रकार इस हलाहल कलियुग में समस्त शास्त्रों का सार यह पुस्तक है। नासमझ को भी इस पुस्तक से अत्यन्त ही समझ मिल सकती है। हमें तो मानो 'पंथ वच्चे प्रभुजी मल्या' उस प्रकार पंथ के मध्य ही कहे कलापूर्णसूरि' पुस्तक प्राप्त हो गई । अतः अब होगा वहां तक तो वर्ष में एक बार तो उसका स्वाध्याय करने का प्रयत्न करेंगे ही, ताकि हमारे जीवन में होने वाली क्षतिया दूर हों ।
- साध्वी सुज्येष्ठाश्री
'कडं कलापूर्णसूरिए' वाचनादाता : पू.आ.श्री विजयकलापूर्णसूरीश्वरजी महाराज, अवतरण / संपादन : उभय पू. गणिवर (पंन्यासप्रवर) श्री मुक्तिचन्द्रविजयजी म., श्री मुनिचन्द्रविजयजी म., प्रकाशक : शान्तिजिन आराधक मंडल, जैन मंदिर के पास, मनफरा (शान्तिनिकेतन), जी. कच्छ, गुजरात, पीन : ३७० १४०, डेमी साइझ, पेज ५५२, मूल्य : अप्रकाशित.
थोड़े समय पूर्व प्रकाशित और अद्भुत लोकप्रियता प्राप्त प्रकाशन 'कहे कलापूर्णसूरि' (जिसकी दूसरी आवृत्ति प्रकाशित करनी पड़े - इतनी मांग है) ऐसा ही यह दूसरा बड़ा ग्रन्थ है : 'कडं कलापूर्णसूरिए' इसमें अंजार, पो.सु. १४, ता. २०-१-२००० से श्रा.व. २, १८७-२०००, पालिताना तक के विहार दौरान दिये हुए वाचना - प्रवचनों में से संगृहीत पूज्यश्री की साधनापूत वाणी के अंश मुद्रित है । पूर्व प्रकाशन की तरह यह पुस्तक भी अवश्य लोकप्रिय / लोकोपकारी बनेगा - ऐसा निःशंक कहा जा सकता है। पूर्व पुस्तक की तरह इसमें भी प्रत्येक नये प्रकरणों के प्रारंभ में पूज्यश्री की लाक्षणिक तस्वीरें दी गई है । टाइटल चित्र अत्यंत आकर्षक बना है। उभय पू. गणिवर (पंन्यासजी) बंधुओं द्वारा बहुत ही प्रयत्न से किया गया यह संकलन सचमुच 'गागर में सागर' की उपमा देनी पड़े - ऐसा विशिष्ट है । ज्ञान-ध्यान-भक्ति मार्ग की गहरी बातें - अनुभूतियां इसमें शब्दस्थ बनी है। सचमुच पढने लायक और चिन्तन करने लायक यह पुस्तक होने से इसमें लाभ लेनेवालों को जितने धन्यवाद दें, उतने कम ही माना जायेगा ।
ANHARIYAYARI P
HASIRAMLALA ३७६ 0ROBHOPENEDEPUTORIHONORTS
कहे
AR