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________________ पूज्यश्री : सब भरा हुआ है । कहीं भी स्थान रिक्त नहीं है। कुबडी विजय (अधोलोक) में से सिद्ध हो सकता है तो उर्ध्वलोक में से क्यों नहीं हो सकता ? पू. धुरन्धरविजयजी म. : क्या गृहस्थ संघ में आते हैं ? पूज्यश्री : श्रावक-श्राविका संघ में आते है। उनका जन्म चाहे अजैन कुलों में हुआ हो । श्रावक-श्राविका बनने के पश्चात् ही साधु-साध्वी बन सकते हैं । __हम गुण प्राप्त न करें तो हम भी संघ से बाहर गिने जायेंगे, यह भी याद रखें । यह निश्चय-नय की बात है, परन्तु व्यवहार तो व्यवहार नय से ही चलता है । यह संघ कितना उदार है ? आप को कितना देता है ? सम्पत्ति एवं पुत्र तक भी शासन को समर्पित कर देता है । संघ स्वयं पच्चीसवां तीर्थंकर है । इसीलिए संघ के दर्शन अर्थात् भगवान के दर्शन । * पंचसूत्र' में साधु के सात विशेषण हैं । उन्हें पढ़ोगे तो ध्यान आ जायेगा कि साधु कैसे होते हैं ? साथ ही साथ यह भी ध्यान आयेगा कि हम कैसे हैं ? ऐसे साधु स्वयं तीर्थ स्वरूप हैं । 'तीर्थभूता हि साधवः ।' संघ गुणयुक्त है अर्थात् साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका गुणयुक्त ऐसे गुणवानों की स्वयं भगवान प्रशंसा करते हैं । _ 'जास पसंसइ भयवं दृढ़वयत्तं महावीरो ।' दुर्योधन को एक भी गुणवान नहीं दिखाई दिया । युधिष्ठिर को एक भी दुर्गुणी दृष्टिगोचर नहीं हुआ। हमारे पास यदि युधिष्ठिर की आंखे होंगी तो संघ में गुणवानों के दर्शन होंगे । संघ गुणवान् है । इसका अर्थ यह हुआ कि इसमें से असंख्य तीर्थंकर होने वाले हैं। आज भी तीर्थंकर नाम-कर्म निकाचित किये हुए असंख्य देव हैं, महाविदेह में भी हैं। पू. धुरन्धरविजयजी म. : क्या निकाचित हो सकते हैं ? पूज्यश्री : निकाचित हुए हैं या नहीं, यह तो ज्ञानी ही जान सकते हैं, परन्तु आपके गुरुदेव पूज्य पं. भद्रंकरविजयजी गणि (२२८ Wwwwwwwwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि - ३)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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