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________________ TORIA फलोदी, वि.सं. २०१० १९-७-२०००, बुधवार श्रा. कृष्णा -३ खीमईबेन धर्मशाला, चंपाबेन चांपशी होल, पालीताना * ग्रन्थ : ललित विस्तरा प्रणम्य भुवनालोकं, महावीरं जिनोत्तमम् । चैत्यवन्दन-सूत्रस्य, व्याख्येयमभिधीयते ॥ * आज जिस “ललित विस्तरा' ग्रन्थ का प्रारम्भ हो रहा है, जिसके कर्ता श्री हरिभद्रसूरिजी हैं, जिन्हें अन्य दर्शनवाले भी योगाचार्य के रूप में जानते हैं । उन्होंने यदि कलम नहीं चलाई होती तो हम योग से अनजान होते । 'योग अथवा ध्यान जैनों का विषय नहीं हैं' ऐसे अन्यदर्शन वालों के आक्षेपों का उन्होंने ठोस उत्तर दिया है । जैन परम्परा में योग किस प्रकार बुना हुआ है यह उन्होंने समझाया । ध्यान और समाधि के सूचक योग (मन, वचन, काया का सूचक योग शब्द नहीं) शब्द की उन्होंने व्याख्या की - (कहे कलापूर्णसूरि - ३0000000000000 000000 १)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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