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होने की प्रत्येक की अपनी नियति होती है ।
भगवान का जीव-दल ही इस प्रकार अलग होता है, दूसरों से विशिष्ट होता है । उनका तथाभव्यत्व उस प्रकार का होता है ।
* भगवान सफल आरम्भ वाले होते हैं । कार्य प्रारम्भ करें तो पूर्ण किये बिना नहीं रहते । हम कितने कार्य अपूर्ण छोड़ते हैं ? हमने कितने ग्रन्थ पढ़ने प्रारम्भ किये और बीच में से ही छोड़ दिये ? हम प्रारम्भ करने में शूरवीर हैं, परन्तु प्रारम्भ किये गये कार्य में अन्त तक लगे नहीं रहते ।
* श्रेष्ठतम स्फुरणा हुई हो, परन्तु जब तक आगम का पाठ नहीं मिले तब तक उसे सार्वजनिक न करें । योग्यता के बिना किसी को नहीं कहा जाता । सम्भव है, भगवान ने आपके लिए ही यह स्फुरणा भेजी हो । आपको वह सब सार्वजनिक नहीं करना
* गुरु भगवंत तीर्थंकरों की 'ब्रान्च ओफिस' हैं । इसीलिए 'पंचसूत्र' में 'गुरु-बहुमाणो मोक्खो ' कहा है।
गुरु आपको भगवान के साथ जोड़ते ही हैं । तीर्थंकर भगवान को भी किसी भव में गुरु मिले ही हैं । उनके ही प्रभाव से वे तीर्थंकर बन सके हैं । इसीलिए यहां लिखा है - 'देवगुरु बहुमानिनः ।' तीर्थंकर देव-गुरु का बहुमान करने वाले होते हैं ।
अग्नि के उपयोग में रहा हुआ माणवक अग्नि कहलाता है, उस तरह भगवान के ध्यान में लीन भक्त भगवान कहलाता है ।
इस कारण से उपयोग-रहित क्रिया द्रव्य कहलाती हैं - 'अनुपयोगो द्रव्यम् ।' उपयोग का इतना महत्त्व होते हुए भी हम उपयोग नहीं रखते । क्रियाएं रह गई, उपयोग छूट गया । उपयोगरहित क्रियाएं द्रव्य क्रियाएं कहलाती है ।
भाव का कारण बनने वाली प्रधान द्रव्य क्रिया कहलाती है ।
भाव का कारण नहीं बनने वाली क्रिया अप्रधान तुच्छ क्रिया कहलाती है। अपना उपयोग कहां है ? भगवान में है कि 'अहं' में है ? स्वयं को आगे करते हैं कि भगवान को ?
भगवान भले यहां नहीं है, भगवान के गुण यहीं हैं, शक्ति यहीं पर सक्रिय है । स्व. आचार्यश्री का नाम लेते ही उनके गुण (कहे कलापूर्णसूरि - ३ wwwwwwwwwwwwwwwwww ३३१)