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मैं तो वहां सुनने के लिए आ नहीं सकता । इस बहाने मुझे सुनने को मिलेगा ।
पू. यशोविजयसूरिजी : उपा. यशोविजयजी ने अध्यात्मोपनिषद् में जीवन को स्पर्श करने वाली एक बात कही है ' तेनात्मदर्शनाकांक्षी ज्ञानेनान्तर्मुखो भवेत् ।'
साधुता अर्थात् अन्तर्मुखता का राजमार्ग ।
श्रुतज्ञान ऐसा मिला है जो अन्तर्मुखता प्रदान करता है । * भक्तियोगाचार्य पद्मविजयजी म. कहते हैं 'आश धरीने हुं पण आव्यो, निज कर पीठ थपेटीए ।' पद्मविजयजी म. जैसे यों कहें और हम वंचित रह जायें ?
परन्तु अपनी पसन्दगी के भक्तों को भगवान किस तरह बाकी रखें ? प्रभु का स्पर्श अध्यात्म एवं भावना के पश्चात् मिलता है । उसी दिन भगवान का स्पर्श मिल गया । सायंकाल में 'आचारांग ' पढ़ते समय पढ़ा, 'कितनेक अवज्ञा में होते हैं, कितनेक आज्ञा में निरुत्साही होते हैं; परन्तु हे मुनि ! तुझे ऐसा न हो ।
यह पढ़ते-पढ़ते अश्रुधारा बह निकली, मानो भगवान ने मुझे यह उपहार भेजा ! तत्पश्चात् प्रभु ने तमाचा भी मारा । आचारांग में आगे पढ़ा 'एस अगुत्ते अणाणाए... तो तू आज्ञा से बाहर है । भगवान ऐसे दयालू हैं, जो कभी पुस्तक के रूप में या कभी अन्य रूप में कृपावृष्टि करते रहते हैं । हम भाग्यशाली हैं कि ऐसे (पू. कलापूर्णसूरिजी ) महापुरुषों की निश्रा में हमें श्रवण करने को मिलता है ।
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श्रवण करने की अपेक्षा महापुरुषों के ओरा सर्कल में रहना बड़ी बात है । वावपथक में रहता हूं, फिर भी पूज्यश्री के ओरा सर्कल में ही रहता हूं - ऐसा मुझे लगता हैं; क्योंकि साधना की ऊंचाई अधिक होती है, उस प्रकार ओरा सर्कल का वर्तुल विशाल होता है ।
पू. धुरंधरविजयजी म. 'क्या आप अकेले ही रहते हैं ?' हम सभी रहते हैं । माने उसके लिए ओरा सर्कल है । न माने वह स्वयं उस सर्कल से बाहर है ।
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