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पू. हेमचन्द्रसागरसूरिजी : उपकार किस तरह समझें ?
पूज्यश्री : बुद्धि में बैठे तो ही मानें, उन लोगो को यह नहीं समझ में आयेगा ।
मैं ही पूछता हूं - गृहस्थ तो साधुओं पर उपकार करते हैं। साधु गृहस्थों पर अधिक उपकार करते हैं, क्या यह समझ में आता है ? आप ही समझायें । साधु परोपकार की भावना से परोपकार करते हैं । साधुओं को बोलने की आवश्यकता नहीं है । उनके अस्तित्व मात्र से परोपकार होता ही है । सूर्य को तो फिर भी भ्रमण करके प्रकाश फैलाना पड़ता है, साधु बिना परिभ्रमण किये भी परोपकार फैलाते हैं, यह समझ में आता है ?
* चारित्र में आनन्द गुरु-भक्ति के प्रभाव से ही प्राप्त होता है । गुरु को यदि भगवान तुल्य मानें तो भगवान का अपमान नहीं होता, परन्तु भगवान अधिक प्रसन्न ही होते हैं । आखिर गुरुपद की स्थापना भगवान ने ही तो की है न ?
तीन तीर्थों में प्रथम गणधर भी तीर्थ हैं, जिसकी स्थापना भगवान ने ही की है । चतुर्विध संघ की स्थापना भी भगवान ने ही की है। हम सबके भीतर भगवान की शक्ति ही कार्य कर रही है ।
* विश्व के सभी पदार्थ कुछ न कुछ परोपकार करते ही हैं । परोपकार न करें ऐसा एक पदार्थ तो बताओ । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय तो उपकार करते ही हैं । आकाश भी स्थान प्रदान करके उपकार करता ही है न ? पुद्गल भी उपकार करते हैं । शरीर, मन, वचन पुद्गलों में से ही बने हैं न ? क्या इनके बिना मोक्ष के योग्य साधना सम्भव होगी ? वज्रऋषभनाराच संघयण, पुद्गल के बिना क्या है ?
सिद्धों में जीवन है न ?
जहां शुद्ध जीवन होता है वहां सहज परोपकार होता ही है। तीर्थंकर भी सिद्धों के आलम्बन से कर्मों का क्षय करते हैं ।
हमारी शक्ति वैसी हे सही, परन्तु अप्रकट है ।
प्रकट शक्ति वाले के आलम्बन से ही अप्रकट की शक्ति प्रकट होती है। (१७४ 00000mmommomooooooom कहे कलापूर्णसूरि - ३)