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'काल लब्धि लही पंथ निहालशुं रे, ए आशा अवलंब ए जन जीवे रे जिनजी जाणजो रे, 'आनंदघन' मत अंब ।'
इस समय भले हम इच्छायोग से पालन करते हैं, परन्तु शास्त्रसामर्थ्य योग से भी भविष्य में अवश्य पालन करेंगे । इस आशा से ही हम जी रहे हैं ।
पू. आनंदघनजी का यह आशावाद है ।
इच्छायोग में दृढ प्रणिधान (आज की भाषा में दृढ संकल्प, दृढ निर्धार) होता है। इससे ही आगे के शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग आ सकते हैं ।
क्या दृढ संकल्प के बिना दीक्षा प्राप्त होती ? क्या दृढ संकल्प के बिना यहां चातुर्मास हो सकता था ? क्या दृढ संकल्प के बिना कोई कार्य हो सकता है ? अब मोक्ष के लिए दृढ संकल्प कर लें ।
मोक्ष बाद में मिलता है। पहले मोक्ष का मार्ग मिलता है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र मोक्ष का मार्ग है । जानते हैं न? मार्ग पर चलोगे तो मंजिल मिलेगी ही । रत्नत्रयी की साधना करोगे तो मोक्ष मिलेगा ही । मोक्ष का संकल्प तब ही सच्चा गिना जायेगा यदि रत्नत्रयी में हमारी प्रवृत्ति हो ।
ऐसे शास्त्रों के द्वारा हमें पता लगता है -
रत्नत्रयी में हम कितने आगे बढ़ें ? थर्मामीटर से देह की उष्णता का पता लगता है, उस प्रकार शास्त्रों से आत्म-शुद्धि की मात्रा का पता लगता है ।
* औषधि जान ली, परन्तु ली नहीं, तो रोग, पीडा नहीं जायेगी । शास्त्र पढ़े परन्तु तदनुसार कार्य नहीं किया, तो आत्मरोग नहीं जायेगा ।
* सामर्थ्ययोग शास्त्रयोग का फल है। वहां साधक इतना आगे बढ़ जाता है कि शास्त्र भी पीछे रह जाता है । शास्त्र में नहीं बताये गये अनुभव वहां होते हैं ।
पू. आचार्य हेमचन्द्रसागरसूरिजी : वहां शास्त्र तो छोड़ने ही पड़ेंगे न ? क्योंकि यहां 'अतिक्रम' शब्द है ।
पूज्यश्री : शास्त्र को छोड़ने की बात नहीं है । शास्त्र (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 000000000000000000 १७१)