________________
को जो चारित्र-विहीन कहा गया है उससे घबराये नहीं । स्थिरता रूप चारित्र सिद्धों में भी होता है । आगमों में सिद्धों को अवीर्य कहा गया है जो बालवीर्य की अपेक्षा से कहा गया है । आत्मवीर्य तो अनन्त है ही ।
मन अस्थिर होने का अर्थ यही है कि हम स्वभाव छोड़ कर विभाव में गये, कषाय में गयें
अकसायं खु चारित्तं, कसाय - सहिओ न मुणी होइ
- बृहत् कल्पभाष्य बारह कषायों के क्षय-उपशम से ही यह चारित्र आता है। संज्वलन कषाय को भले छोड़ दें, परन्तु बारह कषायों का क्षयोपशम तो करना ही पड़ेगा ।
अनन्तानुबंधी का उदय हो वहां दूसरे कषायों का क्षयोपशम नहीं होता, नहीं हो सकता ।
अनन्तानुबंधी का उदय हो वहां मिथ्यात्व होता ही है । मिथ्यात्व नहीं गया और अनन्तानुबंधी की विसंयोगना (क्षय) की हुई हो, तो भी वह स्थिति अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं रहेगी, क्योंकि उसका बीज (मिथ्यात्व) पड़ा है।
इसीलिए मूल में पलीता लगाये बिना जीत नहीं होगी। सबका मूल मिथ्यात्व है, मिथ्यात्व के कारण होने वाले कषाय हैं ।
अपने आप ये कषाय नहीं जायेंगे । इसके लिए पूरी शक्ति से लड़ना ही पड़ेगा । आपके जैसी आत्मा की मिली हुई सीट ऐसे ये क्यों छोड़ेंगे ?
भगवान ने तो उनसे इतना युद्ध किया, इतना संघर्ष करके उन्हें निकाल दिया कि निराश होकर सभी कषाय चले गये । भागतेभागते वे कह गये कि कोई आपत्ति नहीं, आप नहीं रखेंगे तो हमें रखने वाले दूसरे अनेक हैं ।
(कहे कलापूर्णसूरि - ३ 0000000moooooooooom २३७)