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'यस्याऽभिधानं मुनयोऽपि सर्वे, गृह्णन्ति भिक्षा-भ्रमणस्य काले ।
मिष्टान्नपानाम्बरपूर्णकामाः, स गौतमो यच्छतु वाञ्छितं मे ॥' . ४. लक्ष्मी : केवलज्ञान रूपी उत्कृष्ट लक्ष्मी भगवान के पास है।
ज्ञान का आनन्द अद्भुत होता है। उसकी किसी दूसरे पदार्थ के साथ तुलना नहीं कर सकते ।। 'ज्ञानमग्नस्य यच्छर्म, तद्वक्तुं नैव पार्यते ।'
- ज्ञानसार आत्मा के एक-एक प्रदेश में अनन्त गुण हैं । एक एक गुण का आनन्द कितना ? जैसे प्रत्येक मिठाई का स्वाद अलग होता है वैसे प्रत्येक गुण का आनन्द भी अलग-अलग होता है। कौन जाने भगवान कितना ही आनन्द अनुभव करते होंगे ।
घेवर, अमृती, गुलाबजामुन, रसगुल्ला, पेठा, मलाई की पुड़ी आदि प्रत्येक का स्वाद अलग-अलग होता है न ? यै सब मीठे हैं, परन्तु अन्तर भी है। उस प्रकार भगवान के केवल ज्ञान, केवल दर्शन आदि का आनन्द अलग-अलग होता है, यह कभी सोचा
बाह्य पदार्थों से होने वाली तृप्ति नश्वर है । ऐसे गुणों से होने वाली तृप्ति ही अनश्वर है, ऐसा यशोविजयजी का कथन है।
प्रभु के गुण हम में चाहे पूरे प्रकट न हों, उनका क्षयोपशम हो थोड़े-बहुत प्रकट हों और जो आनन्द उत्पन्न हो वह भी ऐसा होता है कि शब्दों में कहा नहीं जा सकता ।
ज्ञान-ध्यान आदि में मग्न रहें, फिर जो आनन्द उत्पन्न होगा वह अवर्णनीय होगा । पंचसूत्रकार ने साधु का सुन्दर विशेषण दिया
_ 'झाणज्झयणसंगया ।' साधु ध्यान एवं अध्ययन में संगत होता है । ध्यान से थक जायें तो ज्ञान, ज्ञान से थक जायें तो ध्यान में मग्न रहें । जहां ये दोनों होंगे वहां चारित्र होगा ही। चारित्र अर्थात् स्थिरता । 'चारित्रं स्थिरतारूपम् ।'
- ज्ञानसार ३/८ ऐसी स्थिरता सिद्धों में भी होती है। कोई आगम में सिद्धों
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omooooooooooooom कहे कलापूर्णसूरि - ३)