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प्रभ की जो सम्पत्ति प्रकट है, हमारी वह तिरोहित है। प्रभु एवं हमारे बीच में इतना ही अन्तर हैं । 'आविरभाव थी सकल गुण माहरे, प्रच्छन्न भावथी जोय ।'
- पद्मविजयजी आत्म-सम्पत्ति को प्रकट करने के लिए प्रभु की शरण में जायें, चार का शरण स्वीकार करें । यह शरण स्वीकार करते ही प्रभु अपना हाथ पकड़ लेंगे और आत्म-सम्पत्ति प्रकट होगी ।
इन प्रभु ने तो कष्टों को सहन करके भी दुःखी जीवों को भव से पार उतारे हैं । प्रभु करुणा-सागर हैं । एक घोड़े को बचाने के लिए मुनिसुव्रत स्वामी ने एक रात्रि में ६० (योजन) ४८० मील पैठण से भरुच तक का विहार किया था । भगवान के साथ अन्य मुनि आदि भी होंगे न? परन्तु भगवान आदि इसमें कष्ट नहीं देखते थे।
हम शिष्य मिलते हों, प्रतिष्ठा या नाम मिलता हो तो विहार करते हैं । यहां तो शिष्य नहीं, परन्तु घोड़ा था । करुणा के अतिरिक्त अन्य कारण क्या था विहार का ?
* किसी भी नाम से, किसी भी रूप में, किसी भी अनुष्ठान से प्रभु को पकड़ लें । प्रभु आपका उद्धार करने के लिए तत्पर हैं । अपनी कठिनाई यह है कि किसी को समर्पित नहीं होते । देव-गुरु अथवा धर्म किसी को भी समर्पित नहीं होते । यह स्वतन्त्रता ही मोह की पराधीनता है, यह हम नहीं जानते । गुरु की परतन्त्रता से ही मोह की पराधीनता दूर होती है । पूज्य पंन्यास भद्रंकरविजयजी म. यह बारबार समझाते थे ।
* भगवान तो पहले से ही परोपकार-व्यसनी होते हैं - 'आकालमेते परार्थव्यसनिनः ।' परोपकार का व्यसन सहज रूप से हो वे ही तीर्थंकर बन सकते हैं ।
* एक दुकान में चार फोन हों, किसी भी नम्बर पर फोन लगायें तो दुकान के साथ सम्पर्क हो सकता है न ? यहां भी नाम आदि चार भगवान हैं । किसी भी एक को पकड़ें, भगवान पकड़ में आ जायेंगे ।
हाथी ने बिना गुरु की प्रेरणा के उस शशक (खरगोश) को बचाया और वह मेघकुमार बना । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 000000000000000 २३३)