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पूज्य मुनिश्री भाग्येशविजयजी : कल की ‘जे उपाय बहुविधनी रचना' तथा 'द्रव्य-गुण-पर्याय' की बात समझानी बाकी
पूज्यश्री : योग आदि की अन्य सभी जालों में ही मत उलझ जाना, परन्तु उनके अर्क तक पहुंचना ।।
आपने तो अल्प आयु में दीक्षा ग्रहण की थी। मैंने तो ३० वर्षों की आयु में दीक्षा अंगीकार की थी और मुझे 'रामः रामौ रामाः' का अध्ययन करना पडा । मन में अध्यात्म की तीव्र इच्छा होने पर भी यह सब अध्ययन किया, क्योंकि मैं जानता था कि पूर्वाचार्यों का पूर्ण परिचय भाषाकीय ज्ञान के बिना नहीं होगा ।
मैं कहना चाहता हूं कि जीवनभर न्याय, काव्य एवं कोश में उलझ मत जाना । ये सब साधन ग्रन्थ है, यह न भूलें ।
पूज्य जम्बूविजयजी महाराज को पूछ लें । वे न्याय में अत्यन्त गहराई में उतरे । उनके गुरु बार-बार कहते - 'घट-पट और गधे' में ही समय मत निकाल, साधना में आगे बढ़ । कागज पर क्या लिखता है ? कलेजे में लिख, चतुर्विध संघ के हृदय में तनिक उतार ।' उनकी वाणी से वे भक्ति-मार्ग में आगे बढ़े ।
माया अर्थात् प्रपंच नहीं, विस्तार । उस विस्तार के वन में उलझ मत जाना । शुद्ध द्रव्य-गुण पर्याय के ध्यान से प्रभु सामने से मोक्ष प्रदान करते हैं । यहां 'सपराणो' शब्द आया है । इसका अर्थ जानते हैं न ?
___ 'वीतराग स्तोत्र' में आता है - 'पराणयन्ति ।' इसका अर्थ विचारें ।
शुद्ध द्रव्य गुण पर्याय का ध्यान पक्षी का मार्ग है ।
हमारा मार्ग चींटी का है । (यद्यपि यह भी हो तो उत्तम बात है ।) चींटी के मार्ग में विघ्न अनेक हैं । मार्ग में अनेक खड्डे, टेकरियां आती हैं । किसी के पांवो के नीचे दब जाने की भी सम्भावना है । गगनमार्ग में ऐसी कोई सम्भावना नहीं है ।
पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. कहते थे : 'पंच परमेष्ठि में अरिहंत सिद्ध शुद्ध आत्म-द्रव्य हैं । इन्हें पकड़ लो तो शुद्ध आत्म-द्रव्य पकड़ में आ जायेंगे । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ womowwwwwwwwwwwww00 १६१)