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कोई आपको प्रमादी कहे तो क्या आपको अच्छा लगेगा ? अच्छा न लगे तो भी क्या होगा ? ज्ञानियों ने नाम दिया है ।
ज्ञानियों ने सब अच्छी तरह देख कर ही कहा है ।
अर्थात् यहां तक आने के पश्चात् भी प्रमाद की पूर्ण सम्भावना है । इसीलिए लिखा है - 'ज्ञानिनोऽपि प्रमादिनः ।' ज्ञानी होते हुए भी प्रमादी । ऐसे का विकल अनुष्ठान 'इच्छायोग' है ।
* दूसरों का सम्यक्त्व 'बोधि' कहलाता है । तीर्थंकरो का सम्यक्त्व 'वरबोधि' कहलाता है । क्या कारण है ? कदाचित् भगवान का क्षायोपशमिक हो तो भी 'वरबोधि' कहलाता है । दूसरों का क्षायिक हो तो भी 'बोधि' ही कहलाता है ।
इसका अर्थ यह हुआ कि तीर्थंकरों के सम्यग् दर्शन में कुछ विशेष होगा । समस्त जीवों में स्व का रूप देखते होंगे। दूसरों की पीड़ा को सूक्ष्म रूप से स्व में संवेद करते होंगे ।
* शास्त्रयोग वाले की श्रद्धा तीव्र होती है, प्रमाद तनिक भी नहीं होता । तीव्र श्रद्धा के कारण बोध भी तीव्र होता है, अतः उनका पालन सम्पूर्ण होता है ।
* संगमाचार्य वृद्धावस्था में स्थिरवास रहे थे । एक बार उनका दत्त नामक कोई प्रशिष्य आया । गोचरी नहीं मिलने के कारण परेशान देखकर आचार्य ने उसकी समाधि के लिए एक घर पर रोती हुई लड़की को चुटकी बजा कर शान्त की । अतः प्रसन्न हुए गृहस्थ से उसे गोचरी दिलवाई ।
शिष्य उलटी खोपड़ी का था । उसने सोचा, 'देखा ? इतनी देर तक मुझे भटका कर हैरान कर के अब गोचरी दिलवाई । स्वयं तो उत्तम गोचरी लेने के लिए स्थापित घरों में चले गये ।'
वह शिष्य सारा दिन दोष ही देखा करता था । ऐसे दोषी एकल-विहारी के साथ नहीं रहा जायेगा, यह मान कर वह अलग रहा ।
रात्रि में शासनदेवी के अंधेरा करने पर वह भयभीत हुआ और आचार्य भगवान को प्रार्थना करने लगा । तब आचार्य भगवन् के अंगुली ऊंची करने पर लब्धि से प्रकाश हो गया ।
तब उसने सोचा, 'अरे ! ये आचार्य तो अग्निकाय का भी (कहे कलापूर्णसूरि - ३00mmonanesamoooo १६५)