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ऐसे संघ की कदापि आशातना न करें । अवर्णवाद करोगे तो बोधि दुर्लभ बनना पड़ेगा ।।
संघ के एक सदस्य की पूजा सकल संघ की पूजा है । संघ के एक सदस्य की हीलना सकल संघ की हीलना है, इतना याद रखें । हृदय में संघ का बहुमान होगा तो जिन शासन की जय जयकार हो जायेगी ।
पूज्य विरागचन्द्रसागरजी :
संघ हमारे माता-पिता हैं । उसके समक्ष चाहे जैसा बोलेंगे तो भी चलेगा ।
जिनके बिना जैन शासन की कल्पना कठिन है, ऐसे उपाध्याय यशोविजयजी के योगविंशिका ग्रन्थ का वाक्य - _ 'विधिसम्पादकानां विधिव्यवस्थापकानां दर्शनमपि
प्रत्यूहव्यूहविनाशनमिति वयं वदामः ।' "विधि-कारकों एवं विधि के व्यवस्थापकों का दर्शन भी विघ्नों के व्यूह के विनाशक है, ऐसा हम कहते हैं ।'
टंकार की भाषा में उपाध्याय महाराज यह बात कर रहे हैं। संघ को हम कहेंगे -
_ 'धन्य क्षणे तव दुर्लभ दर्शन, मधुर वचन तव मंगल स्पर्शन ! रोम-रोम पुलकित अमीवर्षण,
जय जय अम हृदय निवसंत ।' आप यह न माने कि संघ के सदस्य प्रभावना के लिए दौड़ते हैं । बिना प्रभावना के मात्र दर्शन के लिए यहां प्रत्येक रविवार को दौड़े आते हैं, जो आप देखते हैं न ?
व्यक्ति अकेला होता है तब सामान्य होता है, परन्तु प्रभु ने आत्म ध्यान से शक्ति प्राप्त करके व्यक्तियों को एकत्रित करके जिसकी स्थापना की उसे हम संघ कहते हैं ।
मिलना ही सम्बन्ध है । Meeting is relationship | अनेक बार मिलना अर्थात् क्या ? यह समझे बिना ही हम अलग हो जाते हैं, बिखर जाते हैं ।
प्रभु ने सूत्र दिया - ‘एगे आया ।' (२५६ W0mmonomonamoonamon कहे कलापूर्णसूरि - ३)