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(३६) भेद वीर्याचार के हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि वीर्योल्लास के बिना एक भी आचार की आराधना नहीं हो सकती । पांचो आचारो के कुल ७२ भेद होंगे । __वीर्योल्लासपूर्वक क्रिया करने से ही ध्यान की अग्नि प्रकट होती है और उसके बाद ही 'ज्ञानी श्वासोच्छ्वासमां' यह बात लागू होती है।
न्याय-काव्य आदि ग्रन्थ पढ़ने से ही वीर्योल्लास बढ़ जायेगा, यह भ्रम है।
यहां तक आने के पश्चात् भी प्रमाद ? तो फिर घर क्या बुरा था ? क्यों प्रमाद नहीं हटाते हैं ? यह अपनी वेदना व्यक्त करता हूं।
मरुदेवी - भरत की तरह बैठे-बैठे ही केवल ज्ञान प्राप्त हो जायेगा, इस भ्रम में तो नहीं हैं न ?
मरुदेवी माता में सामर्थ्य योग आदि समस्त योग आ गये, परन्तु आये कहां से ? भगवान के पास से आये ।।
आज पाठ मिला - धनेश्वर सूरि-कृत 'शत्रुजय माहात्म्य' में लिखा है कि मरुदेवी ने जब समाचार सुना कि ऋषभदेव को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ है। यह सुनते ही शोक के आंसू हर्षाश्रुओं में बदल गये । पुत्र के वियोग में रो-रोकर आंखो की ज्योति चली गई थी।
उन्हें पता था कि मेरा पुत्र भगवान बनने वाला है। आपको मालूम हो और उन्हें मालूम नहीं होगा ? सर्व प्रथम चौदह स्वप्न आने के कारण उन्हें ही मालूम था ।
ऐसे भगवान तुल्य पुत्र के प्रति प्रेम क्या भगवान का प्रेम नहीं कहलाता ? वर्तमान माताओं के समान केवल पुत्र के लिए ही पुत्र नहीं था । यशोदा इत्यादि अजैन माताओं का प्रेम भी भगवान का प्रेम गिना जाता है ।
माता-पिता का प्रेम सर्वथा अप्रशस्त नहीं गिना जाता । भक्तिराग है । स्नेह-राग नहीं कहलायेगा ।
पू.आचार्य हेमचन्द्रसागरसूरिजी: क्यास्नेह- राग नहीं कहलाता? पूज्यश्री : नहीं, स्नेह-राग नहीं कहलाता ।
पुत्र को स्नेह-राग से देखने के लिए, तीर्थंकर माता की (२१६ 00swamsoom
w ww कहे कलापूर्णसूरि - ३)