Book Title: Bharat me Durbhiksha
Author(s): Ganeshdatta Sharma
Publisher: Gandhi Hindi Pustak Bhandar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir নস্ট মুর্দিস্থ a] " • তাহারুল হাদী। For Private And Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनु० नं० ৩ ০ পাহিনঈনুপিষ্ট For Private And Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org हिन्दी - गौरव ग्रंथमालाका २० वा ग्रंथ । भारत में दुर्भिक्ष Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लेखक, श्रीयुत् पं० गणेशदत्त शर्मा । भूमिका - लेखक, श्रीयुत् पं० राधाकृष्ण झा एम० ए० प्रोफेसर पटना - कालेज । -:--: प्रकाशक, गाँधी हिन्दी - पुस्तक भंडार, कालबादेवी - बम्बई | प्रथम संस्करण | www. मूल्य १ ॥ ) रु० कपड़े की जि० 31) ० For Private And Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकाशक, उदयलाल काशलीवाल, गाँधी हिन्दी-पुस्तक भंडार, कालपादेवी-बम्बई। मुद्रक,. अनंत आत्माराम मोरमकर, श्री लक्ष्मीनारायण प्रेस, ठाकुरद्वार रोड़-बम्बई । For Private And Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समर्पण । जिसने अपनी स्वाधीनताके समय अपने सुलभ साध्य घी, दूध, अन्न आदि द्वारा सारे संसारका पेट भरा और जो अब भी भर रहा है; परंतु दुर्दैव-वश आज वह इतना पराधीन--गुलाम बना हुआ है कि खुद अपनी रक्षा करनेका भी उसे अधिकार नहीं। यही कारण है कि आज जो दुर्भिक्ष रूपी अतिभीषण रोगसे मरणासन्न हो रहा है; दिन पर दिन दारिद्र रूपी पिशाच जिसे चूस कर जर्जर कर रहा है और जो स्वार्थी शासकोंके अमानुषिक अत्याचारों और अन्यायों द्वारा पादाक्रान्त हो रहा है उसी परम शान्त, गंभीर, तेजस्वी भारतको सुधा-तुल्य स्वराज्यौषधि द्वारा पुनर्जीवन प्रदान करनेके प्रयत्नमें निरंतर लगे रहनेवाले सच्चे धन्वन्तरि, प्रातःस्मरणीय, भारत माताके एक मात्र पुत्र महात्मा मोहनदास करमचंद गांधीकी. सवामें लेखककी ओरसे यह तुच्छ भेंट श्रद्धा-भक्ति पूर्वक समर्पित हुई। लेखक। For Private And Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भूमिका। हमारे देशकी आबहवा और प्राकृतिक बनावट, कुछ ऐसी है कि यहाँ कृषिकी प्रधानता रहेगी। यहाकी बड़ी बड़ी नदियाँ, यहाँका जाड़ा, गरमी और बरसात सब कृषिके पक्षमें ही हैं । यही अवस्था भविष्यमें भी रहेगी, इसमें कोई सन्देह नहीं । कृषि कार्यसे परोक्ष या अपरोक्ष रूपमें प्रति शत नब्बे भारतवासियोंका सम्बन्ध है । कृषिसे सम्बन्ध रखनेवालों तथा उस पर ही निर्भर करनेवालोंकी संख्या बढ़ती ही जाती है। इसका प्रमाण पिछले तीस वर्षोंकी मर्दुम शुमारियोंसे मिलता है। देशकी आबादी बढ़ती ही जाती है, साथ ही साथ खेती-बाड़ी भी बढ़ी है सही। पर खेती जितनी बढ़ी है उतनी काफी नहीं है । फिर भी जितनी जमीन आबाद होती है उसमें अखाद्य द्रव्यों (कपास, जूट इत्यादि) की खतीका परिमाण बढ़ता जाता है, कहीं कहीं धानकी जगह जूट बोया जाता है और कहीं धान या गेहूँ की बढ़िया जमीन छीन कर कपास या जूट बो दिया जाता है और धान गेहू के लिये खराब जमीन छोड़ दी जाती है। इस लिये खानेका अनाज काफी मिकदारमें नहीं उपजता, वह बढ़ती हुई अबादीके लिये यथेष्ट नहीं होता । तिस पर भी इस अपर्याप्त खाद्य द्रव्यमेंसे बहुत कुछ, देशके बाहर बिकनेको चला जाता है। बर्मासे जितना चावल हिन्दुस्थान आता है, उससे कहीं अधिक चावल, गेहूँ हिन्दुस्थानसे बाहर चला जाता है । इससे स्पष्ट है कि हिन्दुस्थानमें जितने अन्नकी जरूरत है उतना अन्न रहने नहीं पाता। For Private And Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्नकी मांग देश विदेश सब जगह है । विदेशमें तो अधिक है; क्योंकि योरपमें खेती-बाड़ीसे काफी अन्न पैदा नहीं होता। उन लोगोंको बाहरसे मँगाने की हमेशा जरूरत रहती है। परन्तु योरपके लोग उद्योग-धंदे जैसे दूसरे दूसरे उपायोंसे यथेष्ट धन कमा लेते हैं । उसी आमदनीसे महँगे भाव पर भी अनाज खरीद सकते हैं । पर वेचारा हिन्दुस्थानी ऐसा नहीं कर सकता; उसकी औसत भामदनी ४२) रुपये सालसे ज्यादा कूती नही जा सकी है। अब खुले बाजार. में कौन चावल और गेहूँ खरीदेगा ? ४२) वार्षिक आमदनीवाला या ३३०) रुपयोंको आमदनीवाला गरीबसे गरीब योरोपियन ? उत्तर स्पष्ट है । इसी लिये अनाज विदेश जाया करता है। सरकार इसे रोकती भी नहीं है । रेल-लाइनें इस तरह बनी है, उनके भाड़ेकी दर इस नीतिसे कायम की जाती है कि प्रत्येक किसानका चावल, गेहूँ योरपकी ओर ही ताकता रहता है ! यदि इस हालतमें देशके लोग अनाज न पावें और वह अनाज महँगे दर विदेशमें बिकनेको चला जाय तो आश्चर्य ही क्या ? अन्न कष्ट और दुर्भिक्ष तो स्वाभा. विक ही है। फिर करना क्या होगा ? कृषि हमारा प्रधान व्यवसाय है और रहेगा । पर उसमें जितने लोगों की आवश्यकता है, जितने लोगोंसे खेती-बाड़ीका काम मजेमें चल जायगा; ठीक उतने ही लोगोंको खेतीमें लगा रहना चाहिए, ज्यादाको कभी नहीं। यह सब कोई जानते हैं कि किसानोंके पास काफी जमीन नहीं है। यदि बापके पास बीस बीघे जमीन थी तो उसके मरने पर चारो लड़कोंने अलग होकर सिर्फ पाँच पाँच ही बीघे पाई । पर फिर भी उसी खेतीमें लगे रहे । दूसरा रोजगार नहीं किया, या किया भी तो थोड़े दिनके लिये, ऊपरी दिलसे । बापके समय मजे में दिन चैनसे कटते थे तो For Private And Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बेटेको रोटा-नमक पर ही सन्तोष करना पड़ता है । इसे अवश्य रोकना पड़ेगा। कानून बनाना पड़ेगा कि जिसमें कोई भी किसान पन्द्रह बीघे जमीनसे कम नहीं रख सकेगा। भाई-बन्धु जायदाद बॉटनेके समय इसे बॉट न सकेंगे। इसका नतीजा यह होगा कि वह किसान फिर अपना पूरा समय कृषि-कार्य में लगा सकेगा, इसकी आमदनीसे अपने परिवारको पाल सकेगा। खाद डाल कर, आ खोद कर, नये औजार लाकर खेतीकी तरक्की भी कर सकेगा। और बाकी आदमी जिन्हें खेतीकी जमीन नहीं मिलेगी, लाचार होकर, गावके बाहर शहरों में, मिलों, पुतलीघरोंमें जाकर काम करेंगे, अपनी और अपने परिवारकी आमदनी बढ़ावेंगे । घरकी आधी रोटीको लात मार कर, बाहरकी समूची रोटीके लिये जान लड़ावेंगे। इससे उद्योग-धन्दोंको भी सहायता पहुँचेगी, मालिकोंको मजदूरोंकी कमीके लिये रोना न पड़ेगा। पर हा, उन्हें मजदूरोंके रहने, खानपीने, स्वास्थ्य इत्यादिका यथोचित प्रबन्ध करना पड़ेगा और सरकारको भी शहरोंको मजदूरोंके रहने लायक बनाना पड़ेगा। इस तरह देशके लोगोंकी आमदनी बढ़ेगी, फिर क्या है, खुले बाजारमें हम हिन्दुस्थानी भी; उतना ही दाम देकर गेहूँ ले सकेंगे जितना कि योरोपियन देनेको तैय्यार हैं । फिर तब गेहूँको बाहर जानेकी जरूरत न पड़ेगी। हमें अन्न-कष्ट नहीं भोगना पड़ेगा । जरूरत होगी तो दूसरे देशोंसे भी अन्न मँगा लेंगे। सबसे अधिक जरूरत है आम. दनी बढ़ानेकी । कह। हमारी आमदनी ४२) रु० और कहा योरपमें गरीबसे गरीब देशकी ३३०) रु०? कैसी लाञ्छनाकी बात है। यही तो हमारी रोटीका सवाल है । इसको किस तरह हल करना होगा इसे श्रीमान् पंगणेशदत्तजी शर्माके लिखे भारतमें दुर्भिक्ष" For Private And Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir को पढ़ कर सीखिए। पंडितजीने इसमें देश-दशाका सच्चा चित्र दिखाया है, और बड़ी ही सफलतासे दिखाया है। समूची किताब प्रौढ विचारों और गवेषणा-पूर्ण सिद्धान्तोंसे भरी पड़ी है । प्रत्येक भारतवासीके हृदयंगम करने योग्य है । व्यर्थ अतिरंजित बातें न लिख कर पंडितजीने शुद्ध, सरल भाषामें सर्व सम्मतिसे स्थिर सिद्धातोंका वर्णन किया है। प्रत्येक युवकको इसका गुटका बनाना चाहिए। मैंने अब तक देशी भाषामें कोई ऐसी पुस्तक नहीं देखी है। इस स्तुत्य कार्यके लिये पंडितजीको हार्दिक बधाई है। तथा प्रार्थना है कि वे ऐसी पुस्तकें लिख कर हिन्दीका भाण्डार पूरा करते रहेंगे। पटना-कालिज, जनवरी १९२१ राधाकृष्ण झा। For Private And Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ग्रंथकारका निवेदन। " प्रहृष्टो मुदितो लोकस्तुष्टः पुष्टः सुधार्मिकः । निरामयो रोगश्च दुर्भिक्षभयवर्जितः॥ न चापि क्षुद्भयं तत्र न तस्करभयं तथा। नगराणि च राष्ट्राणि धनधान्ययुतानि च ॥" -महर्षि वाल्मीकि । अर्थात-सारी प्रजा प्रसन्न, मुदित, तष्ट, पृष्ट आधि-व्याधिसे रहित, धार्मिक और दुर्भिक्षके भयसे मुक्त हो गई। न किसीको भूखकी ही चिंता थी और न चोरोंहीका भय था। इस प्रकार समस्त नगर और राष्ट्र धनधान्यसे परिपूर्ण हो गये।" प्यारे देशभाइयो, कौन ऐसा मनुष्य है जो ऊपर लिखे अनुसार राज्यकी इच्छा न करता हो ? कौन ऐसा मनुष्य है जो ऐसे राज्यमें जाकर बसनेका इच्छुक न हो ? परन्तु यह तो मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्रजीके उसी राज्यकालका वर्णन है जिसे लोग रामराज्य कहते हैं । आज सभी बातें ठीक उसके विपरीत हैं। प्रजा दुखी, कृष, क्षीणकाय, अल्पायु, आधि-व्याधि युक्त, धर्मच्युत और दुर्भिक्षके भयसे भयभीत है । सबको सुबह उटनेसे लगा कर, रात्रिके सोने तक अपने पेटकी ज्वालाको शान्त करनेकी हाय हाय लगी रहती है, तो भी पूरी तरहसे भरपेट अन्न नहीं मिलता। हमारे नगर और राष्ट्र धनधान्यसे शून्य हो गये । हम दीनता और दासतामें फंसे हुए अपने जीवनको भार रूप समझे बैठे हैं । हम लोग " दो दिनकी जिन्दगी" और "क्षणभंगुर शरीर " कह कर हताश हो गये हैं । हमें वेद उपदेश देते हैं। " पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं शृणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतं अदीना स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात् ।" -यजुर्वेद अ० ३६।२४ For Private And Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थात्-मनुष्यको पुरुषार्थ--प्रयत्न--करते हुए अदीन वृत्तिसे सौ वर्षों तक जीनेकी इच्छा सदा अपने मनमें रखनी चाहिए। सौ वर्ष अथवा सो वर्षसे भी अधिक आयु तक अपनी सत्र शक्तियों को उन्नत रखनी चाहिए।" इस वेदमंत्रको प्रायः द्विज मात्र सन्ध्योपासनाके समय बोलते हैं। परन्तु उस पर विचार नहीं करते। अब सब शक्तिया उन्नत रखने के लिये हमें पुरुषार्थकी आवश्यकता है; और वह पुरुषार्थ बिना सख-सामग्रियों के प्राप्त होना असंभव है। यहाँ रात दिन घानीके बैलकी तरह काममें पिले रहने पर भी भरपेट अन्न मिलना भी कठिन हो रहा है । पौष्टिक पदार्थ घत, दुग्धादि जो शक्तिको सरक्षित रखने के लिये मूल पदार्थ हैं; लाज स्वर्गलोकके अपाण्य अमतसे भी अधिक दुर्लभ हो गये हैं। इन्ही चिंताओंमें निमग्न रहने तथा भरपेट भोजन न मिलने के कारण मस्तिष्क भी निर्बल हो गया है अर्थात देशव्यापी भयंकर दुर्भिक्षके कारण भारतवासियोंका बुरा हाल हो गया है। जब आजसे सौ वर्ष पहले की बातें सुनते हैं और वर्तमान काल पर दृष्टि डालते हैं तो चित्तको भारी चोट पहुँचती है। जब मैंने अपने स्वर्गीय श्रीपूज्यपिताजीकी सन १८९३ ई. की एक डायरीको देखा तो उसमें लिखे अनके भावको देख कर मुझे अत्यंत आश्चर्य हुआ। उस समय चौघीस सेर गेहूँ, दस सेर चावल, तीस सेर मग, दस सेर गुड़ और दो सेर घी एक रुपये का मिलता था। यह आजसे ठीक २७ वर्ष पहलेका भाव है, जब कि लेखकका जन्म भी नहीं हुआ था। जब मैं आजकलकी इस बढ़ती हुई महँगीकी तरफ दृष्टि डालता हूँ तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इस समय देशमें गेहूँकी दर औसतसे ५ सेर फी रुपया है। यह महँगी इन छ: वर्षों में ही इस प्रकार पराकाष्ठाको पहुँची है । इसका कारण यह है कि सन् १९१५ से सरकारको अधिक वक्रदृष्टि हमारे खाद्य पदार्थ पर हुई और गेहूँ विदेश भेजा जाने लगा । और जहाँ तक मुझे ध्यान है। लगभग ९७ लाख टन हमारे देशका खाद्य पदार्थ सन् १९१५ से १९१८ तक बाहर विदेशोंको भेजा गया है। भारत भले ही भूखों मरे उन्हें इसकी कोई चिंता नहीं; कोई कुछ कहनेवाला नहीं, क्योंकि: "परम स्वतन्त्र न सिर पर कोऊ।" For Private And Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यदि हमारे यहाँ इतना गेहूँ होता कि हमारे खाने के बाद भी बच रहता, तब तो कोई दुःखकी बात ही न थी। विदेश जानेका जरा भी दुःख नहीं होता। किन्तु दुःख इस बातका है कि करोड़ों भूखे भारतवासियोंके मुखका अन्न छिना कर विदेशको भर दिया! . सन् १९११ से सन् १९१८ तकके सात वर्षांका औसत निकालने पर मालूम होता है कि ५२.७ फी सैकड़ा युवा स्त्री-पुरुषोंको, या यों कहिए कि पन्द्रह करोड़ भारतवासियोंको आधे पेट भोजन मिला है । इसीको और भी साफ समझने के लिये हम यों कह सकते है कि ७ करोड हमारे भारतीय भाईबहन अनके बिना भूखों रहे । हाय, कितने शोककी बात है कि जब हम अपने घरमें आनन्दसे मिष्टान्न खाते हैं उस समय हमारे करोड़ों ही भारतीय एक एक दाने अन्नके लिये छटपटाते हैं ! कितने दुःखकी बात है कि कई करोड़ भारतवासी नर-नारी रात दिन एडीसे चोटी तक पसीना बहा कर भी इतना अन्न नहीं पा सकते जितना कि जेल. खानेके कैदीको भी मिल जाता है । इस आधे पेट रहने का यह फल हुआ कि भारतमें प्लेग, इन्फ्ल्यु एंजा आदि सर्वसंहारी अनेक रोगोंकी सष्टि हो गई। कोई भी भारतवासी रोगमुक्त, सुखी, धन-ऐश्वर्य-सम्पन्न दिखाई नहीं देता। यों तो सभी अपने अपने चोलेमें मस्त हैं; और सभी अपनेको सुखी और धनाढय मानते हैं। पर यह केवल अश्वत्थामाको बहलाने के लिये आटा घोल कर बनाए हुए कृत्रिम दुग्धके समान है । यदि इसकी सच्ची दशाका पता लग जावे, या अमेरिका जैसे किसी समृद्धशाली देशसे मुकाबिला किया जावे तो, हम निस्सन्देह उसे स्वर्ग और स्वर्गापम भारतको आज नके कहनेको सैय्यार हो जावेगे। बिना अनके लोग, भारतमें अनाथकी भाँति मरते चले जा रहे हैं। मानों भारतीय मनुष्योंका कोई मूल्य ही नहीं है। यहाँ प्रति सहस्र ३१२ मृत्युसंख्या है। शायद ही किसी अन्य देशकी इतनी बढ़ी चढ़ी मृत्य-संख्या होगी। हमारे जीवनको अवधि भी औसतसे २४.७ वर्षकी है । सारांश यह कि बिना अत्रके हम लोग सब प्रकारकी दुर्दशा भुगत रहे हैं । इन सब बातोंका मूल मैं दावे के साथ दुर्भिक्षको ही बताऊँगा । यदि अब भी हम लोगोंने आँखें For Private And Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नहीं खोली तो न जाने हमें आगे चल कर किस भयंकर समयका सामना करना पड़ेगा? हम यहाँ नीचे एक कोष्टक देते हैं जिससे आपको पता लगेगा कि यहाँ अन्नकी कितनी कमी है। - - - सन् देशमें अन्नकी । देशमें अन्न आवश्यकता पैदा हुआ देशमें अन्नकी कमी १९११-१२ १९१२-१३ १९१३-१४ १९१४-१५ ५६५.. ५१९. ४९६१ ७८.३ १०१० १४५'. १०४.३ ६४१.१ ६४९.१ ५८४.३ ६४.८ १९१६-१७ १९१७-१८ ६४९.१ ५७१३ -- (स्मरण रहे यह संख्या लाख टनकी है और १ टन लगभग २७ मनका होता है।) अब उक्र कमीकी पूर्तिक केवल दो ही उपाय हैं । (१) देशमें अनकी पैदावरी षढ़ाई जावे, (२) देशका अन्न बाहर नहीं जाने दिया जावे। पहला उपाय तो इस भूखे भारतके लिये कष्टसाध्य है; और ऐसी दशामें तो कष्टसाध्य क्या महान असाध्य है। क्योंकि यहाँके अनदाता कृष्णकोंकी बड़ी ही दुर्दशा है; वे अत्यंत दरिद्र हैं। अब केवल दुसरा उपाय रह जाता है। वही इस महान दुर्भिक्षके लिये अचूक इलाज है । यहाँकी कमीको देखते हुए यहाँका एक दाना भी विदेशको भेजना महान पाप है; और महान अन्याय है। ___ अब जरा नीचेका कोष्टक देखिए, इसमें यह दिखळाया गया है कि अमुक सन्में इतनी कमी होने पर भी इतना अन्न भूखे भारतका विदेशोंको भेज दिया गया। For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - सन् देशमें अन्नकी कमी । विदेशोंको भेजा गया २३.८ १९१५-१६ १९१६-१७ १९१७-१८ अर्थात् यहाँकी कमीका कुछ भी ध्यान न रख कर औरोंके पेट भरनेका ध्यान है ! इतना होने पर भी ता. ३१ मार्च सन् १९२१ ई. तक चार लाख टन गेहूँ भारतसे विदेशको भेजनेकी आज्ञा सरकारने निकाली है। कितने दुःखकी बात है कि सरकारको, भारतवर्षकी रक्षाकी कोई आवश्यकता नहीं ज्ञात होती ! इस वर्ष वर्षा न होनेसे देशमें अन्नकी बड़ी भारी मांग है; भयानक दुर्भिक्षके चिन्ह दृष्टि आ रहे हैं। इतने पर भी भूखे भारतके मुखका प्रास छीन कर अपने सगे भाई-बन्धुओंको हमारी मा-बाप सरकार (!) इतना ह्स ठूस कर खिलाना चाहती है कि उन्हें पदहज्मी मिटाने के लिये पाचककी गोली खाने तकको भी जगह न रह जावे ! इस प्रकारकी सरकारकी न्यायबुद्धिको देख कर कब तक धैर्य रखा जा सकता है। "भूखे भजन न होत गोपाला" वाली कहावत आज चरितार्थ हो रही है । भूखों रह कर किसी प्रकारकी भी भक्ति नहीं हो सकती। चाहे वह ईश्वरभक्ति हो, राज्यभक्ति हो या देशभक्ति । वर्तमान स्वराज्य आन्दोलनके अपराधी हम भारतवासी नहीं है। हमें आवश्यकताने ऐसा करने के लिये विवश किया है। स्वतंत्रता मनुष्यका जन्मसिद्ध अधिकार है । कोई मनुष्य भले ही कुछ समयके लिये किसीका गुलाम बना रहे; परंतु यह बिलकुल संभव नहीं कि वह सदा-सर्वदा उसकी गुलामी ही. करता रहे । और उसके अन्यायों तथा अत्याचारोंको ईश्वर कार्य समझकर सहता रहे और यूँ तक भी नहीं करे ! भारतमें, दुर्भिक्षके कारण हुई इन अधोगतियोंको समूल नष्ट करने के लिये एक मात्र उपाय स्वाधीनता है, और उसके प्राप्तिका मार्ग वर्तमान, राजनीतिक स्वराज्य आन्दोलन है । . यहा एक वेदमंत्र याद आता है,उसमें प्रजाकी तरफसे राजाको प्रार्थना है: For Private And Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "मा नो वधीरिन्द्र मा परा दा मा नः प्रिया भोजनानि प्रमोषीः। अण्डा मा नो मघवञ्छक निभेन्मामः पात्रा भेत्सह जानुषाणि।" -ऋग्वेद मं० १ ० १५० सू० १०४ मं०८। अर्थात्-हे प्रशंसित, धनयुक्त, समस्त कार्योंके लिये समर्थ, शत्रुओंका विनाश करनेवाले, सभापति राजन्, आप अपनी प्रजाको मत मारिए । अन्यायसे दण्ड मत दीजिए । स्वाभाविक कार्य और प्यारे भोजनके पदार्थोको मत छीनिए । हमारे अत्यन्त प्यारोंको न मारिए । हम लोगोंके सोने चादीके पात्रोंको मत विगाडिए । " इस बातका ध्यान निस्पृह राजा ही रख सकता है । और यदि उक्त वैदिक वाक्यका ध्यान रख कर राजा कार्य करता रहे तो किसी तरहका झगड़ा ही नहीं रह जाता । भारतवर्षके साथ बड़ा भारी अन्याय है, और वह यह कि हम लोगोंको अपने दुःख निवारण करनेका मौका ही नहीं दिया जाता । यदि कोई अपने दुःखोंको सुनाने जाता है तो उसे अराजक ठहरा कर जैसे बने तैसे दमन करनेका प्रयत्न किया जाता है। अपनी दाद फरियाद करनेवालों के लिये विषैले कानूनोंकी रचना की जाती है । परन्तु भारत अब भूखों मर रहा है। उसके जीवनमें भी अब संशय उत्पन्न हो गया है। वह दमननीतिके. सहारे अब कदापि नहीं दबाया जा सकता है । दमननीतिका नाम सुनते ही वह अब और भड़कने लगा है। क्योंकि:-- "बुभुक्षितः कि न करोति पापम्" भूखा जो न कर डाले सो ही थोड़ा है। भारत-सुदशा-प्रवर्तक वैद्योंने अब इस मृतप्राय, जर्जर-काय भारतको दुर्भिक्ष आदि व्याधियोंके पंजेसे छुटकारा दिलानेके लिये एक मात्र अंतिम औषधि " स्वराज्य" को बताया है । वेद भी"व्यचिष्टे बहुपाय्ये यतेमहि स्वराज्ये ।" --ऋ० ५।५६६ अर्थात-" हम विस्तृत और बहुतोंके द्वारा पालन होनेवाले स्वराज्यके लिये यत्न करें।" इत्यादि कह कर उस अमत-तुल्य औषधिको ही देशके लिये उपयुक्त होने की साक्षी दे रहे हैं। For Private And Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिस प्रकार अनकी कमी है, उसी तरह घृत, दुग्ध, वस्त्र आदिकी महई. ताने भी नाकों दम ला दिया है। लोगोंको दूध, घी, दुष्प्राप्य सा हो रहा है। इसका कारण एक मात्र, हमारे पशुधनका सब तरहसे संहार है । लाखों पशु नित्य कटते हैं, तथा जल और थलमार्ग द्वारा विदेशोंको भेजे जाते हैं । गोचरभूमि न छोड़नेसे तथा घास आदिकी महँगीके कारण पश निर्बल हो कर क्षीणायु हो रहे हैं । तथा उनकी नस्लें खराब हो रही हैं। इन सब पातोंका वर्णन आप विस्तृत रूपसे, इस पुस्तकमें पावेंगे ही। परन्तु एक बात यहाँ बतलाना उचित समझता हूँ। . इस वर्तमान योरोपीय महासमरकी क्षति पूर्तिके लिये “ क्षतिपूर्तिकमीशन" ने जर्मनीसे एक हजार साँड तथा ५ लाख गौएँ फ्रांसको; ११ हज़ार १५० पशु इटलीको; २ लाख दस हज़ार गौएँ बेल्जियमको, और ५ हजार सोड, ५२ हजार बैल तथा एक लाख गौएँ सर्वियाको दिलाना निश्चय किया है। हमें इससे कोई प्रयोजन नहीं है, जर्मनी दे या न दे। हमें तो यहाँ केवळ यही दिखाना है कि विदेशों में पशुधन कितना अमूल्य है जो क्षतिपूर्ति में मांगा जा रहा है। अर्थात् युद्धमें मरे हुए मनुष्योंके मूल्य के बदले में पशुधन लिया जा रहा है। वे लोग सब मिला कर ८ लाख ५९ हजार १५० उपयोगी पश अम्मनीसे लिया चाहते हैं। वे चाहे कितना ही लें, क्योंकि जर्मनीने उन्हें क्षति पहुँचाई है । परन्त हमारा एक प्रश्न है कि युद्ध में भारतने तो सहायता पहुँचाई है। उसने ११ लाख ६१ हजार ७८९ रंगरूट समुद्रपार भेजे हैं। जिनमेंसे १ लाख १ हजार ४३९ सैनिक घायल, कैद, पता और मृत्यु पा चुके हैं। मैं यहाँ युद्ध में दिये भारतीय धनको नहीं दिखाना चाहता, क्योकि यहाँ सवाल जीवोंका है। भारतने उन्हें शक्ति भर सहायता दी है। फिर भी उसके पशुओंका संहार बरी तरह क्यो किया जा रहा है ? और उस कमीशनने भारतकी इस महान क्षतिके लिये कितने पशु भारतमें भेजनेका प्रबन्ध किया है ? कुछ नहीं, एक मक्खी भी विदेशोंसे बहादुर भारतको नहीं दी जा सकती। मुख्य पात तो यह है कि हमारे हाथमें कुछ भी अधिकार नहीं है । नहीं तो हमें यह दुर्भिक्षका प्रलय-सूचक ताण्डवनृत्य क्यों देखना पड़ता ? For Private And Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८ इसके अतिरिक अनेक कारण भारतमें दुर्भिक्षके हैं। जिन्हें यदि चाहे तो भारत-सरकार एक दिनमें हटा सकती है। जैसे--मादक द्रव्योंका व्यापार लगानकी कठोरता, भिक्षुकोंकी भयंकर वृद्धि और विदेशोंका व्यापार, इत्यादि। .. (१) मादक द्रव्योंको महँगा करके उन्हें कान्टेक्ट पर चलाना उसके रोकनेका उपाय नहीं है, बल्कि अपना खजाना भरनेका एक उपाय है । इसको कतई रोक कर इसके लिये कड़ा कानून बनाना चाहिए । (२) लगानकी कठोरताको कम करना चाहिए । भारतके निर्धन कृषको पर केवल नाम मात्रका ही लगान होना चाहिए । जहाँ कहीं, जब कभी किसानोंके साथ झगड़ा हुआ या उन पर अन्याय किया, तो उसका मूल कारण लगानकी अधिकता ही पाया गया। जिसे वह दरिद्र कृषक देने में असमर्थ था। (३) भिक्षकों के लिये कोई कानन अवश्य बनना चाहिए । इस कामक देशकी म्युनिसिपल्टिया और टाउन कमेटियाँ मजे में कर सकती हैं । अर्थात् भिक्षुकोंको उक्त संस्थाएँ प्रमाणपत्र दें कि वे भिक्षाके योग्य हैं या नहीं । बिना प्रमाणपत्र प्राप्त किये मांगते हुए भिक्षुकोंको पकड़ कर दण्ड देना चाहिए । यद्यपि दान धर्मका एक अंग माना गया है तथापि ऐसे घर घरा भीख माँग कर खानेवाले मुफ्तखोर काहिलों के लिये ऐसा नियम बनाने में कुछ हर्ज नहीं। (४) विदेशी मालको भारतमें पचाने के लिये सरकार अपना बल प्रयोग न करे । भारतीय वस्तुओं पर अधिक टेक्स और विदेशी वस्तुओं पर नाम मात्रका टेक्स लगा कर अपने अन्यायका परिचय न दे । एक दूसरे देशका आपसमें व्यापारिक सम्बन्ध होना कुछ अनुचित नहीं है, परन्तु होना चाहिए समानता और न्याय । जितना पक्का माल भारतमें विदेशोंसे आता है उसके सामने देशसे कुछ भी पक्का माल विदेशोंको नहीं जाता । यदि जाता है तो कच्चा माल, वह भी अधिक नहीं । सन् १९१३-१४, में भातरमें आये विदेशी मालकी सूची आपके अवलोकनार्थ यहाँ लिख दी जाती है। For Private And Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - नाम वस्तु मूल्य रुपये मिठाई २६ ३३ ००० ४४ ८१ ००० १५८ ७७ ०.. २२ ३५ ००० ६९ ९८ ००० बिस्कुट कागज पतरे और प्लेट साबुन स्टेशनरी खिलौने हड्डी चमड़ा जमा हुआ दूध चूड़ियाँ शीशिया बोतल इ. चिमनिया छूट और जूते छत्री, छड़ी आदि कटलरी सामान १५३७ ००० ४१ ५२ ००० ८० ४५००० १७ ९४ ००० ७९ २६ ... ५३ १०००० २८ ३३ ००० कुल जोड़ जहाँ हमने लगभग साढ़े सात करोड़ रुपयोंका अस्थायी और भड़कीला विदेशी सामान खरीदा, उसमें एक बात हमें जरा ध्यान देनेकी है कि जमा हुआ दूध ४१ लाख ५२ हजार रुपयोंका देशमें विदेशोंसे आया । इससे दो बातें निष्पन्न होती हैं; (१) भारतमें दूधकी बड़ी भारी मांग है, जो यहाँ ने मिलने के कारण विदेशोंसे मँगा कर बल बढ़ाया जाता है, (२) यह कि विदेशी लोग अपने देशको वस्तुका इतना आदर करते हैं और ऐसे सच्चे स्वदेशभक हैं कि भारतवर्षका अमत-तुल्य ताजा दूध काममें न लाकर अपने देशका For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा जमाया हुआ वासी दूध ही सेवन करते हैं । हमें अँगरेजोंसे स्वदेशप्रेम सीखने का यह अच्छा प्रमाण है। सरकारको देशकी दुर्भिक्ष-प्रसित भयंकर दुर्दशा पर ध्यान देना चाहिए और उसे शीघ्र ही इसके सधार में प्रवत्त होकर सच्चे राजा होने का परिचय देना चाहिए । उसे अब भारतकी भलाई में बहुत सा द्रव्य खर्च करनेकी जरूरत है । जरा अपने स्वार्थ सिद्ध करनेके व्ययको कम कर देना चाहिए । जैसे रेल, एक सरकारी बड़ा भारी व्यापार है। इसमें असंख्य रुपये लग चुके हैं । इससे देशको दिखने में तो लाभ है, परन्तु वास्तव में हानि है। सरकारको इससे अत्यंत लाभ है । जरा संक्षिप्तमें इसका हाल भी सुन लीजिए-" सन् १५५३ ई० में यहाँ रेलें जारी हुई। अब ३५ हजार २८५ मील रेलका विस्तार है। इसमें ४६ अरब ५८ करोड ५९ लाख ३५००० रु. व्यय हुए और भारतसरकार प्रति वर्ष १२ करोड़ रुपया इसके विस्तार के लिये खर्च करती है। यह सिर्फ रेलपथका खर्चा है; रेलवे विभागका नहीं। यदि यही रुपया या इतना ही रुपया देशको उन्नतिमें प्रति वर्ष सरकार खर्च करे तो देशका परम कल्याण हो सकता है । रेलपथ नहीं सही, पहले इन रेलों में बैठ कर चलनेवाली दुर्भिक्ष पीड़ित भूखी भारत संतानकी जठर-ज्वालाको शान्त करे । अपनी प्रजाको पुत्रवत् पालन करना राजाका पहला धर्म है। यह सब बातें सोच कर यदि राजा भारतवासियोंकी सुध ले तो यह सब झगड़ा तमाम हो, किंतु नहीं कोई नहीं सुनता ! इस क्षुधात भारतका रक्षक वह एक परमात्मा ही है देशकी अत्यंत दुर्दशा है । दुर्भिक्ष इसके सामने मुहँ फाड़े खड़ा है। आप यदि स्वावलंबी होकर देशका उद्धार कर सकते हैं तो कर लीजिए, अन्यथा इस तरह तो असंभव मालूम होता है । प्रियपाठक, भारतमें दुर्भिक्षके कुछ मोटे मोटे कारणों को मैंने इस पुस्तकमें लिखनेका साहस किया है । यह मेरा साहस सचमुच दुस्साहस कहा जा सकता है। क्योंकि १९०० मील लम्बे और लगभग इतने ही चौड़े स्थान (भारत) मेंके दुर्भिक्षका कारण बता देना मुझ जैसे अल्लज्ञ पुरुषोंका कार्य नहीं है । तथापि अपने भावोंको दबोचे रखना भी मैंने उचित नहीं समझा और For Private And Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "अभावे शालिचूर्ण वा शर्करा च गुडस्तथा ।" के रूपमें आप लोगों के समक्ष मैंने उन्हें ला. रखा। यदि इस कार्यको कोई इसी क्षेत्रका धुरन्धर विद्वान अपने हाथमें लेकर इस विषय पर कोई उत्तम पुस्तक लिखता तो हिन्दी जगत्का बहुत कुछ उपकार हो सकता था । इस विषयके ज्ञाता यदि इसकी त्रुटियों तथा नये समावेश होने योग्य विषयोंका मझे सूचना देंगे तो इसके द्वितीय संस्करणमें यदि उचित समझा गया तोसुधार या वृद्धि कर दी जावेगी। इस विषय पर जहाँ तक मेरा अनुमान है भारतीय भाषाओं में कोई पुस्तक नहीं है । संभवतः यह पहली ही पुस्तक हिन्दी भाषामें है । इस विषयकी अँगरेजी भाषामें अनेक पुस्तके भरी पड़ी हैं । जितनी मैंने देखी हैं उनकी नामावली आगे दी है। यदि उन सत्र अँगरेजी पुस्तकों का मूल्य जोड़ा जावे तो २५२।०) होते हैं । कितने दुःखकी बात है कि हिन्दी साहित्यमें इस विषय पर पुस्तकें ही नहीं हैं। मुझे आशा है कि इस विषयके ज्ञाता हिन्दीमें इस आवश्यक विषय पर पुस्तकें लिख कर हिन्दीका गौरव बढ़ावेंगे। यद्यपि मैंने इस पुस्तकको सन् १९१५ से लिखना आरंभ किया था और बहुत ही सिरतोड़ मिहनतके साथ इसे चार वर्षों में लिख चुका, तथापि इसमें त्रुटियों का रह जाना संभव है । अत एव उनके लिये में अपने प्रेमी पाठकोंसे क्षमा माँगता हुआ, इसे आद्यन्त पढ़ कर मेरे परिश्रमको सफल करने की प्रार्थना करता हूँ। वन्दे मातरम् । इंद्रसदन, विनीत, आगर ( मालवा). पौष कृष्ण ८ शनिवार । गणेशदत्त शर्मा। १९७७ वि. For Private And Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बंबई सहायक पत्रों तथा पुस्तकोंकी नामावली। . भारतमित्र २ वेंकटेश्वरसमाचार ३ प्रेम ... वृन्दावन ४ भारतबन्धु हाथरस ५ हिन्दीसमाचार ... दिल्ली ६ केसरी (हिन्दी)... काशी ७ प्रताप ... कानपुर ८ वंगवासी (हिन्दी)... कलकत्ता ९ आर्यमित्र आगरा १. अवधवासी लखनऊ. ११ उत्साह ... उरई १२ पाटलिपुत्र पटना १३ कर्मवीर जबलपुर १४ अभ्युदय प्रयाग १५ जयाजीप्रताप लश्कर १६ श्रीशारदा जबलपुर १७ मर्यादा १८ सरस्वती ... . प्रयाग पुस्तकें। १ फीजी में मेरे इक्कीस वर्ष-ले. पं० तोतारामजी सनाढय । २ प्रवासी भारतवासी--ले. एक भारतीय हृदय । ३ देशदर्शन---ठाकुर शिवनन्दनसिंह । ४ स्वदेश--ले. महाकवि रवीन्द्रनाथ टागोर । ५ भारतभारती--ले. कविवर मैथिलीशरण गुप्त । ६ कपासकी खेती--ले० बाधू रामप्रसादजी सबजज । ७ देशकी बात। ... प्रयाग For Private And Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४ ENGLISH BOOKS. 1 Tee Indian year book 1918-19. 2 Economy in India 3 an Essay on the Economic cause of Famine in India 4 The Famine in Bengal :1874 ? The Famine in Bengal & Orissa 1867 6 The threatened famine in Western & Southern India 1877 7 Report of the India famine Commission 1880—SI 8 The Famine & the Relief Operations in India 9 Indian Famine Commission 1898 19 Minutes of Evidence II Report on the Indian Famine Commission 1901 12 Papers Regarding the Famine & the Relief Operations in India during 1899–1900 » During 1900-01 14 In Famjne land 15 Iudian Famines 16 Report on the Famine in the Bombay Presidency 1911-12 17 Famine Relief code Bombay Presidency 18 Burmah Famine Code 1906 19 C. P, Famine Code 1905 13 For Private And Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 20 Famine Code Madras Presidency 1914 21 The PanjabFamine Gode 1906 22 The Revised Code U P1912 23 The Imopending Bengal Famine 24 The Memorandum of the Famine Commission 187 कृतज्ञता। में अपने इन उदार और कृपालु महानुभावोंके प्रति शुद्ध हृदयसे कृतज्ञता प्रकट करता हूँ जिन्होंने मुझे इस पुस्तक लिखने में सहायता पहुँचाई तथा मेरे उत्साहको बढ़ाया। (१) स्वर्गीय श्री. बापू महावीरप्रसादजी विद्यार्थी ( विभूतिकवि) असरगंज जि० मुंगेर। (२) श्रीयुक्त बाबू रामचन्द्रजी वर्मा--संपादक “ नागरीकोष " नागरो प्रचारिणी सभा काशी। (३) श्रीयुक्त पं० राधाकृष्णजी झा, एम० ए०, सीनियर प्रोफेसर पटना कॉलेज, महेन्द्रू, पटना । For Private And Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विषयानुक्रमणिका। .... . . .... . . . विषय। विषय-प्रवेश व्यापार कृषि लगान दरिद्रता वेश्यसमाज उद्योगधंदे आर्थिक दशा पशुधन स्वदेशी वस्तु तथा पहनावा तमाखू विदेशी शक्कर मोरीशस टापू .... . . . .... .... १२८ १३९ .... १५५ भिक्षुक कुछ और भी दुर्भिक्ष For Private And Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष विषय-प्रवेश। "एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन्पृथिव्यां सर्वमानवाः ॥" मनु । से पाठकों के समक्ष सतयुगके समयका वर्णन उपस्थित कर, म उन्हें आश्चर्य-सागरमें गोते खाते देखना नहीं चाहता। वह समय तो हमारे गौरवका था। उस समय भारत कल्पवृक्ष था। तत्कालीन भारतीयोंको जिस वस्तु की आवश्यकता होती थी, वह उन्हें अनायास ही, बिना परिश्रम प्राप्त हो जाया करती थी । उन दिनों हमारा भारत स्वर्गसे भी अधिक, सुखद, शान्ति-पूर्ण और रम्य था। यही कारण था कि उस समय स्वर्गस्थ देवता गण मानव-शरीर धारण कर, स्वर्गसे भी श्रेष्ठ, भारतमें आकर निवास करते थे। उस समय वह परब्रह्म परमात्मा भी बार बार इस भारत भूमि पर अवतार ग्रहण कर, इसकी उत्कृष्टता अपने वैकुण्ठसे भी अधिक सिद्ध करता था । यद्यपि उन दिनों, आजकलकी भाँति भारत दुःखागार नहीं था, यहाँ पापाचरण नहीं होते थे, हमारी यह दुर्दशा नहीं थी, धर्म पर इस प्रकार कुठाराघात नहीं हो रहा था, गौ-ब्राह्मणोंकी यह दुर्गति नहीं थी; तथापि परमात्माने कई बार For Private And Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष। जल्दी जल्दी अवतार लेकर भारतको भूमण्डलमें सर्वोच्च सिद्ध कर दिया था । अन्न, धन और वस्त्रकी इतनी बहुलता थी कि मुफ्तमें मिलने पर भी कोई छूता तक नहीं था । यदि यह कहा जाय कि उन दिनों भारतमें घी-दूधकी नदियाँ बहती थीं, तो अनुचित न होगा । भारतसे कोई वस्तु विदेश नहीं जाती थी, भारतका धन-धान्य भारतमें ही रहता था। सतयुगके बाद त्रेता, द्वापर और बादमें कलियुगका नम्बर आया । कलियुगके चार हजार वर्षों का वर्णन भी लिखें तो सतयुगादिसे कुछ भी कम न होगा। कारण हम ही अपने देशके शासक थे, हमें अपने भले बुरेका ज्ञान था, हम जो कुछ करते थे बहुत विचार-पूर्वक और देश-हित तथा आत्महितको दृष्टिसे करते थे। हमें अपनी दशाका अच्छा ज्ञान था और स्वराज्यभोगी होनेके कारण हम सुखी थे, हमें किसी बातकी तकलीफ नहीं थी। इस समय अर्थात् महाभारत युद्धके पश्चात् अन्य देशोंमें भारतीय लोग जा बसे थे । किंतु ये वे लोग थे, जिनकी भारत जैसे धार्मिक देश में गुज़र नहीं हो सकती थी। क्योंकि ये असभ्य, मांस-भोजी, निर्दय, मुर्ख और अधर्मी थे; हमारे भारतीय भील-कोलोंसे बहुत मिलते-जुलते थे। उन्हें वस्त्रोंकी आवश्यकता नहीं थी। वे नंगे बदन रहते और केवल एक लंगोटी लगाये रहते थे । अन्नकी उन्हें आवइसकता नहीं पड़ती थी, क्योंकि मारे हुए जीवोंका मांस ही उनका भोजन था । वे लोग यथासमय भारतीय नौकाओं तथा जहाजों द्वारा अन्य देशोंको गये तब वहाँके निवासियोंके साथ मिल कर उन्होंने अपनेको सभ्य बनाना आरंभ किया, अर्थात् सन्यताका पाठ उन्होंने भारतीयोंसे ही सीखा । हमारे पुराणोंते यह सिद्ध है For Private And Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विषय-प्रवेश | 6 टाड राज कि भारतवर्ष के ब्रह्मावर्त प्रदेश में ही ब्रह्माजीने सृष्टि रचनाका आरंभ किया था । इंजील तथा कुरानसे भी आदम और हौभाका अदनकी बाटिका से निकल कर भारत में आना प्रकट होता है । उसका प्रमाण अनेक आधुनिक विद्वानोंके लेखोंसे भी मिलता है स्थान' में एक जगह लिखा है कि " आर्यावर्त के अतिरिक्त और किसी देश में सृष्टिके आरंभका प्रमाण नहीं पाया जाता । अत एव आदि सृष्टि यहीं हुई, इसमें कोई सन्देह नहीं है । " इसके अतिरिक्त ' History of the world " ( हिस्ट्री आवदी वर्ल्ड ) में सर वाल्टर रेले नामक अँगरेज विद्वान्ने लिखा है कि (( जल - प्रलयके अनन्तर भारत में ही वृक्ष लता आदिकी सृष्टि और मनुष्योंकी बस्ती हुई थी । " ब्राउन साहबने २० फरवरी १८८४ ई० के " डेली ट्रिब्यून " नामक पत्रमें स्वीकार किया है कि-" यदि हम पक्षपात रहित होकर भली भाँति परीक्षा करें तो हमको स्वीकार करना पड़ेगा कि भारत ही सारे संसार के साहित्य, धर्म और सभ्यताका जन्मदाता हैं । " Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमै दुर्भिक्ष । अत्यन्त बुद्धिमान्, विद्वान् और कला-कुशल थे। उन्होंने वहाँ पर विद्या और वैद्यकका प्रचार किया । वहाँके निवासियोंको सभ्य और अपना विश्वास-पात्र बनाया । ग्रंथकार एरियन और यूनानका इतिहास बताता है कि-" जो लोग पूर्व दिशासे यहाँ यूनानमें आकर बसे थे, वे देवताओंके वंशज थे। उनके पास अपना निजका सोना, बहुत अधिकतासे था। वे रेशमी कामदार दुशाले ओढ़ते थे, हाथीदातकी वस्तुएँ प्रयोगमें लाते थे और बहुमूल्य रत्नोंके हार पहन ते थे।" महाभारत ग्रंथसे भी यह प्रकट है कि कुरुक्षेत्रके महा प्रलयकारी संग्रामके पश्चात् भारतीयोंके कितने ही कुल पश्चिमकी ओर. गये और यूनान, फेनीशिया, फिलस्तीन, कार्थेज, रूम और मिश्र आदि देशोंमें जा बसे । रूसके नोटविच नामक यात्रीको तिब्बतके 'हीमिस' नामक मठमें ईसाका एक प्राचीन हस्त-लिखित जीवनचरित्र मिला है। वह पाली भाषामें है और उसकी दो बड़ी जिल्दें हैं। उसमें लिखा है कि-"ईसा इसराइल में पैदा हुआ था और उसके माता-पिता गरीब थे। १३, १४ वर्षकी उम्रमें वह अपने माबापसे रूठ कर घरसे भाग निकला और भारतमें आया । यहाँ वह राजगृह, काशी और जगन्नाथपुरी आदि स्थानोंमें घूमता रहा और आय्याँसे वेदाध्ययन करता रहा । इसके बाद उसने पाली भाषा सीखी और बौद्ध हो गया। पर उसने अपने देशको लौट कर वहाँ नया ही धर्म चलाना चाहा । इसी झगड़े में उसे फाँसीकी सजा हो गई।" इससे ज्ञात होता है कि ईसाई धर्म भी अन्य मतोंकी भांति भारतवर्षकी ही सामग्री है। Theogony of the Hindus: (हिन्दूके देवताओंकी वंशावली ) नामक पुस्तकके लेखक Count forns Jerna (काउन्ट जॉर्स जेर्ना ) लिखते हैं कि-" भारत केवल हिन्दूधर्मकां ही घर नहीं है, बरन् वह संसारकी सभ्यताका For Private And Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विषय-प्रवेश। आदि भण्डार है । भारतीयोंकी सभ्यता क्रमशः पश्चिमकी ओर ईथो. पिया, ईजिप्त और फेनीशिया तक; पूर्वमें श्याम, चीन और जापान तक; दक्षिणमें लङ्का, जावा और सुमात्रा तक और उत्तरकी ओर फारस, चाल्डिया और वहाँसे यूनान और रोम हियरवोरियन्सके रहने के स्थान तक पहुँची।" __ अब धीरे धीरे पश्चिमी विद्वान् इस बातको मानने लगे हैं कि प्राचीन भारत खूब उन्नत दशामें था और इसीने युरोपमें तरह तरहकी विद्या, कला और बहुतसी अन्यान्य वस्तुओंका प्रचार किया था। देखिए डेलमार साहब " इन्डियन रिव्यू " नामक पत्रमें लिखते हैं" पश्चिमी संसारको जिन बातों पर अभिमान है वे असलमें भारत वर्षसे ही वहाँ गई थीं । तरह तरहके फल, फूल, पेड़ और पौधे जो इस समय यूरोपमें पैदा होते हैं, सब हिन्दुस्थानसे ही वहाँ पहुँचे हैं। इसके सिवा, मलमल, रेशम, घोडे, टीन, लोहा और शीशेका प्रचार भी यूरोपमें भारतबर्षहीक द्वारा हुआ था । केवल यही नहीं किन्तु ज्योतिष, वैद्यक, चित्रकारी और कानून भी भारतने ही यूरोपवालोंको सिखाया था।" एक बार अध्यापक मैक्समूलरने अपने व्याख्यानमें कहा था कि-" यदि कोई मुझसे पूछे कि वह देश कौन और कहाँ है, जहाँ पर मनुष्योंने इतनी मानसिक उन्नति की हो कि वह उत्त'मोत्तम गुणोंकी वृद्धि कर सका हो और जहाँ मानव-जीवन-सम्बन्धी बड़ी बड़ी गृढ बातों पर विचार किया गया हो और जहाँ उनके हल करनेवाले पैदा हुए हों ? तो मैं यही उत्तर दूंगा कि “ वह देश भारतवर्ष है ।" विस्तार-भयसे हम यह। पश्चिमी विद्वानोंकी अधिक सम्मतियोंका उल्लेख नहीं कर सकते । पाठक मण स्वयं ही उनका अनुमान कर लें। For Private And Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुभिक्ष। anAAAJ सारांश यह कि समस्त भूमण्डलका गुरु भारत है। " हैं।' और 'ना' भी अन्य जन करना न जब थे जानते। थे ईशके आदेश तब हम बेदमंत्र बखानते । जब थे दिगम्बर रूपमें वे जंगलोंमें घूमते । प्रासाद-केतन-पट हमारे चन्द्रको थे चूमते ।" -भारत भारती। जब अन्य देशोमें भारतीय-विद्यार्थी ईसा और हजरत मोहम्मद साहब सभ्यताका शंख फूक रहे थे उस समय तो हमारे भारतका उन्नति-भास्कर अस्ताचलके निकट पहुँच चुका था--उन्नति-गिरिशिखरसे हमारे देशका पैर फिसल चुका था, वह अधोमुखी हो पर्वतसे नीचे लुढकता हुआ आ रहा था। उस समय उसे सँभालनेवाला तथा अनिरुद्ध पतनसे बचानेवाला कोई नहीं था । हाँ, अपने गुरुको गिरते देख कर ताली बजा कर हँसनेवाले शिष्य, लुढ़कते हुएको और ढकेलनेवाले स्वार्थी यवनोंका पदार्पण भारतमें हो चुका था। यदि तत्कालीन, भारतकी साम्पत्तिक दशा, अन्न-धन आदिका भी वर्णन आप लोगोंके आगे रखा जाये तो संभवतः आप उसे असंभव कह देंगे और उस पर बड़ी कठिनतासे विश्वास करेंगे । मैं यवन-कालके आरंभका वर्णन न करके आजसे केवल तीनसौ वर्ष पूर्व अर्थात अकबरके समयका अन्नभाव आपके सम्मुख रखता हूँ:-- गेहूँ ४ आने ९ पाई प्रतिमन दालमँग० ७ आ० २पा० प्रतिमन्न जो ३ , २ , शक्क र १)रु ६,, ,, , बाजरा ३, ५, , घृत २),,१० " ०" " दालमोठ४ ,, ९ " " तेल ° ,,१० ,, ,, चावल ८, , , प्याज °,, २, ५, u For Private And Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विषय-प्रवेश। NARA उन दिनों एक महीने भर खुब आनन्दसे भरपट भोजन करने में प्रति मनुष्य, दस आने, छः पाई खर्च पड़ता था, जिसका लेखा इस प्रकार है एक महीनेका भोजन । अकबरका समय वर्तमान समय १९१८ : गेहूँ २० सेर मूल्य )४॥ दालमग ४ ,, , ८॥ चावल ५,, , -) शक्क र ४ ,. , )२।। २) घृत ४ ,, ,, २॥ योग ॥६॥ __ योग १८) यह खर्च एक अच्छे खानेपीनेवाले मनुष्यका है । निर्धन और कम आयवाले मनुष्यका गुजर पाच आने नौ पाईमें बखूबी होता था। वर्तमान समयमें बहुत किफायत करने पर भी एक आदमीका मासिक भोजन-व्यय सात या आठ रुपयेसे किसी प्रकार कम नहीं हो सकता । यही कारण था कि अकबरके सैनिकोंका मासिक वेतन तीन या चार रुपये होता था, और उसीमें वे आनंद-पूर्वक बेखटके अपना तथा अपने परिवारका पालन करते थे। कहते हैं-" लखनऊ नगरका प्रसिद्ध इमाम-बाड़ा उस समय बना है जब कि भारतमें बड़ा भारी दुर्मिक्ष था। उस समय गेहूँ एक रुपयेके २४ सेर थे!! __भारतकी प्राचीन सभ्यताके विषयमें मि० एम० लुई जेको लियर साहब लिखते है: For Private And Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष । "Soil of anciant India, Cradle of humanity hail, hail, venerable and officient nurse whom centuries of brutal invosions have not yet buried under the dust of obilivion. Hail father land of faith, of love, of Poetry, and Science, way we hail a rivival of thy post in our western future.” अर्थात्- हे प्राचीन भारतभूमि, हे मनुष्य-जातिकी पालक, हे पूजनीय एवं निष्णात पोषिका, धन्य ! धन्य !! तुम्हें शताब्दियोंके पाशविक आक्रमण आज तक नष्ट न कर सके ! स्वागत, हे श्रद्धाप्रेम, कविता, विज्ञानके पितृलोक, स्वागत !! हम लोग अपने पाश्चात्य देशोंमें तुम्हारे भूतकालका पुनरुत्थान करें।" ___“ India, the mine of wealth ! India in poverty! Indias starving amid heaps of gold does not afford a greater paradox; yet here ; we have India. Indias-like starving in the midst of untold wealth !!" --Moles Worth. उक्त वाक्य प्रसिद्ध मोल्सवर्थका है। उक्त कथनका सारांश यह है कि भारतभूमि धनकी खान है। इसमें उत्तम कोयला, उम्दा मिट्टीकातेल और उत्तम लोहा एवं लकड़ी है जिसे देख कर विदेशी लोगोंके मुंहमें पानी भर आता है । सोना, चाँदी, तांबा, टीन तथा अन्य अनेक रत्नोंकी भी यहाँ कमी नहीं, तिस पर भी भारत भूखों मरे । मिस्टर टी० एच० हालेण्डने टीक कहा है कि-" भारत खनिज कामों में लाभकारी एवं उद्योगका अपरिमित स्थान है। प्रकृतिने इस देशको सब कुछ दिया है । ये पदार्थ केवल भारतके लिये ही पर्याप्त For Private And Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विषय-प्रवेश । नहीं हैं, बल्कि संसार भरके बाजारोंमें सुविधा और लाभके साथ बेचे जा सकते हैं। पर जब तक हम ऐसे उच्च भावके नवयुवक-रत्न उत्पन्न न करें जो वकालत और नौकरी-पेशेकी तरह इसमें भी तन्मय हों तब तक भारतका असीम धन गुप्त ही रहेगा।" __ एक जगह मि० बाल लिखते हैं कि-" यदि भारतवर्ष संसारके अन्य देशोंसे अलग कर दिया जाये या इसके उपजकी रक्षा का जाये तो यह निश्चित बात है कि एक सुशिक्षित सभ्य जातिकी सारी आवश्यकताओंको भारत अपनी ही उपजसे पूरा कर सकता है।" For Private And Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष। व्यापार कक समय वह भी था, जब कि रोम, यूनान, चीन, जापान, मिश्र, ईरान आदि देशोमें यहाँका माल जा कर आदर पाता था। इतिहाससे पता लगता है कि " आजसे एक हजार वर्ष पूर्व इस देशका मिश्रके साथ वाणिज्य-सम्बन्ध था। इसी भैाति प्रायः पाच हजार वर्ष पहले इस देशका बेबिलोनियाके साथ भी वाणिज्यसम्बन्ध था "। ( इतिहास भारतवर्ष देखिए)। निबन्ध-संग्रहके पृष्ट ७०में लिखा है किः-" प्राचीन समयमें इस देशका व्यापार बहुत अच्छी दशामें था। यूरोपके कवियों, लेखकों और प्रवासियोंने इस देशकी कारीगरी, कला-कुशलता तथा वैभवकी खूब प्रशंसा की है। उस समय इस देशकी बनी वस्तुएँ दुनियाके सब भागोंमें भेजी जाती थी; और वह अन्य देशोंकी वस्तुओंसे अधिक पसन्द की जाती थीं। अकेले बंगाल प्रांतसे १५ करोड़ रुपयोंका महीन कपड़ा प्रति वर्ष विदेशोंको भेजा जाता था ! पटनेमें ३३०४२६, शाहाबादमें १५९. ५०० और गोरखपुरमें १८५६०० स्त्रिया चरखों पर सूत कात कर ३५ लाख रुपये कमा लेती थीं। इसी प्रकार दीनाजपुरकी स्त्रियाँ ९ लाख और पुर्निया जिलेकी स्त्रियाँ १० लाख रुपयोंका सूत कातती थीं । सन् १७५७ ई० में जब लार्ड क्लाइब मुर्शिदाबाद गये थे, तब उसके सम्बन्धमें उन्होंने कहा था कि-" यह शहर लन्दनके समान विस्तृत, आबाद और धनी है; इस शहरके लोग लन्दनसे भी अधिक धनवान हैं । " श्रीयुत आर० सी० दत्तने लिखा है-" प्राचीन For Private And Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्यापार । ११. समयमै यहाँकी शिल्पकारीकी वस्तुएँ संसारमें सर्वत्र बिकती थीं । उनकी कारीगरी की बगदाद के हारूँ रशीद के दरबार में कदर होती थी और उन्होंने प्रतापी शार्लमेंन और उसके दरबारियोंको आश्चर्यचकित किया था । एक अँगरेजी कवि लिखता है कि वे लोग अपनी आँखें फाड़ फाड़ कर बड़े आश्चर्य से रेशमी तथा कारचोबीके उन वस्त्रों तथा रत्नोंको देखते थे जो कि पूरबके दूर देशसे यूरोपके नवीन बाजारों में आते थे । " भारतीय कारीगरीकी प्रशंसा में वेन्स साहबने लिखा है :- " ढाकेका बना हुआ कपड़ा, देखने पर मालूम होता है कि मानो उसे देवता ओंने बनाया है । उसे देख कर यह नहीं मालूम होता कि वह मनुश्योंका बनाया हुआ है । " देशी वस्त्रोंकी सूक्ष्मताका वर्णन करते हुए " शिशुपालवध " काव्य में महाकवि माघने एक जगह लिखा है " छिन्नेष्वपि स्पष्टतरेषु यत्र स्वच्छानि नारीकुचमंडलेषु आकाशसाम्यं दधुरम्बराणि न नामतः केवलमर्थतोपि । " ढाकेकी मलमलका १० गज लम्बा, १ हाथ चौड़ा थान तौलने पर सिर्फ तोले ४ माशे बजनका निकला । वह थान घड़ी करक अँगूठी के छिद्र में से भली प्रकार आरपार हो जाता था । एक कारी - गरने अकबर बादशाहको मलमलका एक थान एक छोटीसी बाँसकी नली में रख कर नजर किया था । वह थान इतना बड़ा था कि उससे अम्बारी सहित सारा हाथी ढाँका जा सकता था । पहले दिल्लीदरबार में ढाकेसे सूत भेजा गया था; उस १५० हाथ लम्बे सूतका वजन केवल १ रत्ती था । ढाकेके रेजिडेण्ट साहबने १८४६ ई० में एक किताब लिखी थी । उसमें आव सेर रुईसे बने हुए २५० मील For Private And Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष । लम्बे सूतका जिक्र है। ढाकेकी बनी मलमलका एक वस्त्र बनवा कर औरंगजेबकी पुत्रीने पहना था। तब उस समय औरंगजेब उस पर नाराज हुआ था । कारण यह था कि उसके सारे अंग दिखाई देते थे । बापको नाराज होते देख कर लड़कीने कहा-"कई तह करके तो मैंने इसे पहना है; इस पर भी यदि इसका बारीकपन दूर न हो तो मेरा क्या कुसूर है ?" भारतकी कारीगरीकी हद हो गई । भला ऐसे ऐसे सुर-दुर्लभ वस्त्र आदि विदेशोंमें क्यों आदर न पावें ! उस समय भारतवर्ष लक्ष्मीका कीड़ा-स्थल था । स्वप्नमें भी भारतने दुर्भिक्षके दर्शन नहीं किये थे । पर विदेशी हाथोंमें पड़ कर भारतने अपनी स्वतंत्रताके साथ ही व्यापारको भी जलाञ्जलि देदी । यवनोंने इसे खूब कुचला । भुखमरे को जैसे अन्न मिलता हो उसी भाति यवनोंको भारत मिल गया था। बाप-दादोंने जैसे रत्नोंके स्वप्नमें भी दर्शन नहीं किये थे, वैसे बहुमूल्य रत्न वे भारतसे छीन छीन कर अपने देशमें ले गये । भारतको उन्होंने खूब ही लूटा, खूब ही मारा, कुछ कसर न रखी। इसी बीचमें अँगरेज व्यापारियोंकी दृष्टि इस मृतप्राय भारत पर पड़ी। उन्होंने इस कामधेनुको दुहना आरंभ किया--बस क्या था, भारतीय व्यापारकी जड़में ही कीड़ा लग गया । वह निरुपाय हो बैठ रहा। कला-कौशलके साथ-ही-साथ लक्ष्मी भी रहती है। जब उनका अभाव हुआ तब विष्णुप्रिया लक्ष्मी भी भारतसे भाग कर यरोपमें पहुँच गई । भारतका व्यापार नष्ट हो गया, देश अपना कला-कौशल और सम्पत्तिको दूसरोंके सपुर्द कर बैठा। हमारा समस्त व्यापार विदेशी व्यापारियोंके हाथमें चला गया । भारतमें व्यापार For Private And Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्यापार। कम हो गया, सो नहीं । भारतीय व्यापार कम हो गया-विदेशी भारतके व्यापारी बन गये । पूर्वापक्षा अब व्यापारमें उन्नति है, पर भारतको उससे अत्यन्त हानि है ! व्यापारमें वृद्धि है, पर भारतकी उसमें एक फूटी कौड़ी भी नहीं । रेल, तार, ट्राम, सोना, चाँदी, मिट्टीका तेल, कोयला, सन, ऊन, नील, चाय, कहवा, कागज आदिके कारखाने सभी विदेशियोंके हैं । यदि ये ही कारखाने भारतीयोंके होते तो आज इस प्रकार भारत दुर्भिक्षके फन्दे में न फँसता। यदि भारतीय कुछ कर रहे हैं तो दलाली मात्र । कारखानोंके मालिक प्रायः अँगरेज हैं । उनमें आटा पीसना, रूई दबाना, मशीनें पोंछना प्रभृति कार्य हम अल्प वेतन पर करते हैं और करोड़ों रुपयोंका लाभ उठाते हैं वे । भारतमें जिन अँगरेजोंने कारखाने खोल रखे हैं वे बहुत लाभ उठाते हैं । वे काम भी खूब लेते हैं, क्योंकि भारतीय गोरे चमड़ेको अपना राजा मानने लगे हैं; चाहे वह व्यापारी हो या यूरोपका चमार । बस, उसे देखते ही उनके हाथ-पैर कापते हैं । अतएव यूरोपीय व्यापारियोंको अच्छे काम करनेवाले, हट्टे कट्टे, बलवान सस्ते भारतीय मजदूरोंसे वदकर मजदूर उनके देशमें नहीं मिलते; इस कारणसे भी बहुतसे विदेशी व्यापारी भारतमें आ जमे हैं और भारतसे अगणित द्रव्य अपने देशमें भेज रहे हैं ! इंग्लैण्डके मजदूर भारतीयोंसे महँगे हैं, इसका प्रमाण भारतमें ही सर्वत्र देखने में आता है-यदि उच्च शिक्षत बाबू रामलाल जिनकी अवस्था २५।२६ वर्ष की है, २०) रु० मासिक पर ई० आई० आर० रेलवेके इलाहाबाद स्टेशन पर टिकट कलक्टर हैं तो उनका असिस्टेन्ट मि० टेनीसन जो १५/१६ वर्षका छोकरा है, ४०) रु० मासिक पाता है । वास्तवमें वह हमारे रामलालसे अयोग्य है । उसकी For Private And Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष । -मातृभाषा अँगरेजी है, अतः वह बोल लेता है, परन्तु लिखते समय 'Ink' को 'Inc' लिखेगा। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि विलायती मजदूर महँगे मिलते हैं । अस्तु अब हम भारतके कारखानोंकी सूचीमें प्रान्तोंके अनुसार यह दिखलावेंगे कि भारतवासियोंके हाथमें भारतका व्यापार है, या विदेशियोंके हाथमें ? प्रान्त, भारतीयोंके हाथमें, विदेशियोंके हाथमें । बङ्गाल १४४ कारखाने ४३७ कारखाने बिहार ओड़ीसा १७० संयुक्त प्रान्त १०४६ १७८ बंबई ४४२ ६१८ मद्रास ५३ १२४ ॥ पञ्जाब २२ , २५ , अजमेर। मारवाड़ । आसाम । ६० ५६५ मैसोर जहाँ आप भारतीयों के हाथमें कारखानोंको अधिक संख्या देख कर प्रसन्न होते हैं, वह प्रसन्नता प्रकट करनेका स्थल नहीं है । क्योंकि उस संख्याको छापेखाने, कोयले और रुईके कारखानोंने बढ़ा दिया है । भारतीय अधिकांश ऐसे ही कारखानोंके स्वामी हैं, किन्तु बढ़िया वढ़िया सारे कारखानोंके स्वामी विदेशी सज्जन ही हैं। भारतवर्ष कम्पनियोंके लिहाजसे बहुत पीछे है । अन्य देशोंके सम्मुख हमारे देशको अपना मस्तक ऊँचा करनेका सौभाग्य प्राप्त नहीं है । यों तो हमारा देश कम्पनियोंका भंडार है । जिसके पास ४ जोड़ी For Private And Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्यापार। १५ जुर्राबें, २ पैसेके २ शीशे, ११२ दवात, २।४ पेन्सिलें हैं वही अपनी दूकानका " बर्मन एण्ड कम्पनी " आदि अनेकों अच्छे अच्छे नाम रख कर दुनियाको लूटनेका जाल फैला बैठता है । जिस देशमें बुद्ध नाई, पूरन तेली तथा पन्ना धोबी भी अपनी दूकानोंका नाम * कम्पनी ' रख कर लोगोंको धोखा देते हैं, भला वहाँ कम्पनियोंका टोटा क्यों कर हो सकता है ! कई धूर्त लोग अपने नोटपेपर, कार्ड, लिफाफे, चिट आदि चटक मटकदार छपवा कर लोगोंको धोखा दिया करते हैं। कई अपने नोटपेपरों पर " Patronized by the Rajahs and Maharajas of Indio भारतीय राजा और महाराजाओंसे संरक्षित " छपवा लेते हैं। उनसे यदि उनके संरक्षक महाराजका नाम पूछिए तो बस उत्तर ही नदारद । जिसे दादकी दवाई और दाँतका मजन बनाना आया कि उसने भी एक कम्पनी बना ली; कपूर, पीपरमेंट, अजवाइनका फूल मिला कर पेनकिलर, पीयूषसिंधु, अमृतबिंदु सुधासागर नाम रख कर एक कम्पनी बना ली। इत्र-कंपनी, तेल-कम्पनी, बाल उड़ानेके साबुनकी कम्पनी, बच्चों के खिलौनेकी कम्पनी भारतमें अगणित हैं। पर मेरा मतलब इन चोर और सत्यानाशिनी कंपनियोंसे नहीं है। य कम्पनिया भी भारतके व्यापारको विगाड़ कर लोगोंमें अविश्वास उत्पन्न कर रही हैं । पाठक स्मरण रखें। __ हमारे देशमें सन् १९०५ में १७२८ कंपनिया थीं। उसी वर्ष इंग्लैण्डमें ४०९९५ थीं। भारतीय कंपनियोंका मूलधन २,८०,००, ००० पाउण्ड और इंग्लैण्डकी कम्पनियों का मूलधन २,००,००,००, ००० पाउण्ड था ! अर्थात् भारतसे २४ गुनी अधिक कम्पनियाँ अकेले इंग्लैण्ड में हैं और उनका मूलधन ७१ गुणा अधिक है। For Private And Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६ भारत में दुर्भिक्ष | ये तो बड़े देश हैं; पर तुच्छ देश बेल्जियम, नीदरलैण्डस्, स्विट्ज़रलैण्ड, डेन्मार्क और कलका हौश सँभाला जापान भी भारत से आगे है। रूसके अर्थ सचिव मि० बार्टने एक बार कहा था कि :- " अभी असली युद्ध आरंभ नहीं हुआ है । इस वर्तमान यूरोपीय महासमरका अन्त हो जाने पर असली युद्ध आरंभ होगा । उस महायुद्धका नाम भयंकर व्यापार युद्ध होगा । इस भयंकर आर्थिक युद्ध में किसीके साथ किसी प्रकार की रिआयत नहीं होगी । जिस देशसे जितने हो सकेंगे वह उतने ही रक्षक एवं घातक उपाय करेगा । योरूप में इस युद्धकी मोरचाबन्दी अभीसे आरंभ हो गई है। यूनाइटेड स्टेट्स में अधिक उत्साह से इसका अभ्यास आरंभ हो गया और व्यूह-रचना हो रही है। उसने विदेशोंके साथ अपने व्यापारको तरक्की दिलाने के लिए एक " अमेरिकन इन्टरनेशनल कॉरपरेशन " नामक बृहत्मंडल स्थापित किया है । यूरोप भी अमेरिकाकी भाँति सावधान है । यूरोपकी अधिकांश प्रजा इसी चिंतामें मन है कि युद्ध के बाद अपना व्यापार किस भाँति चलाना चाहिए । इंग्लैण्ड भी सागधान है । वह इस भयंकर युद्धके लिए अपना भविष्य क्षेत्र तैय्यार कर रहा है P प्रत्येक देशमें हमारा माल किस प्रकार सर्वोपरि हो, इस बातकी तैय्यारी में वह लगा हुआ है । उसमें उसका उद्देश्य अपना लाभ और दूसरोंको नुकसान पहुँचाना है । इधर उस जपानकी ओर भी देखिए जिसने युद्धारंभ से ही " भज कलदारं " आरंभ किया है, और युद्धके अन्त होने पर अधिक पैसे पैदा करेगा । उसीने इस यूरोपीय महासमरसे लाभ उठाया है। उसने अपने व्यापारी जहाज खूब बढ़ा लिये हैं । जापानने ४० जहाज तैयार कराये हैं, जिनमें से १३ सात हजार टनसे अधिकके, ३ पाँच हजार टनके, १७ तीन For Private And Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्यापार । normerammarrrrr हजार टनके और ७ तेरह तेरह हजार टनके हैं; और ये अमेरिकाले साथ व्यापार करने के लिये बने हैं। परन्तु भारतने क्या किया ? भारतको स्मरण रखना चाहिए कि अन्य देश व्यापारमें चढ़-बढ़ रहे हैं और उस पर भयङ्कर आक्रमण होनेवाला है । यदि भारतने हथौड़ा नहीं तैयार किया तो उसे अन्य हथौड़ोंके लिये एरण बनना पड़ेगा । इस युद्धने व्यापारके उस विशाल क्षेत्रको जिसे देख ही नहीं सकते थे, प्रत्यक्ष कर दिखाया है। भारतको औद्योगिक उन्नति करनेका अच्छा अवसर मिला है, इसे व्यर्थ नहीं खोना चाहिए । ऐसा सुसमय बार बार नहीं आता है । हमें संसारके साथ होना चाहिए और उसीकी भाँति आगे कदम बढ़ाना चाहिर । साधारण कला, कौशल एवं कृषिकार्य में भी सुधार होने की आवश्यकता है। यों तो भारतीय सरकार भारतवर्षकी औद्योगिक उन्नतिकी चेष्टा पिछले ३० वर्षों से कर रही है; परन्तु एक तो इतना बड़ा विशाल देश, जहाँ सब प्रकारकी औद्योगिक उन्नतिकी सामग्री तथा सम्भावना है, दूसरे आर्थिक अवस्था इतनी हीन कि अपनी उन्नति के लिये निःशक्त और पराधीन, अत एव वे चेष्टायें सर्वथा अपर्याप्त थी; क्योंकि वे केवल कुछ दूरदर्शी ऑफिसरोंका प्रयत्न स्वरूप थीं। सरकारकी अभिमत किसी व्यापक नीतिका फल नहीं थीं । सरकारके यहीं तो Laissez faire सिद्धांतका राज्य था अर्थात् सरकारको इन बातोंसे कोई सरोकार नहीं, सबको अपने अपने व्यवसायकी उन्नति अवनति करनेकी पूर्ण स्वतंत्रता है। इसी सिद्धान्तके विपरीत जर्मनी, जापान आदिमें सरकार उद्योग-धन्धोंकी उन्नतिका भरपूर प्रयत्न करती है। परिणामतः भारतवर्षकी आर्थिक पराधीनता और निर्बलता बड़ी भयंकर हो रही थी। भारतवासियोंके इस पर विल. पनेका फल समझिए, अथवा युद्धकी चेतावनोका । मई सन् १९१६ भा. २ For Private And Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८ भारत में दुर्भिक्ष | ई० में सरकारने सर टी० एच० हालैंडके सभापतित्व में औद्योगिक कमीशन बैठा कर उसके सामने यह प्रश्न रक्खे: ( अ ) क्या व्यवसाय अथवा उद्योग-धन्धों में भारतीय पूँजीके उपयोगके नये लाभदायक मार्ग बतलाए जा सकते हैं ? ( ब ) क्या औद्योगिक उत्थान में सरकार लाभ - पूर्वक सहायता दे सकती है ? यदि ऐसा है, तो किस प्रकारसे : ( १ ) वैज्ञानिक परामर्शके द्वारा ? (२) विशेष विशेष उद्योग-धन्धोंको व्यापारिक ढंग पर चलाने योग्य दिखला कर ! ( ३ ) आर्थिक सहायता, प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रीति से पहुँचा कर ? ( ४ ) या अन्य किसी रीतिसे जो सरकारकी वर्तमान नीति के विरुद्ध न हो ? कमीशन को सरकारकी व्यापार नीति पर विचार करनेका अधिकार नहीं था । यद्यपि कमीशन की रिपोर्ट विम्बसे निकली है और उसके लिये उत्सुकता भी बहुत थी कि जिससे युद्धका अवसर हाथसे न निकलने पावे; परन्तु कार्य बड़ा था । तथा कमीशन के प्रस्तावों को कार्य रूपमें परिणत करने के लिये अब भी बड़ा अच्छा अवसर है । औषधि बतलाने के पूर्व निदानकी आवश्यकता होती है । भारतवर्षकी औद्योगिक अवस्था इतनी हीन क्यों है ? इसके कमीशनने ये कारण निश्चित किये हैं: -- ( १ ) कोई समय ऐसा अवश्य था जब भारतवर्ष के उद्योग-धंधे उन्नति के शिखर पर थे । उस समय यूरोप - निवासी असभ्य थे । सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी में भी जब यूरोपीय जातियाँ यहाँ For Private And Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्यापार। - ~ ~~-mmmon ज्यापार करनेके लिये आईं हमारी अवस्था उनसे कम नहीं थी, कदाचित् अच्छी ही थी। परन्तु जब यूरोप में 'औद्योगिक विषय, १७७० के पश्चात् प्रारम्भ हुआ उस समय वहाँके मध्यम श्रेणीके लोग वैभवशाली थे तथा राजनैतिक और धार्मिक स्वतंत्रताके लिये युद्ध करते करते औद्योगिक युद्ध करने योग्य शक्ति और उत्साह उनमें उत्पन्न हो गया था। उसी समय भारतवर्ष आपसके कलह तथा राजनैतिक कुचक्रोंमें फँसा हुआ था। (२) पश्चिमीय देशोंकी वर्तमान औद्योगिक अभ्युत्थानकी जड़ बाँके कच्चे और पक्के लोहेका शिल्प ह । औद्योगिक विप्लवका 'प्रारंभ शिल्पमें वाष्प-यंत्रों के प्रयोगसे प्रारम्भ हुआ। जब औजारोंकी जगह मशीनें काममें आने लगी तब यूरोपमें लोह-शिल्पकी स्थिति ऐसी थी कि एक ही नापके कल-पुर्जे बनने लगे, जिससे उनके प्रचारमें बड़ा सुभीता हुआ । लोहेके काममें भारतवर्ष बहुत हीन अवस्थामें है । यद्यपि यहाँ सन् १८७५ ई० से लोहा ( Pigiron ) निकाला जा रहा है, तथापि उससे वस्तु-निर्माणका कार्य केवल सन् १९१४ ई० में आरम्भ हुआ । सन् १९१३-१४ ई० में रेलकी पटरियाँ, लोहेकी चद्दरे आदि २४ करोड़ का लोहा भारतवर्ष में आया। मशीनें, मोटरकार आदि इसके अतिरिक्त हैं। (३) ईस्ट इन्डिया कम्पनीने कुछ उद्योग स्थापित करने की चेष्टा की थी-उदाहरणार्थ दक्षिणमें लोहे का कारखाना था;परंतु वह सफल न हुई। यह विचार किया गया कि वह उष्ण देश जहाँ भूमि उपजाऊ है, केवल कृषि-कार्यके योग्य है, कला-कौशलके नहीं। फिर जब यह सिद्धान्त भी ढीला हुआ तब उद्योगकी उन्नतिके लिये जो प्रबन्ध किया गया वह केवल व्यवसायका मार्ग साफ कर देना और For Private And Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २० भारतमें दुर्भिक्ष । आने-जानेकी सुविधायें कर देना था । परन्तु इस देशमें लोह-शिल्प न होनेके कारण केवल कच्चे मालका निर्यात (बाहर भेजा जाना) और बनी वस्तुओंके आयातकी ( बाहरसे आना ) वृद्धि इससे हुई। (४) भारतवर्ष की पूजी अत्यन्त लाजवती है, जो घरोंके भीतर छिपी पड़ी रहती है। भारतवासी केवल व्यवसाय, लेन-देन तथा अन्य पुराने धन्धों में रुपया लगाते हैं, जिनमें जोखिम नहीं है । जो कुछ उद्योग-धन्धे अभी तक स्थापित हुए हैं वह विदेशियोंके उद्योगसे हुए हैं। (५) भारतवर्ष में निपुण इंजीनियरों और शिल्पविज्ञान वेत्ताओंका अभाव है। इस विषयमें वह विदेशियों पर आश्रित है । युद्धके समयमें यह पराधीनता तथा मशीनों आदिके यहाँ बनने की आवश्यकता सबको स्पष्ट हो गई है। (६) राज्यकी ओरसे दो त्रुटियाँ चौथे और पाँचवें कारणकी उत्तेजक हुई। भारतकी सरकारका खरीदका कोई विभाग यहँ। नहीं है। वह इंडिया आफिसके ( भारत-मंत्रीका विभाग) द्वारा इंग्लैण्डसे खरीद करती है। फिर विज्ञानकी शिक्षाका प्रबन्ध न करना सरकारकी एक बड़ी भयंकर भूल है। सारांश हमारे देशकी औद्योगिक व्यवस्था सर्वथा अपूर्ण है। सामग्री, पूर्जी और लादनेवाले सबके लिये हम विदेशियों पर आश्रित हैं। माननीय मालवीयजीको अपने भिन्न नोट में तीसरे कारणके सम्बन्धमें कुछ और भी बक्तव्य है। एक तो वह यह सिद्ध करते हैं कि इंग्लैण्डने भारतीय आयात माल पर टैक्स बिठला कर और ईस्ट इंडिया कम्पनीके राजनैतिक प्रभुत्वका उपयोग यहाँके उद्योगों को नष्ट करनेमें करके वहाँके स्वार्थी वणिकोंको लाभ उठाने दिया। उदा For Private And Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्यापार। २१ हरणार्थ कम्पनीके डायरेक्टर-संवने जान-बूझ कर भारतवर्ष के जहाजी कामको नष्ट कर दिया। दूसरे लार्ड डलहौसीके रेल-निर्माणका मुख्य अभिप्राय अँगरेजोंके व्यापार-व्यवसायकी उन्नति करना था। भारतवर्षके औद्योगिक अधःपतनके यह भी कारण हैं। खनिज और उद्भिज कच्चे पदार्थोंसे किन किन वस्तुओंके प्रस्तुत करनेकी महान् आवश्यकता है और किन रासायनिक चीजोंके बनाये बिना औद्योगिक उन्नति असम्भव है यह बतला कर कमीशनने लिखा है कि शांति और युद्ध दोनोंके लिये आवश्यक उद्योगोंका अभाव भयानक है । जब तक उनकी सृष्टि न होगी भारतवर्ष शांतिके समय मुनाफेसे वंचित रहेगा । युद्ध के समय वर्तमान धन्धोंके बन्द हो जानेका डर रहेगा और देशकी रक्षा बड़े खतरेमें पड़ जायगी। ___ अत एव कमीशनने दो बड़े बड़े सिद्धान्त मान कर उनके अनुसार अपने भिन्न भिन्न प्रस्ताव किये हैं:-(१) भविष्यमें सरकारको भारतके औद्योगिक उत्थानके लिये स्वयं चेष्टा करनी चाहिए। और वह भी इस उद्देश्यको सम्मुख रख कर कि देश मनुष्य और सामग्रीके विषयमें स्वावलम्बी हो जाय । (२) यह बात तब तक असम्भव है जब तक इसके लिये प्रर्याप्त राज्य व्यवस्थाका प्रबन्ध न हो, और जब तक विश्वसनीय वैज्ञानिक सम्मतिदाताओंका पूर्ण प्रबन्ध न हो। इन्हीं सिद्धान्तोंकी शाखा-प्रशाखा-रूप कमीशनने निम्न लिखित विषयों पर विचार करके अपनी सम्मति प्रगट की है: (१) भारतवर्षकी वर्तमान औद्योगिक स्थिति क्या है और सम्भावनायें क्या हैं । भारतवर्ष वर्तमान कालकी उद्योग-गतिके साथ साथ नहीं चल रहा है। यहाँकी अधिकांश जन-संख्या पुराने For Private And Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२ AAAAAAAAAAA.RAJ .... भारतमें दुर्भिक्ष। ढंगोंसे खेती करनेमें लगी है, जिनसे कठिनसासे जीवन-निर्वाहके योग्य फसल पैदा होती है । जो कुछ कृषिमें अन्तर हुआ है वह भायात और निर्यात व्यापारका प्रभाव है, न कि औद्योगिक परिवर्तनका । (२)कुछ स्थानों-जैसे बम्बई बंगाल के कोयलेकी खानों, बिहारके नीलके जिलों आदि में पश्चिमोय ढंगोंका प्रचार हुआ है । परन्तु वहाँ भारतीय मजदूरोंकी कमी, उनकी अक्षमता सर्वत्र देखी जाती है और निगरानी करनेके लिये योग्य भारतवासी नहीं मिलते। (३) उद्योगोंकी कच्ची सामग्री पर कमीशनने विचार किया है। उद्भिज सामग्रीमें अमेरिकन कपासकी कृषि बढ़नी चाहिए । गन्ना जितनी भूमिमें यहाँ बोया जाता है अन्यत्र नहीं बोया जाता; परन्तु वह अच्छी नस्ल का नहीं होता । बोनेका ढंग सुधारना चाहिए। छोटे छोटे खत्तोंमें बोये जानेके कारण एक भी फेक्टरीका चलना कठिनाईसे होता है। तिल बहुत होता है। परन्तु कोल्हुओं में उन्नति होना आवश्यक है । अभी तो अधिकतर कच्चा माल विदशोंको भेज दिया जाता है । चमड़ेका धंधा देहातके चमार बहुत बुरी तरहसे करते हैं। उनके लिये यह कहा जाता है कि वे अच्छी खालको बुरा चमड़ा बना देते हैं । चमड़ा बनानेकी फेक्टरिया खोलना चाहिए । कमानके कामके पदार्थ भारतवर्ष में अच्छे और बहुत भौतिके होते हैं । अभी बबूल, अवारमकी छाल काममें आती है ! परन्तु म्यूनीशन बोर्ड अन्य पदार्थों का गुणान्वेषण कर रहा है। यहॉकी खाल क्रोम चमड़ेके बहुत योग्य होती है । यहाँ जितनी खाल पैदा होती है उतनी खर्च नहीं होती है । युद्धके पूर्व अधिकांश अवशिष्ट जर्मन-व्यापारियोंके हाथ में था। For Private And Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्यापार । २३ औद्योगिक सुधार में सच्चे बाधक हमारे देशके लखपती करोड़पती भी हैं। उनकी कंजूसी भी भारतको बर्बाद करने में बड़ी सहायता दे रही है, क्योंकि वे अपने धनको अपनी छातीके नीचे लेकर बैठे रहना ही पसन्द करते हैं। उसे व्यापारमें लगा कर अपनी एवं देशकी पूजी वे नहीं बढ़ाते । सच पूछिए तो ईश्वरने बन्दरके हाथमें शीशा दे दिया है । उन्हें धनका सदुपयोग करना ही नहीं आता। नाच, रंग, विवाह आदि कार्यों में वित्तसे अधिक धन लुटानेको वे तैय्यार हैं, किंतु व्यापार तथा कला कौशल में अपनी कौड़ी लगाना वे ब्रह्महत्या एवं गोहत्यासे भी गुरुतर पाप समझते हैं। इसके विरुद्ध यूरोपके धनपति अपने घरका सामान बेच कर भी अपने रुपयोंका सदुपयोग करते हैं और हमारे देशको दरिद्री बनाते हैं । वहाँसे प्रतिवर्ष अरबों रुपयोंका सस्ता और उम्दा माल भारतमें आकर खपता है, वह रुपया यूरोपमें पहुँच जाता है और भारत अपनी पूँजी दूसरोंको देकर कंगाल होता जाता है । इस दोषका एक बड़ा भारी भाग हमारे कंजूस धनपतियोंको दिया जा सकता है। हमारे ऐसे व्याजखोर धनवानोंका जीवन नीरस और निरुद्देश्य होता है। वे अपने चोलेमें खुश हैं, उनको दूसरोंके दुःखसे क्या प्रयोजन। परन्तु उन्हें यह तो निश्चय मान लेना चाहिए कि उनकी भावी सन्तान, उनके इस अविचार एवं अदूरदर्शिताके कारण बिना अन्नके जठर-ज्वालासे भस्म हो जायगी। जिस धनको अपनी छातीके नीचे रख कर आज वे फूले नहीं समाते, वह क्या उनका है ? कदापि नहीं । देखिए: लक्ष्मी स्थिरा न भवतीति किमत्र चित्रम्, एतान्नपश्यति घटाञ्जल यन्त्रचक्रे । रिक्ता भवन्ति भरिता भरिताश्च रिक्ता।" For Private And Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir wwmwwwmmarrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrnwwwwwwwwimmmm भारतमे दुर्भिक्ष । इस संसारमें जन्म लेकर मर जाना ही इस जीवनका उद्देश नहीं है "Life is real life is earnest! and the grave is not its goal ; Dust thou art to dust returensts was not spoken of the soul.” जीवन सत्य है, जीवन हेतुमय है । स्मशान उसका अन्त नहीं है। मनुष्य देह मिट्टीका बना हुआ है और एक दिन उसीमें मिल जायगा । आत्मा अमर है । लार्ड एव्हबरीने कहा है कि “Life is not a bed of roses, neither need it to be a field of battle." । अर्थात्-जीवन पुष्पोंकी शय्या नहीं है और न उसे संग्राम-क्षेत्र बनानेकी ही आवश्यकता है। "Live to some purpose make thy life. A gift of use to thee A joy, a good, a golden hope. A. heavenly argosy." इस मानव-जीवनका कोई-न-कोई हेतु अवश्य होना चाहिए । जब ईश्वरकी महती दयासे हम धनवान हैं तब हमें अपने धनका सदुपयोग अवश्य करना चाहिए । आजकल पैसेका उपयोग करना विदेशी लोगोंने भली भाँति सीख लिया है। क्या किसी एक भारतीयका साहस है कि जो ऐसा एक कारखाना खोले जिसमें पांच लाख मनुष्य काम करते हों! दो दो लाख घौडेकी शक्तिवाले इंजिन चल सकते हों ! और जो ४० हजार टन केल्सियमकार्बाइड पैदा कर सकते हों! क्या हममेंसे कोई ऐसे वृहत्कार्यको अपने हाथमें लेनेका कभी स्वप्नमें भी साहस कर सकता है ? जाने दीजिए, हम न सही For Private And Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्यापार। २५ तो क्या हुआ, हम अपने बालकोंको ही इस योग्य तैय्यार कर रहे हैं! नहीं, वे भी निरे बछियाके ताऊ ही बनाये जा रहे हैं । भारतकी दशा विचित्र है । स्मरण रहे यदि इतने पर भी हमें होश न आया तो हमारी मृत्यु हमारे सिर पर नाच रहीं है, यह निश्चय कर लेना चाहिए। ये हमारे कंजूस धनी और यहाँ फैली, हुई अविद्या दोनों एक दिन भारतका नाम इस संसारसे मिटा देना चाहते हैं। For Private And Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६ wwwwwwwwwww भारतमें दुर्भिक्ष। कृषि " कृषिरन्यतमो धर्मो न लभेत्कृषितोन्यतःन सुखं कृषितोन्यत्र यदि धर्मेण कर्षति ।" --पाराशर । मारे पूर्वज महर्षियोंने भारतके लिये कृषिकार्य ही सर्वोत्तम माना है। उक्त पाराशरजीके वाक्यसे सिद्ध होता है कि खेतीमें जो लाभ है वह किसी अन्य धन्धेमें नहीं। तभी तो-"उत्तम खेती मध्यम बान निकृष्ट चाकरी भीख निदान " की कहावत हमारे देश में प्रचलित है । सारांश यह कि हमारे पूर्वजोंने संसार में सबसे उत्तम कर्म खेतीको माना है। परन्तु यदि प्रत्येक कार्य उत्तमतासे किया जाय, तभी वह उत्तम माना जाता है। केवल "उत्तम उत्तम" चिल्लानेसे ही वह उत्तम नहीं हो सकता। मेरे विचारसे कृषिमें उतनी अधिक बुद्धिकी आवश्यकता नहीं जितनी कि व्यापारमें दरकार है। भारत जैसे कृषि-प्रधान देशके लिये कृषिकार्य सर्वोत्तम है अवश्य, किंतु वर्तमान काल में वह भी पूर्ण अधोगतिको पहुँच चुका है। हमारा देश कृषिके पीछे बुरी तरहसे पड़ गया। प्रति शत ८० मनुष्य खेती करने लगे । मि० लिस्ट (List) इस विषयमें लिखते हैं किः “A nation which passes merely agriculture and merely the most indispensable industries, is in want of the first and most necessary division of commercial operations among its inhabitants and of the most important half of its productive powers." For Private And Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Aaparwwran कृषि। . अर्थात्-जो जाति केवल कृषि पर ही भरोसा रखती है अथवा केवल ऐसे ही बाणिज्य करती है जिनके बिना उसका किसी प्रकार निर्वाह नहीं है, वह अपनी आधी उत्पादक शक्तिसे वंचित रहती है।" यदि किसीके कानमें यह बात पहुँचे कि भारतीय प्रति शत ८० कृषिकार्य करते हैं तो आश्चर्यसे वह पूछ उठेगा कि क्या वहाँ अन्न सस्ता बिकता है ? या वहाँके लोग कुंभकर्णकी भाति बहुत अधिक भोजन करते हैं ! नहीं, इतना होने पर भी यह। रात-दिन दुर्भिक्ष तांडवनृत्य कर रहा है । हजारों भारतीय नित्य क्षुधासे अपने प्राण परित्याग करते हैं । इसका कारण क्या है, यह हम आगे चल कर बतायेंगे। हमारा देश कृषिको उत्तम समझ कर उसीकी ओर बिना सोचे समझे झुक पड़ा, अत एव निरा मूर्ख और पुराने ढर्रेका हो गया । जो देश व्यापार-कार्य में संलग्न हैं उनकी बुद्धिकी प्रखरता, शारीरिक उन्नति, आर्थिक उन्नति और स्वतन्त्रता कितनी बढ़ी हुई है, जरा ध्यानसे देखिए। अन्यान्य देशों में व्यापारके लिये जहाजी बेड़े बनते हैं और उनकी रक्षाके लिये सैनिक बेड़े बनते हैं। कच्चा माल प्राप्त करने के लिये नये देश और नई नई वस्तियोंकी आवश्यकता पड़ती है, जिन पर अधिकार जमानेके लिये युद्धकी तैय्यारी करनी पड़ती है। अत एव व्यवसाय-प्रधान देश अपने को खूब उन्नत कर सकता है । व्यवसायकी उन्नतिसे ही इंग्लैंड उन्नत हुआ और भारतने इसे छोड़ा तो अवनतिको अपना लिया। क्या किया जाय, यहाकी दशा ही विचित्र है। लगभग २०० वाँसे विदेशी व्यापारियोंकी धींगा-धींगी और राजनैतिक परिवर्तनोंके कारण यहाँका व्यवसाय तो मिट्टी में ही मिल गया है । आत्मरक्षाके For Private And Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "२८ भारत में दुर्भिक्ष | लिये वर्तमान में यदि कोई भरोसा है भी तो वह केवल कृषि है । तब भी कोई हानि नहीं, कच्चे मालके लिये अब भी हमारे पास सामान हैं । हिसाब लगाने से मालूम हुआ है कि हममेंसे फीसदी ८० का नर्वाह कृषिके द्वारा होता है। कितने आश्चर्यकी बात है कि जिस देश में सौ पीछे ८० आदमी कृषिकार्यमें निरत हों वहाँ कृषक समेत सौका भी गुजर न हो सके !! और विलियम डिग्बी ( William Digby ) के कथनानुसार सन् १७९७ से १९०० ई० तक अर्थात् १०७ वर्षो में जितने युद्ध हुए हैं उनमें सब मिला कर ५० लाख मनुष्य भी नहीं मेरे, किन्तु दुर्भाग्य हैं कि उतने ही समय में अन्नके बिना तीन करोड़ पच्चीस लाख भारतीय आत्माओंने तड़प तड़प कर शरीर त्याग किया !! आष्ट्रेलिया महाद्वीपके एक सरकारी स्कूलमें इन्स्पेक्टरने लड़कोंसे प्रश्न किया कि भारतीयोंका मुख्य खाद्य पदार्थ क्या है ? एक लड़केने उठ कर उत्तर दिया- " उनका मुख्य खाद्य पदार्थ दुर्भिक्ष है !” उसका यह कथन अक्षरशः सत्य है । भारतको जितना पेट भरनेको अन्न नहीं मिलता उतना यह भूखा ही रहता है । अठारहवीं शताब्दीमें केवल ४ दुर्भिक्ष पड़े । किंतु तबसे धीरे धीरे इसका जोर बढ़ने लगा । उन्नीसवीं सदी में १८०० से १८२५ ई० तक दस लाख, १८२५ से १८५० ई०तक पाँच लाख और १८५० से १८७५ तक पंचास लाख मनुष्य अन्नके बिना काल - कवलित हुए । तदुपरान्त १८७५ से १९०० ई० तक अर्थात् इन २५ वर्षकी, दुर्भिक्ष लीलाकी विकरालता देख कर तो छाती फटने लगती है । केवल २५ बौ २८ दुर्भिक्ष पड़े और लगभग चार करोड़ भारतवासी उदरज्वालासे भस्मीभूत हुए | वह भारत, पहलेका जिक्र छोड़िए, जो आज भी संसार के आधेसे अधिक भागको अपने उपजाए अन्नसे भर देता है, उसीकी सन्तान इस प्रकार भूखों मरे, यह कितने आश्चर्य For Private And Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृषि और परितापका विषय है ! पिछले वर्षोंमें आज तक जिस भौति दुर्भिक्ष दैत्यका अविराम आक्रमण होता आ रहा है उस अनुपातसे यह आशा करना व्यर्थं न होगा कि थोड़े दिनोंमें हम सबके सब दाने जद हो जायेंगे | अब विचारनेकी बात यह रही कि इसका कारण क्या है ? इस विषयमें विश्वासके लिये मैं अपनी ओरसे कुछ न कह कर विदेशी विद्वानों की ही राय उधृत करूँगा । साधारणतः लोग समझते हैं कि दुर्भिक्ष अनिवार्य हैं-रोके नहीं जा सकते और उनके प्रधानतः दो कारण हैं । (१) समय पर वर्षाका न होना या वर्षाका कम होना । (२) उचितसे अधिक जनसंख्या । सण्डरलैण्ड साहबका कथन है कि भारतवर्ष बहुत बड़ा देश है, वर्मा सहित इतने विशाल देशसे न्यूयार्क ( अमेरिका ) के सदृश ३६ राज्य काटे जा सकते हैं। प्रत्येक स्थानका जल-वायु भी भिन्न भिन्न है । भूमि भा एकसी नहीं, कहींकी जमीनमें ऊर्वरा शक्ति कम और कहीं अधिक है । वृष्टि भी कहीं अधिक होती है तो कहीं न्यून ।। ___ हम लोगोंको तीन बातें सदा ध्यान रखनी चाहिए। पहली बात तो यह है कि ऐसा कभी नहीं होता कि समस्त देशमें एक साथ दुर्भिक्ष पड़ा हो । अतः यह कहने की आवश्यकता नहीं कि अकालके दुष्कालमें भी हमारे देशके कितने ही सूबोंमें इतना अन्न पैदा होता है कि यदि वह बाहर न भेज दिया जाय तो महा विकराल दुर्भिक्ष में भी हमारे एक भाई के भी भूखों मरनेकी नौबत न आवे । दूसरे आबपाशीकी शिकायत भी आप नहीं कर सकते हैं। क्योंकि ईश्वरीय प्रकृतिकी कृपासे यहाँका भौतिक संगठन भी बड़े ठिकानेका है। आपका स्वदेश दो दिशाओं में समुद्रसे घिरा है। प्रान्तोंमें नहर और बड़ी बड़ी नदियाँ फैली हैं । मैं मानता हूँ कि इतने सामान ही आबपाशीके लिये यथेष्ट नहीं, किन्तु इस दशामें भी हमारे यहाँ अन्नकी For Private And Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष । उपज कम नहीं होती। तीसरे इसके अतिरिक्त आपके देशमें ऐसा कोई स्थान न होगा जहाँ रेलकी लाइनें साँपको तरह न घुस गई हों। इस प्रकार सुखी प्रान्तोंसे दुखी प्रान्तों तक सरलता पूर्वक अन्न पहुँचाया जा सकता है । इससे पानी बरसनेकी कमीकी बात मानते हुए भी यह सिद्ध होता है कि न दुर्भिक्ष पड़ने चाहिए, न इतनी जाने ही जानी चाहिए। पर खेद है कि यहाकी दुखी प्रजाओंके पास अन्न मोल लेनेको पैसे ही नहीं। जिसके पास है वह खरीद कर ले ही जाता है। __ अब दूसरा प्रश्न आबादीका है । यह भी व्यर्थ सा ही है । क्या दुनिया भरसे यहाकी ही आबादी ज्यादा है ! भारतवर्षकी आबादी यूरोपकी अपेक्षा कम है, और फिर भी यूरोपमें कभी कोई दुर्भिक्षको स्व-नमें भी नहीं देखता। भूमण्डलके अनेक देशोंमें खेतीके योग्य भूमिका अभाव है, तथापि वहाके लोग भूखों न मर कर सालभर चैनका वंशी बजाते हुए अपना कालयापन करते हैं। अपने उपजाये अन्नसे वहाँके निवासी साल में केवल ९० दिनके लगभग निर्वाह कर सकते हैं; तो क्या बाकी दिनोंमें वहाँके लोग हवा खाकर जीवित रहते हैं ? जर्मनीका भी यही हाल है। वहाँकी उपज भी जर्मनोंकी केवल १०४ दिनोंकी खुराक है । और देशोंकी भी यही दशा है। इस पर भी कुछ जवाब है कि सात समुद्र पारवाले तो यहाँसे अन्न मँगा कर भोजन करें और हमारे घरमें अन्नका ढेर लगा रहने पर भी हम भूखों मरें । इसमें कोई सन्देह नहीं कि कृषिकी उन्नतिकी यहा बड़ी आवश्यकता है और बहुतसी भूमि जो अभी बे-जोती पडी है, उसे आवाद करना चाहिए । किन्तु यह भी निर्विवाद है कि यदि सुप्रबन्ध हो तो यहाँ दुर्भिक्ष फटक भी नहीं सकता। For Private And Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृषि | ३१ इन बातोंको ध्यान में रखकर अब फिर भी दुर्भिक्षके सच्चे कारणका पता लगाना है । थोड़े ही परिश्रम या खोजसे यह रहस्य खुल जाता है। मेरे विचारानुसार दुर्भिक्षका मुख्य कारण है भारतवर्षकी दरिद्रता । " नहिं दारिद सम दुख जग माँही " इस पद्यका दूसरा चरण भी याद रखने योग्य है, भूलिए मत" पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं । " -तुलसी भारतवासियोंके सारे आतङ्कका मूल कारण उनकी अपरिमित दरिद्रता -- बे-हिसाब गरीबी-- है । उनको सदैव हाय हाय लगी रहती है। वे जो कुछ पैदा करते हैं उसके चार हिस्सेदार खड़े हो जाते हैं । जमीदार, साहूकार या महाजन, आवपाशीका महकमा और मजदूर । इन चारोंमें से पहले तीन तो इतने जबरदस्त हैं कि बिना उनको चुकाये उनसे किसी भाँति छुटकारा ही नहीं । इस प्रकार दे चुकने पर जो कुछ उनके पास शेष रहता है उससे वे दो महीने यदि अपना गुज़र कर लें तो गनीमत समझिए । बादको किर जेवर, थाली लोटा, ढोर आदि बन्धक रख कर या बेच कर वे अपने दिन काटते हैं । इतने पर भी पूरा नहीं होता तो जमींदार या साहूकारके यहाँ अड़ कर बैठ जाते हैं और खेत या घर रेहन कर कुछ रुपया ले आते हैं । यहाँ तक तो उनको साधारण दशाका वर्णन हुआ। दुर्भिक्षमें क्या दशा होती होगी यह आप स्वयं विचार लें। अपने शरीर के सिवा उस समय उनके पास अपनी सम्पत्ति रह ही क्या जाती है ? फिर ये क्या करते हैं- धनहीन और बलहोन होकर प्राण विसर्जन कर देते हैं या दुर्भिक्षकी फसलकी भाँति खेतहीमें सूख कर पटरा हो जात ह । For Private And Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२ भारतमें दुर्भिक्ष। एक समय लार्ड कर्जनने बड़े अभिमानके साथ कहा था कि भारतवासियोंकी वार्षिक आय ३०) रु० से कम नहीं । किंतु भारतहितैषी मि० डिग्बीने उस हिसाबको गलत साबित कर दिखाया कि यहाँवालोंकी वार्षिक आमदनी केवल १८॥) रु० है। टैक्स आदि चुकाने के बाद अनुमानतः घट कर १४ ) या १५) रु० ही रह जाती है। इस सुवर्णमय विस्तृत भुमिकी आय तो यह, किंतु और और देशोंकी आय तो जरा देखिए-~देश, वार्षिक आय। आष्ट्रेलिया इंग्लैण्ड ६३०) संयुक्त राज्य अमेरिका बेल्जियम ४२०) फ्रांस जर्मनी ३३०) भारतवर्ष कहिए यह अभागा देश औरोंकी अपेक्षा कितना कंगाल है ! जिस चढ़ी-बढ़ी दरिद्रताके कारण उसको पेट भर अन्न दुष्प्राप्य हो रहा है वह भला अपने यहाँ किन किन चीजोंमें सुधार करे ! हमारे भारतीय कृषक कूप-मंडूककी भाँति अपने पैतृक खेतोंमें कीड़ोंके जैसे बने रहते हैं। कभी बाहरके नगरोंका प्रवास नहीं करते । यात्रा करनेसे डरते और कॉपते हैं। प्रवाससे ज्ञान, वीरता उत्साह और नवीनता आती है। परन्तु ये लोग अपना घर नहीं छोड़ते । कृषक अपने देशकी दशा नहीं समझते । देश-दशाका विचार तो दूर रहा, वे पशुकी भाति आहार, निद्रा, भय, मैथुन और For Private And Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृषि । अपने काममें ही तुष्ट रहते हैं। कृषिमें लगी हुई जाति कदापि दासत्वसे मुक्त नहीं हो सकती । स्वेच्छाचारी राजा, सरदार या ब्राह्मण आदि सदा इन्हें पादाक्रान्त करते रहे हैं। वर्तमान कालमें ही देख लीजिए एक दुबला पतला, एक धक्के में ४ गुलाटें खाकर मुहँके बल गिरनेवाला ५) रु. मासिकका चपरारासी भी बेचारे दीन कृषकोंके दो ठोकरें मार ही देता है, मानो ये उसके बापके नौकर हों। ऐसे नीच अत्याचार सह लेनेका कारण यही है कि हमारे कृषकोंके अंग-प्रत्यंगमें दासताका भाव भर गया है । जरा विचारिए भारतीय कृषकोंकी कैसी दुर्दशा है । उनके सिर पर कोई-न-कोई भय सदा सवार रहता है । तो भी कृषकोंकी ही संख्या बढ़ती जाती है। मुख्य बात तो यह है कि निर्धनता उन्हें कृषक बना रही है। जर्मनी और अमेरिका जैसे देश भी कृषि-प्रधान देश हैं, पर वह। कृषिकी पैदावार बढ़ रही है और कृषकोंकी संख्या घट रही है । कारण यह कि वे दूरदर्शिता और बुद्धिमत्तासे कृषिकार्य में उन्नतिके सर्वोच्च शिखर पर चढ़ गये हैं। भारतीय कृषकके मुकाबले में एक अँगरेज चार गुना और एक अमेरिकन कृषक आठ गुना काम कर सकता है। अमेरिकाकी कृषिविद्या सर्वोच्च है। वहाँ नित्य नये परिवर्तन और सुधार किये जा रहे हैं । कृषि-सम्बन्धी प्रत्येक कार्यके सुधारमें वे लोग दत्तचित्त हैं । कृषि-सम्बन्धी औजारों, कलों आदिमें उन्होंने बहुत कुछ सुधार कर डाला है । वे भारतवर्षकी भैाति परदादाके हाथके बनाये हलको चलाना अपना धर्म नहीं समझते । अमेरिकाके कृषक धनी, तेजस्वी, यशस्वी, शिक्षित और स्वतंत्र हैं। अमेरिकाने कृषिकार्य में अपार सफलता प्राप्त कर ली है। यदि वहाँवालोंको अपने खेतमें पानी देने की आवश्यकता होती है तो भारतीयोंकी भैाति वे चरस,रहँट,या दकलीसे दिनभर सिर नहीं फोड़ते। For Private And Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष । उनके केवल एक बटन दबाने मात्रसे बिजली द्वारा यथेच्छ जल खेतोंमें आ जाता है । फसल काटनेके लिये एक दो मनुष्योंसे चलाई जानेवाली मशीनें हजारों मनुष्योंकी आवश्यकताकी पूर्ती कर देती है। यदि बादल घुमड़े और उनसे फसलको हानि होनेकी आशंका हो तो वे बड़ी बड़ी तोपों द्वारा आकाशकी ओर गोले बरसा कर बादलोंको फाड़ डालते हैं और उन्हें तितर-बितर कर देते है। हमारे भारतीयोंकी भाँति वे उसे इन्द्रके भिश्तीकी मशक समझ कर हाथ जोड़ कर प्रणाम नहीं करने लगते । वहँ। यदि पालेसे खेतको हानि होने का भय हो तो उनके पास ऐसे यंत्र हैं जिनकी सहायतासे वे खेतोंमें गर्मी पैदा कर उन्हें पालेसे बचा लेते हैं। भारतीय कृषकोंके सिर पर सदा वर्षा, ओले, पाले और टिड्डी आदिका भय सवार रहता है। __ हमार यहाँका शिक्षित समुदाय कृषिको निंद्य और गँवारू धन्धा समझ कर उस ओर ध्यान नहीं देता । बेचारे अपद, अज्ञान किसान जो कुछ कर रहे हैं वही बहुत है, नहीं तो संसार भूखों मर जाता। जमीनें बराबर जुतती रहती हैं और बोई जाती हैं अतः उनमें उर्वराशक्ति बिलकुल नहीं रही गई। भूमि कमजोर हो जानेसे उसमें उपज नाम मात्रकी होती है। उत्तम खाद देकर उसे शक्तिवान बनाना हमारे कृषकोंको नहीं आता और आता भी है तो दरिद्रताके कारण उनके पास उसके साधन ही नहीं होते । भला जिस भमिको शक्तिवान बनानके लिये कोई खूराक न दी जावे और उससे फसल अच्छी पानेकी आशा की जाय तो यह कितनी मूर्खता है। हमारे कृषक आधुनिक कृषि-विद्यासे बिलकुल अनभिज्ञ हैं। अपने पुराने हल और मरे बैलोंसे सड़ा या खराब बीज चार अंगुल गहरी भूमि फाड़ कर डालना ही उन्हें आता है, पदा हो या न हो। वे अपने भाग्यके भरोसे बैठ जाते हैं। For Private And Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृषि । कृषिकार्यकी मुख्य वस्तु खादका बनाना या उसे उपयोगमें लाना उन्हें बिलकुल ही नहीं आता । अपने आलस्य और अज्ञानसे हम ऐसी ऐसी वस्तुओंको-जिनसे करोड़ों रुपयोंकी खाद बन सकती है, फेंक दिया करते हैं। गोबरकी खादमें पौधोंके आहारके प्रत्येक अंश (१) आक्सिजन, (२) कारबन, (३) हाइड्रोजन, (४) केलोशियम, (५) मग्नेशियम, (६) लोहा, (७) गन्धक, (८) नाइट्रोजन और (९) फासफरस मौजूद हैं, परन्तु अपनी भूलसे--जो बहुधा दरिद्रता-जन्य होती है हम कण्डे बना कर गोबरको जला कर राख कर डालते हैं। कितनी अनधिकार चेष्टा है कि पौधोंके आहारको हम जला कर बिगाड़ देते हैं । क्या किया जाय, इसे कृषकोंका दोष कहें या दरिद्रताका, जो उन्हें ऐसी मूर्खताएँ करने के लिये मजबूर करती है। यदि भूमिके भीतर पौधोंका आहार उपस्थित नहीं होता तो वे उसी भैाति मर जायँगे जैसे दुर्भिक्षमें मनुष्य । अत एव भारतीय कृषकोंको उचित है कि वे भाग्यके विचारोंको छोड़ कर खाद देने के विचारोंको उत्तेजन दें, जिससे उनकी दरिद्रताकी पुकार परमात्मा सुन सके । कण्डे बना कर फूक देनेसे कोई विशेष लाभ भी नहीं । मान लीजिए, एक जोड़ी बैलसे प्रतिवर्ष १२० मन गोबर मिल सकता है, जिसकी ८० मन उत्तम खाद तैय्यार की जा सकती है। यदि प्रति दस मन एक रुपया मूल्य मान लिया जाये तो वह आठ रुपये की हुई । अब कण्डोंका हिसाब लोजिएं। इसी गोबरले कण्डे तैय्यार कराये जावे तो ६० मन होंगे, जो गिनती में १९२०० होंगे और प्रत्येक कण्डा आच पावका होगा । यदि ४० कण्डोक्ता मूल एक पैता हो तो सबका मूल्य ७॥) रु. होगा। प्रफटमें आठ आने का ही अन्तर है, पर खादसे अपरिमित लाभ है और कण्डोका लाभ राख है। For Private And Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष। सन् १९०९ ई० में भारतमें बैल, गाय, मेंढे, बकरी, भैंस, घोड़े आदिको संख्या लगभग एक करोड़ थी। अनुमानसे जाना गया है कि प्रति ढोर६८मन खाद प्रति वर्ष तैय्यार हो सकती है। इस हिसाबसे ६८ करोड़ मन खाद और एक रुपयेकी दस मनके हिसाबसे ६ करोड़ ८० लाख रुपयोंकी होती है। जिसे हम कण्डे बना कर जला डालते हैं । यदि कहीं खाद बनाई भी जाती है तो अनुपयोगी रीतिसे बनाई जाती है, जो किसी कामकी नहीं होती। इसी प्रकार पशुओंका मूत्र भी लाखों रुपयोंका हमारी अनभिज्ञतासे व्यर्थ जाता है । मूत्रकी खाद इतनी उत्तम होती है कि उसके गुणोंको देख कर दातों तले उँगली दबानी पड़ती है । परन्तु जिस बुरी तरहसे हमारे देश में उसका सत्तानाश होता है उसको भी देख कर दातों तले उँगुली. दबानी पड़ती है ! गोबरकी खादसे उत्तम खाद भी होती है। वह खाद है हड्डीकी । परंतु हमारे भारतीय कृषकोंको इसका स्वप्नमें भी ध्यान नहीं । पहले गाँवोंके आसपास पशुओंकी हड्डियाँ बहुतायतसे पड़ी रहती थीं। परंतु आजकल वहाँ एक हड्डी भी नहीं दिखाई देती। कारण यह कि यूरोपके कृषक जो हड्डियोंकी खादके लाभसे भली भांति परिचित हैं, भारतसे हड्डियाँ मँगा कर उनकी बहुत ही लाभदायक खाद बना कर अपने खेतोंको बेहद उपजाऊ बना रहे हैं। विलायतके कृषकोंके अतिरिक्त यहाँके हड्डी भेजनेवाले एजेण्टोंको भी बहुत लाभ होता है। भारतीय कृषकोंकी मूर्खताका इससे बढ़ कर और क्या प्रमाण होगा कि हड्डीके समान लाभकारी वस्तुको, जो कृषि और कृषकोंका प्राण है, कौड़ियोंके मोल विदेशी दलालोंके हाथ बेचे देते हैं। भारतवर्षसे सहस्रों, लाखों मन हड्डियाँ जहाजोंमें लद कर जाती हैं और इंग्लैण्ड, जर्मनी, For Private And Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृषि। Y 'फ्रांस और आस्ट्रेलिया इत्यादि देशोंको हराभरा और बलिष्ट बनाती हैं। समस्त यूरोप मांसाहारी है, अत एव वहाँ हड्डियोंकी बहुतायत तो है ही, तो भी अपनी भूमियोंको रत्न-प्रसू बनानेके लिये वे भारतसे हड्डियाँ मँगा रहे हैं । भारत संसारमें, खेतीके कामों में एक प्रतिष्ठित देश है, जिसे एक एक हड्डीकी आवश्यकता है । तो भी उसके यहाँसे प्रति वर्ष अधिकाधिक हड्डियाँ विदेशोंको जा रही हैं। यह बात मूर्खता पूर्ण और हमारी अज्ञानताकी द्योतक है । केवल एक वर्ष १९१०-१९११में १०२९१९५०) रु० की हड्डियाँ भारतसे विदेशोंको गई। लगभग ७० हजार टन हड्डियाँ प्रति वर्ष भारतसे बाहर जाती हैं । यदि भारतीय कृषक हड्डियोंको काममें लावें तो भारतमें दुर्भिक्ष क्यों पड़े ? थोड़ा ध्यान देने पर ही अल्प व्ययमें यहाँ हड्डियोंके पहाड़के पहाड़ लग सकते हैं । यूरोपके देशोंमें हड्डीकी खादका मूल्य ३० ) प्रति मन है । भारतीयोंको सोचना चाहिए कि विदेशी कृषक इतनी महँगी खाद अपने खेतोंमें डाल कर मनचाही उपज करते हैं। यदि भारत चाहे तो वही हड्डीकी खाद ५) रु. प्रति मनमें तैय्यार कर सकता है । हड्डियोंमें फासफरसका अंश बहुत होता है जो पौधोंकी बढ़िया खूराक है। - इसके अतिरिक्त विष्टाकी खाद भी ऊपर लिखित दोनों खादोंसे बहु मूल्य है । इसे Golden Mannure अर्थात् सुनहरी खाद भी कहते हैं। परन्तु इसके प्रयोगको लोग अपवित्र समझ कर इससे घृणा करते हैं। चीन और जापानके मनुष्य जिन्होंने खेतीमें अद्भुत उन्नति की है और जहाँकी कृषि-विद्याका प्रचार संसारमें प्रख्यात है, मानुषिक मल-मूत्रकी खाद बना कर अच्छी खेती करते हैं। वे मैलेको अपने हाथों उठाते और उसकी रक्षा करते हैं वे घर-घर मैला मोल लेने जाते हैं। जब उनको भारतके सम्बन्धमें For Private And Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८ भारतमें दुर्भिक्ष । मैलेसे घृणाका समाचार सुनाया जाता है तब वे बहुत आश्चर्य करते हैं। उनका यह दृढ़ विचार है कि भूमि उपजाऊ बनानेके लिये इस खादका प्रयोग सर्वोत्तम है। विदेशोंमें तो उसका मूल्य है,. पर भारतमें नगरों और कस्बोंका मल-मूत्र दूर तक खेतोंमें न पहुँचा कर नदियोंमें डाल दिया जाता है, जो उलटा हानि-प्रद होता है । ऐसा करना मानो लाखों रुपये पानीमें फेंक देना है । भारतके समान दीन देशका यदि एक रुपया भी खो जाय तो उसके लिये बड़ा ही दुखदायी है। ऐसी दशामें भारतका करोड़ों रुपया प्रति वर्ष खोना कितने आश्चर्य और दुःखकी बात है । लण्डनमें यद्यपि मैलेकी खाद बनाने का उत्तम प्रबन्ध है तथापि वहाँके कृषि-विज्ञोंने अनुमान किया है कि लण्डनके मैलेसे इतनी खाद तैय्यार हो सकती है जिसकी कीमत ३१ करोड़ ५० लाख रुपये हो सकती है । मैलेको खादका मूल्य प्रति मनुष्य पाँच रुपये वार्षिक रखा गया है । बेल्जियममें इसका मूल्य प्रति मनुष्य प्रति वर्ष १०) रखा गया है। भारतकी जन-संख्या ३२ करोड़ है। अत एव कमसे कम पांच रुपये प्रति वर्ष प्रति मनुष्यके हिसाबसे भार. तको एक अरब, साठ करोड़ रुपये वार्षिक हानि उठानी पड़ती है। भारतकी म्यूनिसिपेलटियाँ कठिनतासे एक करोड़ रुपया वार्षिक पैदा करती होंगी। भारतकी यह मैलेकी खाद ४५६२५००० एकड भूमिको उपजाऊ बनानेके लिये पर्याप्त है। खाद कई तरहकी होती है। यदि उन सबका हाल संक्षिप्तमें भी यह। लिखने बैठे तो कई पुष्ट रँगे जा सकते हैं, अत एव मुख्य तीन प्रकारकी खादोंका वर्णन ही यहाँ पर अलं होगा। मुख्य बात यह है. कि भारतीय कृषक अपने खेतोंमें खाद देना जानते ही नहीं । एक बार लेखकने एक गावके जमींदारसे पूछा कि क्या यहाँ खाद बनाई नहीं जाती ? उसने उत्तर दिया नहीं-तब मैंने पूछा,तो फिर खेतोंमें उपज For Private And Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृषि। अच्छी नहीं होती होगी ? उसने कहा--खादसे क्या होता है, रामजी दें तो हर बहाने दे सकते हैं। मैंने कहा यदि गड्ढा खोद कर उसमें क्रिया-पूर्वक खाद तैय्यार की जाय और उस पर छप्पर आदि बना कर उसकी रक्षा की जाय तो बहुत कुछ उपज हो सकती है। उसने कहा--- हमारे बापदादोंने ऐसा नहीं किया-इत्यादि । प्रत्येक गावमें हर प्रकारको खाद बना कर बेचनेवालों तथा कृषिसम्बन्धी अन्य वस्तुओंके बेचनेवालोंकी आवश्यकता है। साथ ही कुछ शिक्षित पुरुषोंको इस कार्य में अग्रसर होकर हमारे कृषकोंके पथ-प्रदर्शक या आदर्श बन कर चलनेकी आवश्यकता है । हमारे अँगरेजी पढ़े-लिखे लोग बी० ए० की डिग्री प्राप्त होते ही वकालतकी ओर अपनी नजर न दौड़ा कर अमेरिकन कृषकोंकी अँाति कृषिकी ओर अपना लक्ष्य करें तो भारतका बहुत कुछ उपकार हो सकता है। विदेशी लोगोंने केवल कृषिका ही आश्रय नहीं लिया ह, किन्तु व्यवसाय अधिक और कृषिको कम कर दिया है। यह। उसके विपरीत देखने में आता है। दूसरे देशोंको खानेको भारत दे देता है, फिर फिक किस बातकी ? उन्होंने व्यवसाय द्वारा बहुत धन संग्रह कर लिया है, अत एव वे जहाँसे मिल सकता है महँगेसे महँगा अन्न लेकर भी खा सकते हैं। भारत खुद भूखा रहता है और दूसरोंकी क्षधा शांत करता है, कैसे आश्चर्य की बात है !! हमारी गवर्नमेंट भी तो इधर ध्यान नहीं देती। भारत जो कुछ मर-खप कर पैदाकरता है वह बाहर चला जाता है। भारतके सैकड़ों मनुष्य प्रति दिन कालके गालमें भूखों मरते हुए पहुँच रहे हैं । इतने पर भी हमारी सरकारको हमारी सुधि नहीं ? यह बड़ा ही विचित्र स्वार्थ है । क्या हम उसकी प्रजा नहीं हैं ? क्या हमारे रक्षणका भार उसके सिर नहीं है ? क्या वह ये सारे गुलछर्रे भारतके पीछे नहीं उड़ा रही है ? For Private And Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५८ २४ भारतमे दुर्भिक्ष । वह रक्षक, जिसे शरणागतका ध्यान भी नहीं, रक्षक कहा जाय या भक्षक ! - हमारे देश में तो कृषिकी उपजके मानसे अधिक कृषकोंकी संख्या है । हम क्यों न भूखों मरें ? हमारे देशके मनुष्य दरिद्रतासे घबरा कर खेतीके सिवा अन्य कार्यको वैसे ही नहीं करते जैसे अँगरेजी पढ़े-लिखे भारतीय सिवा गुलामोके दूसरा काम नहीं देखते। हम नीचे एक नकशा देते हैं जिसमें यह दिखाया गया है कि अन्य देशोंमें प्रति शत कितने मनुष्य किन किन पेशोंके करने वाले हैंदेश, कृषि, शिल्प, व्यापार इंग्लैण्ड अमेरिका जर्मनी भारत इसके पूर्व ई०सनमें, कृषक फी-सदी। अमेरिका १७२० जर्मनी १५५२ इंग्लैण्ड १२४१ अन्य देशोंमें तो कुछ-न-कुछ घटे, किन्तु भारतमें १४ प्रति शत कृषक बढ़े। किसी समयमें उक्त देश भी, भारतसे अत्यंत दोन-हीन दशामें थे। परन्तु उन्होंने विद्या-बलसे आज अपनी उन्नति कर ली। भारतीय यदि सुधारकी ओर दृष्टि डालें तो कुछ कालमें ही देश धान्य और धनसे परिपूर्ण दिखाई देने लगे । अन्य देशोंमें कृषक कम और उपज अधिक है। केवल यही एक अभागा देश है, जहँ। मूर्ख कृषक अधिक और उपज कम है ! २८ देश, For Private And Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir aaaaamaamanamarrrrrrrrrrrrrrrrrrrrnmmmm कृषि । __मुख्य बात तो यह है कि हमारे भारतीय कृषक शिक्षित नहीं हैं और न वे शिक्षित बनाए जा सकते हैं। क्योंकि हमारी गवर्नमेंट शिक्षा-प्रचारके लिये इतना कम व्यय स्वीकार करती है जो नागरिकोंके लिये ही पर्याप्त नहीं है, फिर भला जंगलों और छोटे छोटे गाँवों में रहनेवाले कृषकोंके बालक कैसे शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं ? ये कुछ भी शिक्षा प्राप्त नहीं करते और अपने धन्धे में लग जाते हैं। यही कारण है कि देश में जितना अन्न पैदा किया जा सकता है, उतना नहीं होता । यह बात ठीक है कि देहातमें अधिक शिक्षा नहीं दी जा सकती, किंतु कमसे कम उन्हें इतनी शिक्षा भी तो मिलनी आवश्यक है कि लोग यह समझ सकें कि काले और सफेदमें क्या अंतर है ! बनियेसे हिसाब करते समय उसे समझा सकें और अपना हिसाबकिताब खुद समझ सकें.। मेरे कहनेका तात्पर्य यह नहीं है कि कृषकोंको बी० ए० या एम० ए० तक पढाया जावे। नहीं, उन्हें खेती करने और खाद बनानेके ढंग सिखाये जानेकी परम आवश्यकता है। कृषकोंके लिये कृषि-शिक्षा अनिवार्य हो तब ठीक होगा। कौनसा भूमि किस फसलके लायक है, एक फसल होने के बाद उस खेतमें और कौनसी वस्तुका बोज डालना चाहिए, खादके लिये क्या करना होगा, इत्यादि आवश्यक बातोंको बिना जाने वे कैसे उत्तम अवस्थाको प्राप्त हो सकते हैं ? इसमें सन्देह नहीं कि ( India is a continent of villages ) पर साथ ही हमें लोकमान्य महात्मा तिलकके निम्न वाक्य न भूल जाना चाहिए "हमारे गाँवोंकी क्या दशा है ?-गाँवोंमें पाठशालाओंका समुचित प्रबन्ध न होनेसे हमारे ग्राम निवासी अपन बच्चोंको नहीं पढ़ा सकते, इस लिये यह प्रबन्ध हमें स्वयं करना चाहिए।" ___ नये कृषकोंको नये नये औजारों द्वारा नवीन पद्धतिके अनुसार नई जिन्सों की खेती करना लिखलाना चाहिए । इस आवश्यकताकी For Private And Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२ भारतमें दुर्भिक्ष । पूर्तिक लिये भारत में प्रारम्भिक शिक्षा मुफ्त और अनिवार्य होने की नितान्त आवश्यकता है । श्रीमान् ग्वालियर नरेशने कृषकों के सुधारकी ओर ध्यान दिया है और सैकड़ों हजारों रुपये प्रति वर्ष व्यय करके कृषकों को कार्य-पद बनाने का प्रयत्न किया है 16 1 जमीदार हितकारीणी सभा " स्थापित करके उसकी ओरसे बहुतसे उपदेशक नियत किये हैं; जिनका गाँव गाँव जाकर जमीदारोंको उपदेश देना कर्तव्य कार्य है । परन्तु - इस विभागका काम बिलकुल ढीला है । मेरे विचार से इसमें निम्न लिखित दोष हैं । ( १ ) उपदेशक संस्कृत फाकनेवाले हैं, जो अपने मनके भाव कृषकों पर प्रकट नहीं कर सकते । ( २ ) उन्हें व्याख्यान देना नहीं आता । ( ३ ) उनके उपदेशों में वे ही साधारण बाते हैं जिन्हें मामूली कृषक भी जानते हैं । ( ४ ) कई नशेबाज हैं । ( ५ ) बहुतसे हेटकार्टरों पर पड़े आनन्द किया करते हैं । ( ६ ) कई. गाँवों में चक्कर मार कर अपने घर आ बैठते हैं । इसी प्रकार जमी - दार, तहसीलदार आदिकी खुशामद बरामद करके अपनी डायरी भरते रहते हैं । इन उपदेशकोंके उपदेशोंसे कृषकोंको या कृषिकी क्या उन्नति हुई, इसका पूछनेवाला कोई नहीं । कितनी जगह इन्होंने खाद बनानेको नूतन युक्तियाँ बता कर खाद तैय्यार कराई ? कितनी जगह खेती के औजारोंमें सुधार कराया ? कितनी ऊसर भूमि उर्वरा और उर्वरा अधिक उपजाऊ तैय्यार कराई ? पैदावार में इनके उपदेशोंसे कितनी वृद्धि हुई ? इत्यादि । इन सबका उत्तर " हरिका नाम " है । भला ऐसे कहीं कृषिके कार्यकी उन्नति हो सकती है । कदापि नहीं । महाराजका यह कार्य स्तुत्य अवश्य है । परन्तु जमीदारों को शिक्षित बनानेका मार्ग ठीक नहीं है । इसके रूपमें परिवर्तन और सुधारको अध्यन्त आवश्यकता है । For Private And Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लगान। anwvvvvv लगान। लुकेदार या जमींदारोंको कृषक कहना सर्वथव भूल है । ये " सरकार और कृषकके बीचके दलाल हैं। कृषकोंको जूते लगा कर-कष्ट देकर-लगान वसूल करना उनका काम है । खैरा राज्पके कृषकोंकी दुर्दशा हमारे भारतके सच्चे भक्त महात्मा गान्धीसे नहीं देखी गई, तब उन्होंने सत्याग्रह द्वारा कृषकोंको विजय प्राप्त कराई । विहार प्रान्तके चम्पारन जिलेकी भी यही दशा है । वहाँ भी निलहे गोरोंके अत्याचारसे उन्नीस लाख प्रजा, हर हालतमें तंग थी । यहाँ तक कि केवल इन्हीं अत्याचारोंके कारण उसे लोग भारतवर्षका फिजी कहने लगे थे । परमात्माकी कृपासे वहा भी अब किसी प्रकार महात्मा गान्धीकी सतत चेष्टाके कारण शान्ति स्थापित हो गई है । और भी अनेक प्रत्यक्ष उदाहरणोंसे आप विचार कर सकते हैं कि देशके कृषकोंकी कैसी दुर्गति है । खैरा राज्य ही क्या, यदि महात्मा गान्धी प्रत्येक राज्यके कृषकोंकी दशा पर ध्यान दें तो वह अति विचारणीय मिलेगी। इधर कर्मवीर महात्मा गांधी हमारे भारतीय कृषक समुदाय पर अत्याचार देख कर दुखी हो उनकी इस अवनति पर आँसू बहाते हैं, तो दूसरी ओर बन्धुघाती जमीदारों और ताल्लुकेदारोंने कृषकोंको उजाड़ देना ही निश्चय किया है । बेचारे असहाय, निर्बल कृषकोंकी पसीने की कमाई पर ये दलाल और भारत सरकार आनन्द कर रही है। ये गरीब लोग जो कुछ पैदा करते हैं, दूसरोंके सपुर्द कर अपनी मृत्युके स्वप्न देखा करते हैं। हम कहाँ तक इनकी दुर्दशा लिखें--इन बैंचारों के लिये केवल पाँच रुपयेका लिया हुआ ऋण भी एक वर्ष में चुका देना कठिन है । इतने में उसकी दुगुनी संख्या व्याज महाराज कर For Private And Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४ भारतमें दुर्भिक्ष । देते हैं । बेचारोंके घरमें खानेको अन्न नहीं, पहिननेको वस्त्र नहीं, इनकी दुर्दशाका वर्णन करते हृदय विदीर्ण होता है। ____ हमारे देशमें कृषकोंसे मालगुजारी किस कड़ाईसे वसूल की "जाती है-जैसे भेड़ बकरीके शरीर परसे कसाई खाल उचेल लिया करते हैं। यहाँके प्रायः सबके सब जमींदार 'शायलाक'के बाबा हैं। किसान बेचारे 'एण्टोनियों के पौत्रसे भी नम्र और ईमानदार हैं। जमीनकी मालगुजारीके आतिरिक्त और भी कितने ही प्रकारके लगान उनसे वसूल किये जाते हैं जिसका कुछ हिसाब नहीं। वे गिननीमें कमसे कम ५० भैौतिके होंगे। इनके हकदार राजके तहसीलदार, पटवारी और चपरासी होते हैं। जिस कृषकको सत्यनारायण भगवानकी पूजाके लिये आठ आने पैसे मुश्किलसे मिलते हैं; उससे ये विधातागण जुर्माने (!) के रूपमें पाँच पाँच रुपये तक वसूल कर लेते हैं । और जुर्म भी यही कि तुमने बाबू साहबकी तोंद बढ़ानेके लिये दो सेर दूध अथवा दही और एक चर्बीदार बकरा नहीं भेजा ! उन्होंने बाइसिकळ या हार्मोनियम बाजा खरीदा, उसमें तुमने कुछ भी चन्दा नहीं दिया इत्यादि ! इस विषयमें Bishop Heber ( विशाप हेबर ) साहब कहते हैं कि:--- ___ " भारतमें टैक्स ( लगान ) इतना लिया जाता है कि लोग अपनी उन्नति नहीं कर सकते। जब उपज अच्छी होती है तब भी यहाँके लोगोंके पास कर देनेके उपरान्त बहुत कम धन बचता है; और उपज हुई तो--यद्यपि सरकार दुर्भिक्षके समय लोगोंकी सहायताके लिये सैकड़ों रुपये व्यय कर देती है फिर भी न जाने कितनी स्त्रिया, पुरुष और बच्चे गलियोंमें भूखे मरते ही रहते हैं। इस विषयमें मैंने जिन जिन लोगोंसे एकान्तमें बातें की हैं, वे सबके सब एक स्वरसे यही कहते हैं कि ये सब फसाद यहाँके लगानोंके For Private And Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लगान । ४५ अधिक होनेसे हैं और इन्हीं कारणोंसे देश दिन दिन दरिद्री होता जा रहा है । " दूसरे स्थान में सर थियोडर होप साहबका कहना है कि: ८८ To our revenue system must in candour be as cribed a large part of the indebtedness of the ryot." अर्थात्- -" लगानकी ज्यादतीके सबसे हो रैयत कर्ज के बोझ से दबी जा रही है । " वास्तव में यह बात यथार्थ है । गरीवीकी आँच और लगानके कोड़े से कृषक बिलकुल तंग आ गये हैं। फिर भी सरकार के पक्षपाती इस बातको कैसे कुबूल करेंगे ? वे तो अपने खरीते में लिखेंगे "Our assesment is not a source of poverty or indebtedness in India-it cannot be fairly regarded as a contributory cause of famine." < अर्थात्- हमारा लगान भारतकी दरिद्रता या ऋणका कारण नहीं है। भारतीय दुर्भिक्षके कारणों में से यह एक कारण नहीं समझा जा सकता । " सुना है, इसके अलावा भी वे कहते हैं कि प्राचीन कालमें राजा लोग भूमि पर आजकलसे कुछ अधिक ही लगान लेते थे, और बात भी सत्य है। किंतु मालूम नहीं सरकार इसका क्या उत्तर देतो है कि वह और नीतियों में प्राचीन राजाओंका अनुकरण क्यों नहीं करती ? बस, लगान प्राप्त करनेको भारतीय प्राचीन राजाओंके अनुयायी बन गये । क्या यही न्याय कहाता है ? वे कहते हैं, टैक्स नाम मात्रका है। ठीक, किंतु जरा और देशोंके टैक्ससे मीलान तो कर देखिए । For Private And Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८1) " २)" ४६ भारतमें दुर्भिक्ष। "जिस खेतकी सौ रुपये वार्षिक आय है उसका लगान यों देना पड़ता है:देशका नाम, लगान रुपये। इंग्लैण्ड इटाली जर्मनी बेल्जियम २॥ , हॉलैण्ड भारतवर्ष १५ से २०),, तक। कठिनता तो यह है कि इस दरिद्रावस्थामें भी अन्य कई देशोंको अपेक्षा भारत पर टैक्स पाँच पाँच छः छः गुना अधिक है। सो भी ठीक वक्त पर दाखिल हो जाना चाहिए। चाहे तुम्हारी फसल हो या न हो। लगान देने में देर हुई कि जमीन नीलाम की गई। परिणाम यह होता है कि हमें महाजनोंकी शरण लेनी पड़ती है। वे सूदमें कमाल हासिल करते हैं । मूल धन १) रु० है तो दूसरे वर्ष उसीके तीन हो जाते हैं । कृषकोंको रुपया देते ही महाजनको नीयत बद हो जाती है। वे पहले दो चार साल तक तो कड़े सूद पर रुपया लगाते जाते हैं, और अन्तमें जब इच्छा होती है तब रुपयोंकी नालिश कर जमीन जायदाद अपने अधिकारमें कर लेते हैं। अदालत भी आँखें मूद कर एक रुपयेके सूद सहित ५) रु०की डिग्री दे ही देती हैं। __ महाजनों या साहूकारोंके यहाँसे कृषकों को बहुत कड़े सूद पर रुपया मिलता है, जिसकी वजहसे भी वे तबाह-हाल रहते हैं। अत एवं जहाँ तहाँ देहाती बेंक-सहयोग समितियाँ (Co-opera For Private And Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लगान। tive Societies ) स्थापित होना परमावश्यक है, जिनके द्वारा काश्तकारोंको अल्प व्याज पर यथेच्छ रुपया मिल सके। हमारे माननीय सम्राट् महोदय पंचम जार्जने एक बार अपने श्रीमुखसे कहा है किः___ " यदि इस देशमें सहकारिताकी प्रथा प्रचलित की जाए और उसका पूरा उपयोग किया जाए तो मुझे इस देशके कृषि-सम्बन्धी कार्यों में एक विशाल सुन्दर भविष्य दिखाई देता है।" जर्मनी, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, इंग्लैण्ड आदि देशोंकी स्थिति हमारे देशसे भी अत्यंत खराब थी, किंतु देहाती बैंकों तथा सहयोगसमितियों द्वारा उन्होंने अपूर्व उन्नति प्राप्त कर ली । हमारे भारतमें सबसे पहले सर विलियम वैडर्बनने सहकारिताका प्रस्ताव किया, परन्तु इसका प्रभाव सन् १८१५ ई० तक कुछ न हुआ। पर सन् १८९५ ई० में मद्रास प्रान्तीय सरकारने फ्रेडरिक निकोलसन नामक महाशयको यूरोप में इस लिये भ्रमण करनेकी आज्ञा और सहायता दी कि वे देखें कि सहकारिताके कौन कौनसे प्रकार यहाँ भारतमें प्रचलित हो सकते हैं । इनके भ्रमण परिश्रमका फल दो विशाल खंडोंमें संकलित है, उनका नाम Land Banks for the Madras Residency मद्रास प्रान्तके वास्ते जमीन सम्बन्धी बैंक। इधर संयुक्त प्रान्तमें चिरस्मरणीय छोटे लाट टॉमसन साहबने ड्युपर्ने महाशयसे इस ओर विचार तथा परिश्रम करनेका अनुरोध किया । तदनुसार ड्यूपर्ने ने Peoples Ban k for N.1. उत्तर हिन्दुस्थानके लिये जनताके बैंक नाम्नी पुस्तक लिख कर सहकारिताका प्रसार किया । इस समय तक यह कार्य जनता और प्रान्तीय सरकारका हो रहा । भारत सरकारका विशेष ध्यान इस ओर न गया । पर सन् १९०१ में हिंदुस्थानके उपकारक लार्ड कर्जनन For Private And Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८ भारतमें दुर्भिक्ष ।। एक कमेटी सर एडवर्ड लॅॉके आधिपत्यमें नियुक्त की और सन् १९०४ ई० में सहकारिताका पहला एक्ट पास हुआ। इससे कम्पनीएक्टके त्राससे सहयोग-संस्थाएँ बची और इन संस्थाओंके स्थापनमें अधिक सुधार और उन्नति हुई । सरकारने दया कर अब इस असुविधाको दूर करना प्रारंभ किया है। जगह जगह पर सहयोग-समितिया (Co-operative Credit Societies ) स्थापित हो रही हैं । किसानोंको नाम मात्रके सूद पर रुपया दिया जा रहा है । इनकी उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है । इस समय भारतवर्ष में १२००० से अधिक देहाती बैंक, स्थापित हैं । जिनके ६ लाख मेम्बर और ५॥ करोड़ीकी पूँजी है ।। अस्तु । । अब प्रश्न उठता है कि लगान कम कैसे हो ? इसका एक मात्र उत्तर है कि दवामी बन्दोवस्त-स्थायी प्रबन्ध ( Permanent Settlement ) से । इस बन्दोबस्तसे इस समय बहुत लाभ हो सकता है। अँगरेजोंके शासनके समय शुरू शुरू में जमीनके लगानका निर्ख निश्चित कर दिया जाता था । इस तरह अनेक बुराइया पैदा होती थीं । यह देख कर पहले पहले लार्ड कार्नवालिसने बंगाल अहातेका दवामी बन्दोवस्त कर दिया । जो मालगुजारी सन् १७९३ ई० में वहाँके लिये ठोक कर दी गई थी, वही आज तक दी. जाती है। इस कामसे सरकारकी आमदनी कम अवश्य हो गई, किंतु राजनैतिक दृष्टिसे उसे बड़ा भारी लाभ हुआ । देखिए हॉर्नेल साहब इस विषयमें क्या कहते हैं: “While the natives of the soil gained the permanent settlement as it is called, the Bri For Private And Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लगान। tish have in the end lost much revenue. + + + But if there has been a loss in money there has been an incalculable gain politically. The foundation of all Government settlement of Bengal has bound the people in loyal devotion to the British Government." ___ अर्थात्-“देशी कृषकोंके लिए दवामी बन्दोबस्त हो जाने पर ब्रिटिश गवर्नमेंटको अन्तमें लगानका बड़ा नुकसान हुआ। लेकिन यदि रुपयोंकी हानि हुई तो राजनैतिक लाभ अपरिमित हुआ। सरकारकी सारी नींव प्रजाकी इच्छा पर निर्भर होती है और बंगालके स्थायी बन्दोबस्तसे बंगाली ब्रिटिश सरकारकी राजभक्ति में बँध गये।" इसमें विशेष बात यही है कि राज्यशासनकी नींव प्रजाकी प्रसनता पर अवलंबित है, और बंगालके दवामी बन्दोबस्तके कारण वहाँको प्रजा सरकारकी भक्त बन गई है। यह लाभ कुछ कम नहीं है। पुस्तकके उत्तरार्द्ध भागमें पुराने अकालोंकी कथा पढ़नेसे मालूम होगा कि बहुतसे अकाल तो केवल लगान वसूल करनेसे पड़े। राजा-प्रजा दोनोंके हितके विचारसे यह अत्यावश्यक है कि लगान कम कर दिया जाय । कितना कम किया जाना उचित है, इस विषयमें मि० ओकानरकी शिफारिश है कि “ लगान अभी कमसे कम २५ फी सैंकड़े के हिसाबसे अवश्य ही कम हो जाना चाहिए।" विदित नहीं होता कि सरकारको प्रजाके दुःख दूर करने में इतनी आना-कानी क्यों होती है ! यहाँके देशभक्त नेताओंने सारे देशके लिये स्थायी प्रबन्ध करनेकी कई बार प्रार्थना की, पर सब निष्फल हुई। सन् १८८३ ई० में तो उसने ऐसा करनेसे साफ ही इन्कार कर दिया था। किंतु अब इन्कार करनेसे काम नहीं चलेगा। जब तक सरकार For Private And Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५० भारतमें दुर्भिक्ष । लगान कम न करेगी, हम लोगोंका उद्धार होना असंभव है-भारतसे दुर्भिक्षोंका दूर होना असंभव है। तुम दया करके ही कुछ सहायता करो जिसमें लोग यह कहनेसे भी बाज आवें किः “The condition of agriculture labourers in India is a disgrace to any country calling itself civilized. अर्थात्-भारतीय कृषक मजदूरोंकी दशा, किसी देशके लिये जो अपनेको सभ्य कहता हो, लज्जाकी बात है " For Private And Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir AAAAAANI दरिद्रता। दरिद्रता। 'रिद्रताको भी हम पहले दुर्भिक्षका एक कारण लिख आये हैं। १देखिए दरिद्रता क्या कर सकती है। उदाहरणार्थ, एक दरिद्र काश्तकारकी दशा पर जरा ध्यान दीजिए-घरमें बैल नहीं, बोनेको अन्न नहीं । फसलके तैयार होने पर निंदाईके लिये मजदूरोंके देनेको पैसे नहीं । कहींसे भाड़े पर बैल लाकर जल्दी जल्दी जैसा जुत सका, खेत जोत डाला । कहींसे ऋण लेकर बीज बखेर दिया । वर्षा अधिक होनेके कारण वह बीज पानीमें बह गया या गल गया तो फिर कहींसे हाथ-पैर जोड़ कर जैसा बुरा भला बीज मिला लाकर खेतमें बो दिया। जब खेतमें १०।१२ इंच उँचे पौधे हुए तो महाजनके यहाँसे ४) रु० निंदाईके लिये ले आये । उस महाजनने एक रुपयेके १५ सेरके भावसे ६० सेर अन्नकी चिट्ठी लिखा ली, टिकट लगा कर उस पर उसके अँगूठेकी छाप लगवाली और दो मनुष्योंके गवाहीके स्थान पर हस्ताक्षर करा लिये । उस कृषककी फसल पक कर जब कुछ अन्न हाथ-पल्ले पड़ा तो सबसे पहले महाजनको, रुपयेका ग्यारह सेरका भाव होने पर भो पन्द्रह सेरके हिसाबसे ही देना पड़ा। इस प्रकार वह ४) रु० में ५/०) का अन्न दे आया। खेतकी जुताई, बीज तथा निंदाई अच्छी न होनेके कारण उपज भी कम हुई। कुछ महाजनने तौलमें भी अधिक लेकर अपनी नीचता प्रदर्शित की। अन्तमें उस बेचारके हाथमें केवल इतना अन्न रह गया कि एक आदमी भले प्रकार तीन महीने भी उससे पेट नहीं भर सकता ! लगान इत्यादिका तकाज़ा सिर पर सवार है । अब जरा सोचिए, वह दरिद्र कृषक कब तक मौतसे बच सकता है ? एक न For Private And Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष। एक दिन वह भूखसे छटपटा कर अपने प्राण छोड़ देगा और उसके शवको गीदड़, कौवे आदि मांस-भोजी जीव खा डालेंगे! भारतीय दरिद्रताका सवाल सार्वभौम दृष्टिसे भी हल किया जा सकता है। आप ही सोचिए कि यदि आप किसी समय रात्रिमें अपने सुसज्जित उत्तम भवनमें लिहाफ ओढ़ कर आरामसे सोते हों और उसी निशीथ रजनीकी प्राकृतिक शान्तिकी मधुरिमाको भंग करनेवाली क्रन्दनध्वनि जो किसी एक तीन दिनके भूखे,जाडेसे काँपते हुए मनुष्यकी उजाड़ झोंपड़ीसे निकलती हो, और उसे आप सुने तो क्या वह आपसे सुनी जायगी? या तो उसे आप उस स्थानसे हटा देंगे, अथवा कुछ सहायता कर उसकी जीवन-रक्षा करेंगे, ताकि फिर ऐसी कारुणिक. आवाज आपके कण-गोचर न हो । सड़को पर चलते समय भिखमंगे आपको दिक करें-, जैसे आजकल तीर्थों पर पण्डे किया करते हैंतो आपको यह भला मालूम होगा? या वे शान्ति-पूर्वक कोई रोजगार कर अपना जीवन निर्वाह करें सो भला मालूम होगा? आप यदि अपनी हैसियतमें कहींके सम्राट ही क्यों न हों, तथापि बहुत संभव है कि आपको पिछली बात बहुत ही अच्छी और उचित अँचेगी। बात भी सत्य है, गरीबी-अमीरीका प्रश्न एक ऐसा पेचीदा है, जिसके हल हुए बिना पूरी शान्ति स्थापित करना हर एक शासनप्रणालीकी सीमाके. बाहरकी बात है। पुलिस रख कर ही कोई शान्ति रक्षा कर सकेगा, यह कोई बात नहीं । जबरदस्ती आप किसीको काननका पाबंद तभी कर सकते हैं जब तक कि उसमें उस बंधनसे छुट जानेकी शक्ति नहीं आई हो । ज्यों ही उसमें आपसे बढ़कर शक्ति पैदा हो जायगी त्यों ही वह तुरन्त आपके फेरेसे निकल कर आपहीको धर दबावेगा । अत एव यह परमावश्यक है कि हम दूसरे की, निर्दयतासे उसकी स्वाधीनता छीन कर उसे अपने मातहत न बनावें ।इस प्रसंगमें यह अँगरेजी कविता उद्धृत करना अनावश्यक न होगाः For Private And Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दरिदता। ** Where half the Power that fills the world with terror, Where half the wealth that spent on camp and court Given to redeem the human mind from error There were no need of arsenals nor forts." अर्थात्-" यदि उससे आधी शक्ति जिससे कि संसार कंपित किया जाता है, यदि उससे आधी संपत्ति जो अदालतों और दौरोंमें • व्यय होती है मनुष्य मात्रकी भूल सुधारनेके उपयोगमें लाई जाती तो शस्त्रशालाओं और किलोंकी कोई आवश्यकता न पड़ती!" सुशासनमें वर्तमान कालके जैसी पुलिस-नियोजनाकी मैं आवश्यकता नहीं समझता । ज्यों ज्यों प्रजावर्गमें विद्याके प्रभावसे समझदारोंकी संख्या बढ़ेगी त्यों त्यों अत्याचार या अशान्तिकी मात्रा कम होती जायगी। पर विचारने की बात है कि हम दरिद्रताके चंगुलमें फंसे रह कर या भूखों मरते कानूनकी रक्षा कहाँ तक कर सकते है ? कहावत भी है “वुभुक्षितः किं न करोति पापं " अर्थात्-मरता क्या न करता । हममें केवल अन्नका ही तो दुर्भिक्ष नहीं है जिसे निवारण कर लें । शिक्षा-सम्बन्धी बातोंका भी तो यह। अकाल है। इसमें इतना नैतिक या धार्मिक बल नहीं कि लोग भूखों मर जायँ तो मर जायँ पर जीव-हत्या न करें । यदि दो चारमें उक्त बल हो तो भी तो उनकी आत्महत्या अनिवार्य है। फिर हम कैसे मान सकते हैं कि बिना दरिद्रता दूर किये, कहीं स्थायी शान्ति स्थापित हो सकती है। दरिद्रताके कारण हम अनेक प्रकारके अत्याचार कर सकते हैं और आज कर भी रहे हैं और न जान कब तक करते रहेंगे। हमारे देशके सब निंद्य कार्यों और अत्याचारोंका मूल कारण दरिद्रता है। For Private And Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५४ भारतमें दुर्भिक्ष | The crying need of the humanity is not for better morals, cheaper bread, temperance.. liberty culture, redemption of fallen sisters and erring brothers, nor the grace love fellowship, of the Trinity (त्रिमूर्ति ) but simply for enough money. And the evil to be attacked is not sin, suffering, greed, priestcraft, kingcraft, demagogy, monopoly, ignorance, drink war, pestilence nor any other of the scapegoats which reformers sacrifice, but simply poverty.'"" - Bernard Shane. "" www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मि० बर्नर्डशा कहते हैं-" मनुष्यताकी सबसे बड़ी आवश्यकता, 'न तो श्रेष्ठ आचरण, सस्ता भोजन, संयम, स्वाधीनता, शिक्षा ( Culture ), पतित बहिनों तथा भूले हुए भाइयों का सुधार है और न त्रिमूर्तिका प्रेम, सहानुभूति और अनुकम्पा ही है; किन्तु पर्याप्त धन है । और जिस बुराई पर हमें आक्रमण करना चाहिए वह न पाप, न लालच, न पोपजाल, न राजनीति, न गुरुघण्टालपन, न विक्रयका अधिकार, न मूर्खता, न मद्यपान, न युद्ध, न मरी और न भेंटका बकरा है जिसे सुधारक बलिदान करते हैं, किंतु वह आवश्यकता एक मात्र दरिद्रता ही है । " हम लोग इस समय तक ऐसे अनुशासन के अन्दर है, जो आज संसारको उच्च कोटिकी सभ्यताके सामने दो पुश्तका पुराना माना जाने लगा है। जिसके विषय में Ibid ( एविड साहब ) का कथन है कि ८८ The excessive costiliness of the foreign agency, is not however, its only evil. There is For Private And Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दरिद्रता। a moral evil which, if any thing is even greater a kind of dwarfing or stunting of the Indian race is going on under the present system, we must live all the days of our life in an atmosphere of infiorrity and the tallest of us must bend in order that the agencies of the existing system may be satisfied."" अर्थात्-" सिर्फ राज्य प्रबन्ध पर अत्यन्त व्यय ही इसकी बुराई नही है । नैतिक बुराई यदि कोई वस्तु है तो उससे भी अधिक है, जो हिन्दू जातिकी वृद्धि में बाधक है । जिसके कारण हमको अपना सारा जीवन अपने आपको दीन हीन समझते हुए बिताना पड़ता है । और हममें जो सबसे ऊँचे हैं उन्हें भी वर्तमान प्रणालीको संतुष्ट करने के लिये झुकना ही पड़ता है।" इसके लिये आजकलका प्रचलित शब्द एक और है.---" राजसत्ता'' अर्थात् ( Bureaucracy ) इससे एक दर्जे उन्नत शासनको राजनीति-विशारद प्रजातन्त्र ( Democracy) के नामसे पुकारते हैं । यही शासनप्रणाली अभी संसारके अधिकांश भागमें स्थापित हो रही है, जिसके विषयमें एबिड महोदय लिखते हैं: " Democracy is a spirit-a mental attitude-- which can be held by every man and every woman in the country. And upon its acceptance, national prosperity in the future will depend. It is not a subversive force-it is not a Clustering loud voiced policy-it is a force which must ensure law and order; for under the truly democratic rule everybody has a voice in the Government of the Country in For Private And Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५६ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत में दुर्भिक्ष | which he lives. Upon its welfare his own welbeing depends and so the soundness of the democratic principle is self-evident." अर्थात् - "प्रजातंत्र एक प्रकारका भाव ( साहस ) अथवा मानसिक विचार है, जो देशका प्रत्येक स्त्री-पुरुष रख सकता है और जिसकी स्वीकृति पर जातीय उन्नति अवलम्बित है । यह न तो दमनशक्तिही और न बकवादी नीति ही है; किन्तु यह एक ऐसी शक्ति है जिससे शासन और शान्ति स्थापित रह सके । क्योंकि सच्चे प्रजातंत्र राज्य में प्रत्येक मनुष्यको अपने देशके शासन में अधिकार होता है, और देशकी भलाई पर उसकी निजी भलाई निर्भर होती हैं, और इस भाँति प्रजातंत्र शासन के नियमकी दृढ़ता स्वयं सिद्ध है ।" बीसवीं शताब्दीका पंच वर्षीय महाभारत पहली नादिरशाहीका शमन कर संसारको स्वाधीनता प्रदान करने के इरादे से, सर्वत्र प्रजातन्त्र स्थापित करनेके लिये हुआ था । इसी बीच राजनीति महोदधिमें स्वाधीनताका एक भारी तूफान उठ खड़ा हुआ, जिसके झोंके में कितनी राष्ट्र नौकाओंका संहार होगा, उसका कुछ ठिकाना नहीं । यह संसार में एक नये प्रकारका परिवर्तन है जिसे हम सुनने के साथ ही, शायद असंभव कह बैठें। खुलासा यह है कि रूस, जर्मनी, हालैंड, आदि अनेक देशों में एक ऐसे लोगों का दल खड़ा हो गया है जो अपनेको Socialist ( साम्यवादी ) नामसे अभिहित करता है । यह दल भूमण्डलके कोने कोने में उदार शासन या पूर्ण प्रजातन्त्र स्थापित कराना चाहता है । उसका प्रधान उद्देश्य दरिद्र और धनीको समान बना देना है, क्योंकि वह समझता है कि पृथ्वी पर स्थायी शान्ति ( Eternal peace ) स्थापित करने के लिये समाजमें सबका समान हकदार होना अत्यावश्यक है । यह इस लिये भी कि सारी बुराइयोंके तीन ही प्रधान कारण हैं । जर, जमीन और For Private And Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दरिद्रता। जन । रूसमें इस दलवालोंने काम करना भी आरंभ कर दिया है। जर्मनीकी भी वही दशा है । वहाके कितने ही सेठ-साहूकार अपने माल-जायदाद, कल-कारखाने जमीन-जोतसे बेदखल कर दिये गये हैं। यहाँ तक कि उन्होंने राजवंश तकका नाश कर डाला है । हवाका रुख देख कर क्या हम इस बातका पता नहीं लगा सकते हैं कि स्वतंत्रताकी यह लहर उठ कर वहीं तक न रहेगी, बल्कि आगे भी बढ़ सकती ह, और अवश्य बढ़ेगी। अब आप दरिद्र भारतका ध्यान कीजिए कि वह कहाँ तक इन बातोंकी समता करनेमें समर्थ है। हम क्या लिखें ? जहाँ संसार सोशलिष्टोंका स्वागत करनेको तैय्यार है, जहाँ इंग्लैण्डके प्रधान मंत्री मि० लॉयड जार्ज तक कुछ दिन पूर्व ही “ Universal old age Pension " 3477" Legal Maximum wage ” geara पेश कर जीविका (living ) के सवालको हल करना चाहते थे।( जिस पर लोगोंने असंतुष्ट हो कर कहा था कि "Universal Pension for life '' कराये बिना काम न चलेगा-यह दरि. द्रता समूल नष्ट न हो सकेगी) शोक है कि वे सब बातें आज भी भारतके लिये स्वप्नवत् हो रही हैं। भारतकी दरिद्रता दूर करनेके लिये एक मात्र उपाय " स्वराज्य " है।। __ आज हम न तो अधिक प्रजातन्त्र ही चाहते हैं; न एक बार ही मालामाल हो जाने की इच्छा रखते हैं। प्रार्थना केवल इतनी ही है कि हमारी इतनी चढ़ी-बढ़ी दरिद्रता दूर कीजिए, ताकि हम दुर्भिक्षोंका सामना करनेसे सदाके लिये बच जावें । क्योंकिः "Money is the counter that enables life to be distributed socially, it is life as truly as sovereigns and Bank notes are money." ---Bernard Shaw. For Private And Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५८ www.kobatirth.org भारत में दुर्भिक्ष । वैश्य समाज | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हमारे शास्त्रकारों ने चारों वर्णों के कर्मों का पृथक् पृथक् वर्णन कर हुए वैश्यों के लिये: " कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् " बतलाया है । मनुजीने लिखा है:-- " पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च । वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च । अर्थात्- -- उस परमात्माने पशुओंकी रक्षा, दान देना, यज्ञ करना पढ़ना, व्यापार, व्याज और खेती ये कर्म वैश्यके लिये बनाये । " किन्तु वर्तमान समय में हमारे वैश्य समाजकी बहुत ही दुर्दशा है । पशु पालन, व्यापार और कृषि ये लोग कैसी करते हैं यह सब पर प्रकट है । हैं। शास्त्राज्ञाके विरुद्ध इनका प्रत्येक कार्य निस्सन्देह होता है । अपने देशकी दशाका इन्हें तनिक भी ध्यान नहीं I 66 तुम मर रहे हो तो मरो, तुमसे हमें क्या काम है ? हमको किसीकी क्या पड़ी है, नाम है धन-धाम है 1 तुम कौन हो जिनके लिये हमको यहाँ अवकाश हो, सुख भोगते हैं हम, हमें क्या जो किसीका नाश हो ? - भारतभारती । ये किसीके भले बुरे की तनिक भी पर्वाह न करके, “भज कलदारं भज कलदारं कलदारं भज मूढमते " का पाठ अहर्निश किया करते हैं। थोड़े से लाभ के लिये अपना, अपने समाजका और अपने देशका भविष्य बिगाड़ रहे हैं । उनका व्यापार विचित्र है - इस व्यापार से For Private And Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वैश्य-समाज। ५९ भारतको हानि और अन्य देशोंको लाभ है। मूर्खता-वश वे अपने भले बुरेको भी नहीं पहचान सकते । बलिहारी ऐसे व्यापारियोंके व्यापारकी जो दूसरे देशोंको धन-धान्यसे पूरित कर स्वदेश भारतको विना अन्न प्राणहीन कर डाले ! हमारा वैश्य-समाज थोड़ेसे लाभ पर, अपने देशका सारा अन्न विदेशियोंके हाथ बेच कर अपने भारतीय बन्धुओंकी, अगणित भूख-प्याससे मरते हुओंको, हत्याका भार अपने सिर पर ले रहा है। हम स्वीकार करते हैं कि यह भी व्यापार ह, किंतु देश और कालका ध्यान रख कर व्यापार करना ही सच्चा व्यापार कहाता है । यदि आपके पास भोजनको ४ रोटिया हैं, और भूख इतनी है कि इतनी रोटियोंसे उसका शांत होना कठिन है। इसी बीचमें यदि कोई आकर आपको द्विगुण मूल्य देकर वे रोटियाँ लेना चाहे और आप दे दें तो निस्सन्देह आपको भूखों मरना पड़ेगा । इसी ति यदि भूखे भारतका अन्न आप दूसरोंको अल्प लाभ पर देते रहेंगे तो भारतकी क्या दशा होगी, इसे आप ही विचार लीजिए ! ऐसी हालतमें वह अन्य देशोंसे अधिक मूल्य देकर भी अपना उदर नहीं भर सकता । अन्य देशोंके पास असंख्य धन है । वहाके लोग साहसी उद्यमी और स्वतंत्र-जीवी हैं। भला यह बेचारा दरिद्र, असहाय, परतंत्र दीन भारत उनकी समानता कैसे कर सकता है ? समय पड़ने पर विदेशीय लोग रुपयेका एक छटाँक अन्न खरीद कर भी “ दुर्भिक्ष है " ऐसा कदापि न कहेंगे! पर यह। तो दशा ही कुछ और है । वर्तमान समयमें लोग जिस विपत्तिका सामना कर रहे हैं, वह आँखोंके आगे हैं । सहस्रों भारतीय भाइयोंके प्राण अन्नके एक एक दानेके लिये तरसते तरसते नित्य शरीरसे कूच कर रहे हैं ! शिव शिव !! कैसा भयङ्कर समय उपस्थित है। For Private And Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष। संवत् १९५६ में रुपयेका छः सेर अन्न मिलता था । तिस पर भी लोगोंकी लाशें सड़कों पर यों ही पड़ी हुई दिखाई पड़ती थीं। वे इतनी अधिक थीं कि उन्हें श्वान, गृद्धादि मांस-भोजी जन्तु भी नहीं खाते थे । परन्तु आज वह समय है कि रुपये का ६ सेर अन्न "मिलना सुभिक्ष समझा जाने लगा। लोगोंको धीरे धीरे दुर्भिक्षका अभ्यास सा पड़ गया । इतना होने पर भी यदि हम लोग इसी भांति गफलतमें रहे तो एक वह भयङ्कर दिन आने वाला है कि बिना अन्नके हम लोग छटपटा कर ठंडे हो जायँगे और सदा सर्वदाके लिये ऋषियोंके पावन वंशके वंश इस दुर्भिक्षक महोदरमें समा जायँगे । यहाँ अन्नका ही नहीं, बल्कि प्रत्येक वस्तुका दुर्भिक्ष हैघोरतर दुर्भिक्ष है । प्यारे वैश्य भाइयो ! जरा अपने निर्धन देशकी दशा पर दो आँसू डालो । देखो तो क्या हो रहा है, तुम्हारा प्यारा देश भारतवर्ष क्यों रो रहा है ? " टका धर्म टका कर्म टका हि परमं पदं” को छोड़ दो। इस समय भारतवर्षको तुमसे भारी सहायताकी आशा है। अपने या अपनी आल-औलादके लिये केवल पैसे ही संग्रह करके न छोड़ जाओ, बल्कि थोड़ा सा वह काम भी कर जाओ जिससे तुम्हारी भात्री सन्तानें बिना अन्नके अपने प्राण न छोड़ें । इस भूखे भारतके मुखका ग्रास इसके मुखमें हो जाने दो, इससे छीन कर अन्य देशोंके सपुर्द न करो। वैश्यों का एक कर्म व्यापार है अवश्य, किन्तु उन्हें व्यापार करना नहीं आता । उसका सम्यग्ज्ञान तो दूर रहा, किंतु जरा भी ज्ञान नहीं है । यदि वैश्य समाज व्यापारके रहस्यों अथवा माँको जानता तो देशकी ऐसी दुर्दशा अपने हाथों कदापि नहीं करता । यदि व्यापार करनेका थोड़ा भी उसे शऊर होता तो देशको आज दुर्भिक्ष-दानवके फेरमें कदापि न आना पड़ता । विदेशी लोग हमें हमारे जूतेसे ही For Private And Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org A Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वैश्य समाज | ६१ I पीट रहे हैं । हमारी आँखों में सरासर धूल झोंक रहे हैं । " मियाँ की जूती मियाँ के सिर " वाली कहावत चरितार्थ कर रहे हैं । हमारे देश से कच्चा माल अर्थात् सामग्रियाँ सस्ते दामों पर खरीद ले जाते हैं और अपने देश में उसकी वस्तु बना कर फिर मनमानी कीमत पर हमारे ही सिर मँढ़ जाते हैं और हम लोग मूर्खकी भाँति उसे खरीद लेते हैं, इस बातका हमें तनिक भी ध्यान नहीं । जिस देशके व्यापारी समाजकी ऐसी दुरवस्था हो, भला वह कैसे उन्नत हो सकता है ? जिस देश में यथोचित व्यापार नहीं वह देश समृद्धि - शाली क्यों कर हो सकता है ? जहाँका व्यापारी समाज मूर्ख और निरुद्यमी हो तथा अपना ही भला चाहनेवाला हो वह देश कब तक दुर्भिक्षसे बच सकता है ? जहाँसे कला और शिल्पका नाम उठ गया हो वह देश कब तक अपनी कुशल मना सकता है । हम अपनी निर्बलतासे अपनी आवश्यकताओंको स्वयं पूर्ण नहीं कर सकते। हम प्रत्येक बातमें दूसरोंकी ओर आशा लगाये देखते रहते हैं—किन्तु यह नहीं पता कि " पराई आशा करना नरक यातनाके तुल्य है । ” । " हम इतने आलसी हो गये हैं कि हमारी इच्छा यही रहती है कि हम अपने मुंहसे रोटो भी न खायें; कोई दूसरा ही कुचलकर हमारे मुखमें भोजनका ग्रास दे दिया करे । इस यूरोपीय महायुद्ध के समय हमें अपनी आवश्यकताएँ पूर्ण करना कठिन हो गया | यदि हमारा वैश्य समाज इस विषय में कुछ भी सावधान होता तो अपने देशका मुख उज्ज्वल रखता और आज धनसे परिपूर्ण दृष्टि आता । यह वर्तमान घोर दुर्भिक्ष यहाँ फटकने तक नहीं पाता ! जब हमें विदेशी चीजें नहीं मिलीं तो हम ही उन कौड़ीकी वस्तुओंको रुपयोंसे खरीदने लगे; परन्तु उसे तैयार करनेकी तरकीब या उसी मूल्य पर लेने का कोई भी उपाय किसीने भी नहीं सोचा । For Private And Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष। हाय, ऐसे अच्छे अवसरको हमने यों ही खो दिया और अपने पैरों उठना न सीखा ! " महँगीके मारे परेशान हैं " इत्यादि हल्ला मचाते रहे, पर आलस्यकी चादर अपने सिरसे न उतारी गई । जापानको देखिए, उसने क्या कर दिखाया ! कलका होश सँभाला हुआ बाजी ले गया। उसने दुनियाको और विशेष कर भारतवर्षको कैसा लूटा । हमारी आवश्यकताओंको पूर्ण करनेका बीड़ा उढा. लिया। अपनी बनाई सब प्रकारकी वस्तुओंसे भारतके बाजारोंको भर दिया और भारतका धन अपन देशमें भर लिया। वे वस्तएँ जो भारतमें अमेरिका, आस्ट्यिा , इंग्लैण्ड, जर्मनी,, इटली आदि देशोंसे आती थीं, उन सबके देनेका साहस एक छोटेसे जापानने किया। यद्यपि वह मजबूतीमें किसीकी समानता न कर सका तथापि नकल करनेमें वह पीछे भी नहीं रहा । उसकी वस्तुएँ टिकाऊ न होनेसे उसे और भी लाभ हुआ; क्योंकि पर-मुखापेक्षी भारतवासी उन्हें मोल लेते और वह शीघ्र ही नष्ट हो जाती तब दूसरी लेते। इस भाँति बराबर जापानकी वस्तुएँ भारतके बाजारों में खूब खपती रहीं। किन्तु खेद है कि इतने पर भी भारतवासियोंने विदेशी वस्तुओंका तिरस्कार नहीं किया। हम आलसी हैं, हमें चीजें मिलनी चाहिए, फिर वह भले ही कितनी ही महँगी क्यों न हों उन्हें हम अवश्य खरीद लेंगे ! हम भूखों भले ही मर जायँ, घरमें भले ही कुछ भी न रहे, परन्तु हमारा-वैश्य समाज किसी प्रकार अपने आलस्यको छोड़ना नहीं चाहता । भगवान् इन्हें सुबुद्धि दें। भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने अपने श्रीमुखसे वैश्योंका प्रथम कर्म कृषि कहा है। हमारा भारत कृषि प्रधान देश है । अपने कृषिबल पर ही यह एक दिन संसारमें सर्वश्रेष्ठ था। कारण तत्कालीन वैश्यसमाज स्वधर्मको भली भाँति पहचानता था। उसकी कृपासे भारत For Private And Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वैश्य-समाज । उन्नतिके अत्युच्च शिखर पर चढ़ा हुआ था, और आज उसीके वंशजोंकी मूर्खतासे भारत विदेशियोंकी भोग्य वस्तु बन गया। वैश्योंको यह सेठ अर्थात् श्रेष्ठकी पदवी इसी लिये उस समय दी गई थी कि वे कृषिकार्य, गौ-रक्षा, वाणिज्य आदि श्रेष्ठ कार्यों में संलग्न थे । कृषिसे पूर्ण लाभ प्राप्त करने के लिये गौ-रक्षा परमावश्यक है। पर भारतके दुर्भाग्यसे ऐसा कुसमय आ गया कि अन्य वाके कर्तव्य-च्युत होनेके साथ ही वैश्य इतने कर्तव्य भ्रष्ट हो गये कि यदि उनके गुण-कर्मसे देखा जाय तो वे · वास्तवमें वैश्य कहानेके अधिकारी भी नहीं हैं। भारतमें दुर्भिक्षका एक कारण हमारे वैश्य-बन्धु भी हैं, अत एत हमें इन्हींके विषयमें लिखना है। कृषि वैश्योंका सबसे प्रथम कर्म है; जिसे उन्होंने सोलहों आने त्याग दिया है। व्यापार जो कि तीसरा कर्म है उसमें वे लगे हुए हैं, सो भी अनुचित रीतिसे। 'परन्तु जब पदार्थ ही पैदा नहीं किये जाते तब व्यापार कैसा ? यही कारण है कि हमारा व्यापारी समाज सट्टे और फाटके में संलग्न है। ___ यदि व्यापार उचित रीतिसे किया जाय तो भारतके दुःख-दारिद्रय दूर होने में एक क्षण भी न लगे । सब देशोंकी उन्नति उनके व्याणार पर ही निर्भर होती है । व्यापारकी उन्नति जब तक नहीं की जाती तब तक उस देशकी भी उन्नति नहीं होती। जब तक विदेशियोंके हाथमें देशके शासनकी बागडोर है तब तक हमारे व्यापारकी उन्नति भी कठिन है । इस तरह शासन और व्यापारकी बुनियाद एक दूसरेसे मिली हुई है । व्यापार सुचारु रूपसे तब ही चल सकता है जब कि देशके शासनका भार देशवासियोंके ही हाथ में हो । वर्तमान कालमें जापान आदि पर दृष्टि डालिए, उन्होंने व्यापार आदिमें किस प्रकारकी उन्नति प्राप्त कर ली है। यह उनके शासनकी बागडोर हाथ में रहनेका ही फल है। For Private And Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष । व्यापारका अर्थ एक देशसे दूसरे देशको माल भेजना और मँगाना ही है । कच्चा माल दूसरे देशों से मँगा कर उसकी हरेक फैशन की चीजें बना कर दूसरे देशोंको भेजना और अपने देशके लिये आवश्यक वस्तुएँ तैय्यार करना सच्चा व्यापार कहलाता है । हमारे वैश्य समाजको इस बातका कुछ भी ज्ञान नहीं । वे जो व्यापार आजकल भारत में चला रहे हैं - वह सच्चा व्यापार नहीं कहा जा सकता । वह तो व्यापारकी नकल मात्र है । कच्चा माल हमारे देशसे जाता है और उसकी नाना भाँतिकी मनोमोहक वस्तुएँ तैय्यार होकर यहाँ आती हैं। इस पर भी असली नफा तो विदेशी खा जाते हैं और जूठन मात्र हमारे हाथमें आती है। विदेशी महाप्रभुओंकी बहुत गुलामी करने पर जो बची हुई जूठन यहाँके व्यापारी समा जके पहले पड़ती है, वही जूठन खा कर यहाँ के व्यापारी मूछों पर हाथ फेर कर संतुष्ट रहते हैं । हम यहाँ पर देश से गये कच्चे मालका और विदेशोंसे तैय्यार होकर आए हुए पक्के मालका दिग्दर्शन कराते हैं- 66 सन् १९०६–७ से १९१३-१४ तक अर्थात् लड़ाईके पूर्व का औसत निकाला जाये तो प्रति वर्ष २१०९८८१०००) १० का माल भारतवर्ष से विदेशों को जाता है, उसमेंसे तैयार माल ६७७३८४०००) रु० का, कच्चा माल १३५८६२००००) का और सोना-चाँदी ७२८७७०००) का; और १८५८३६२०००) का माल विदेशोंसे हरसाल आता है, जिसमें तैयार माल १३६२१०८०००) का, कच्चा माल ६४२४२०००) का और ४३२०१२०००) का सोना-चाँदी । इसमें २५१५१२०००) का माल हिन्दुस्तान से हर साल जो आमदनसे ज्यादा जाता है, यह कर्ज के सूद में, अँगरेज अफसरोंकी तनखाह और पेन्शन में, स्टेट सेक्रेटरीकी तनखाह और उसके आसि For Private And Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वैश्य-समाज। खर्चमें देना पड़ता है। उसके बदलेमें कुछ नहीं मिलता । जितना माल विदेशोंसे हिन्दुस्तानमें आता है उसमेंसे रुईके सूत और कपडोंकी कीमतका सालाना औसत ४६३९४७०००) अर्थात् एक चौथाईसे कुछ ज्यादा है। इस लिए इस पर ध्यान देना जरूरी है। यहाँसे हर साल ४११०००) टन रुई जाती है और २४२०००) टन कपड़ा और सूत आता है । यद्यपि तोलमें सिर्फ आधेसे कुछ ज्यादा माल तैयार होकर आता है, लेकिन उसका दाम ड्योढ़ेसे ज्यादा होता है। अर्थात् २९२३११०००) रुईका दाम पाकर कपड़े और सूतके लिए ४९३९४३००) देना होता है । ___ मुख्य आवश्यकता हिन्दुस्थानके व्यापारकी यह दशा क्यों हुई, उसकी दुःखदायक कथा कहना अब मैं जरूरी नहीं समझता। क्योंकि वाइसराय और स्टेट सेक्रेटरीने अब इस बातको स्वीकार कर लिया है कि यहाँके उद्योग और व्यापारकी उन्नति करना बहुत जरूरी है और उसकी मदद करना गवर्नमेंटका कर्तव्य है । मेरी समझमें यह लाजिमी है कि इसमें अब न तो देर होनी चाहिए और न कमी । यों तो बहुत सी ऐसी बातें हैं जो देशकी आर्थिक उन्नतिके लिए जरूरी हैं, लेकिन दो बातें परम आवश्यक हैं, एक तो हर तरहके कल-पुरजे (मशीन) बनानेके, दूसरे जहाज बनानेके कारखाने। ईश्वरकी कृपासे लोहा, लकड़ी कोयला इत्यादि जो इन कारखानोंके चलानेके लिये जरूरी चीजें हैं वे यहा निकलती और मिलती हैं। _ जो कुछ हो, हमारे वैश्य-समाजको इस बातका बिलकुल ही पता नहीं है कि आजकलके इस व्यापारमें हमारे देश-भाइयोंका कितना नुकसान हो रहा है । असल में “ जिसके कभी न For Private And Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष । फटी बिवाई वह क्या जाने पीर पराई "। जिसका पेट भरा होता है वह भूखे आदमीकी पीड़ाका अनुभव नहीं कर सकता । जिन महापुरुषोंको इसका अनुभव है उनके पास इसका दूर करनेका काई साधन नहीं है । क्योंकि व्यापार तथा शासनकी बागडोर दूसरोंके हाथमें है । स्वराज्य ही हमारे व्यापारकी उन्नतिका एक मात्र बीजमंत्र है । | ___ वर्तमान मांटगू-चेम्सफोर्ड सुधारमें यह एक बड़ी त्रुटि है, और इस त्रुटिका कारण यह है कि प्रान्तीय सुधारोंके सिवाय बड़ी सरकारमें कुछ भी सुधार नहीं किये गये हैं । शासन-सुधारोंमें प्रांतीय स्वराज्यके साथ साथ ही प्रान्तीय व्यापार भी दिया गया है । किन्तु जरा सोचनेकी बात है कि किसी देशके उत्थानके लिये केवल अन्तदेशीय व्यापार कदापि अधिक लाभप्रद नहीं हो सकता। किंतु राष्ट्रका बल और पूजी तो अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारसे ही बढ़ती है और उस ओर सरकारने एक कदम भी आगे नहीं रखा है ! यह बड़े ही दुखकी बात है । भविष्यको सोच कर हम और भी अधिक भयभीत हैं। __अपने कृषकोंकी दीनताका दोषारोपण हम वैश्य-समाज पर करेंगे। क्योंकि बोनीके समय किसानके पास सब कुछ है, किन्तुबीज नहीं । अब क्या करे ? इसके सिवाय कि वह महाजनके पास जाय और या तो बीज लावे, या रुपये । दोनों हालतोंमें महाजनको जमानत चाहिए। किसानकी जमानत क्या ! उसकी जमीन या उसकी पैदावार । प्रायः पैदावार ही किसानको जमानत होती है। अब च कि उसकी जमानत अच्छी नहीं, अत एव साहूकार खूब कस कर उससे व्याज लेता है। यदि किसान १००) रु० ले तो पहले उसे कुछ तो स्टाम्पके लिये खर्च करना पड़ता है। फिर सेठजीने For Private And Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वैश्य-समाज । ६७ कसर-बट्टा काट लिया और १००) की जगह ९६) रु० उसके हाथ पर रखे । और यदि बहुत ही दया की तो २४) रु० साल सूदका ले लिया। __ एक तो फसलके होने का कुछ ठिकाना नहीं । अगर अच्छी हुई तो सस्ते भाव में बेचनी पड़ी। क्योंकि सेठजी तकाजा करते हैं कि जल्दी रुपये दो, नहीं तो सूद दरसूद लगेगा। आखिर वह उन्हींके हाथ अपने खरे पसीनेकी कमाई बच देता है । सेठजी इस खरीदमें १२४) रु० के २००) बना लेते हैं । सेठजीको देकर कुछ बच गया तो बाल-बच्चोंकी परवरिश, कपडे, ढोरोंकी खुराक इत्यादिमें खर्च करना पड़ता है-- असली मलाई सेठजी चाट गये, केवल फीके दूध पर बेचारे किसानको पेट भरना पड़ता है, वह भी पूरी मिकदारमें नहीं। कभी पूरा भोजन पाया, कभी आधा ही पेट भरा, और कभी कभी तो पेटको पट्टी बांध कर ही रह जाना पड़ा । पट्टी बाँधनेको कपड़ा भी तो नहीं मिलता। ऐसी दशामें वह क्या करे ? क्या पेट पर पत्थर और बदन पर राख डाले । लाचार हो सेठजीसे कर्जकी प्रार्थना करनी पड़ती है । वे भी हा, ना कर आखिर राजी हो जाते हैं और बेचारे किसानके गले में कर्जका फन्दा इस तरह डाल देते हैं कि उसकी तमाम जायदाद हजम हो जाती है और वह दर दर मारा फिरता है । यदि हमारे बन्धु चाहें तो खुद भी अच्छी तरह लाभ उठा सकते हैं और किसानोंकी भी दुर्गतिसे रक्षा कर देशको दुर्भिक्षसे बचा सकते हैं । वह इस तरह कि सहकारी समितियोंमें हिस्से खरीद लिये जावें । हिस्सा ५०) रु० का होता है; और २ किश्तोंमें देना पड़ता है । हर एक किश्तकी माँग प्रति तीन मासमें होती है अर्थात् हर तीसरे महीने For Private And Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ફ્રૂટ भारत में दुर्भिक्ष | दस रुपये देने पड़ते हैं। तीन महीनों में दस रुपयेकी रकम हरगिज ख्यादः नहीं है । यह रुपया सरकार काश्तकारोंको सस्ते सूद पर देगी और साहूकारोंको वार्षिक नफा । इस तरहसे साहूकार लोग. रुपया कमायेंगे और हमारा वैश्य समाज संसार में प्रतिष्ठा और मान प्राप्त कर सकेगा । यहाँ एक बात और कह देनेकी है कि धर्मादा 1 खातेका बहुत सा रुपया हर एक स्थान पर जमा रहता है । वह यों ही किसीके यहाँ पड़ा रहता है और वह उसे चट कर जाता है । ऐसी दशा में उस धर्मादेके रुपये को भी सहकारी बैंकके हिस्सों में लगा देना चाहिए । अब जरा छोटे छोटे दुकानदारोंकी ओर दृष्टि डालिए । इनमें भी प्रायः कधिकांश वैश्य भाई ही होते हैं। उनकी सारी दूकान विदेशी मालसे परिपूर्ण होती है। या यों कह दें तो अनुचित न होगा कि उनके चारों ओर विदेशी सामानकी दीवारें बनी होती हैं । ढूँढ़ने पर दूकान में एक भी देशी वस्तु न मिलेगी । इनको इस बात का स्वप्न में भी ध्यान नहीं कि हम क्या कर रहे हैं ? व्यापार कर रहे हैं या कि विदेशोंकी दलाली अथवा अपने घरको खाली ? कुछ मुनाफा लेकर अपना उदर पोषण करते हैं और अपने देशका धन अपने हाथों विदेशियोंके सपुर्द करते हैं। जरा सोचिए आपके इस व्यापारसे देशको कितना लाभ है ! भारतको कितना धन आपके इस व्यापारसे प्रति वर्ष मिल जाता है ? फूटी कौड़ी नहीं - बल्कि उसने भारतको कंगाल और दरिद्र कर डाला । अपनी मूर्खतासे करोड़ों रुपये प्रति वर्ष विदेशोंको प्रसन्नता पूर्वक दे रहे हैं। क्या इस बातका भी कभी दिलमें विचार उत्पन्न हुआ है कि वह पूँजी जो अपनी दूकान में लगा कर विदेशी माल भर लिया था, आपके हाथ आवेगी ? नहीं, कदापि नहीं । आप कहेंगे कि हम उसे बेच कर For Private And Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वैश्य-समाज । उससे भी सवाई या डयौढी रकम ले सकेंगे; परंतु वह रकम क्या आप विदेशोंसे ले सकेंगे ? नहीं, इस दीन भारतसे ही बसूल करेंगे । वह धन जो विदेशोंको दे चुके उसका लौट आना तो अब टेढ़ी खीर है। हम चाँदी देकर राँगा खरीद रहे हैं । हीरे देकर पत्थरोंसे घर भर रहे हैं । अब भी सँभल जानेका समय है। __ हमारे वैश्य-बन्धु इस स्वदेशी विदेशीके नामसे ही घबड़ा उठते होंगे और इसे राजद्रोही बात समझते होंगे, पर यह उनकी भारी भूल है । क्या अपने देशकी वस्तु काममें लाना कोई अपराध है ? कदापि नहीं । हा, अपने देशकी वस्तुएँ काममें न लाना गुरुतर अपराध है, महापाप है, कृतघ्नता है । यदि अपने देशका पक्ष समर्थन हो अराजकता है तो इस समस्त भूमण्डल को हम एकदम अराजक कह देंगे। क्योंकि सिवाय भारतवासियोंके, सबको अपने अपने देशसे तथा तत्सम्बन्धी प्रत्येक बातसे प्रेम है । वैश्य-बन्धुओ! घबराइए मत, आपके साहससे भारत धन-धान्यसे परिपूर्ण हो सदा सुखी हो सकता है । परन्तु आवश्यकता यही है कि अपना प्रत्येक कार्य आप देश-हितकी दृष्टिसे करना आरंभ कर दें। हमारे शास्त्रकारोंका कथन है किः "राज्ञे धर्मिणि धर्मिष्ठा पापे पापा समे समा। प्रजा तदनुवर्तन्ते यथा राजा तथा प्रजा ।" अर्थात्-जैसा राजा वैसी प्रजा। किन्तु यह बात आज साफ झूठ दृष्टि आ रही है। क्योंकि हमारी सरकार एक अच्छो व्यापारी है; परन्तु प्रजाको यह भी ज्ञान नहीं कि व्यापारका असली अर्थ क्या है। हमारे वैश्य भाइयोंको ध्यान देना चाहिए कि हमारो व्यापारी सरकारने किस भाँति भारतका धन व्यापार द्वारा अपने देशको For Private And Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ७० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष | I पहुँचा दिया । न्यायसे या अन्यायसे, इस विषय में हमें कुछ नहीं कहना हैं । हाँ इतना अवश्य कहेंगे कि अँगरेजी शासन काल में भारत बिलकुल दरिद्र और दुर्भिक्षका अखाड़ा बन गया है । यवन-राज्यमें कई धन-लोलुप बादशाह हुए और उन्होंने अगणित रत्न अपने देशों को भेजे, पर वे व्यापारी नहीं बने । उन्होंने अपने देश की बनी वस्तुओंको जबरन् भारतमें नहीं भरा। वे केवल शासन और धनके भूखे थे । नित्य लड़ाइयाँ उनती थीं—किसीका राज्य जाता तो किसी के हाथ आता । यवन काल में इसके सिवाय और कोई बात नहीं हुई । इसके अतिरिक्त जितने मुसलमान भाई विदेशों से भारत में आये, वे सबके सब यहीं बस गये - भारतीय बन गये । इस कारण हमारे देशका धन देशही में रहा, बाहर नहीं गया । यवनांने भी हिन्दुओंके दिल दुखाने में कुछ उठान रखा - लट-खसोट भी कम नहीं की; परन्तु प्रत्यक्ष । किंतु बृटिश गवनमटने किस होशियारीसे भारतको अपने अि कारम कर लिया ! किसीको मालूम भी न होने दिया ! किस साबधानासे यवनोंको ठिकाने लगाया -कहीं खून खराबी न होने दी और भारत पर पूर्ण अधिकार कर लिया । बृटिश सरकारने शस्त्र द्वारा भारत पर शासन नहीं किया, बल्कि अपनी कुशाग्र बुद्धि द्वारा । व्यर्थ ही सहस्रों मनुष्यों का बलिदान नहीं किया, जैसा कि यवनकालमें हुआ था । हमारे भारतीय व्यापारी-समाज के लिये कितनी लज्जास्पद बात है कि विदेशी व्यापारियोंने उनके स्वदेश भारत पर व्यापार द्वारा शासन कर लिया ! जरा आप व्यापारके महत्त्वको देखिए । व्यापार में शासन करनेकी शक्ति भी मौजूद है । एक ओर भारतीय व्यापारी भी हैं जिन्होंने देशको दुर्भिक्षका क्रीड़ास्थल और भिखारी बना कर पराधीनता के दृढ़ पाश में बाँध दिया । For Private And Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वैश्य समाज । __ शासकको व्यापार नहीं करना चाहिए, यह बात दूसरी है। क्योंकि व्यापारी स्वार्थी हाता है, उसे अपने मतलबसे मतलब होता है, जो राजाके लिये बड़े कलंककी बात है। राजा प्रजाका वही सम्बन्ध है जो कि पिता-पुत्रका है। ऐसी दशामें व्यापारी पिता अपने निर्धन पुत्रका धन चूसनेका इरादा करे ऐसे पिताको पुत्र कब तक पिता ही मानता जाय ! व्यापारसे ही नहीं,बल्कि अनेक प्रकारके साधनोंसे हमारा धन खींचा जाता है। मानो हमारे प्रभुओंने येन केन प्रकारेण टका कमाना ही अपने शासनका मुख्य उद्देश माना है। कुत्ते पालनेका भी कर इस असहाय भारतको देना होता है। बाइसिकल आदि सवारियों पर चढकर घूमनेका कर भी देना होता है ! हाय अपने देश में हम ही सवारी पर चढ़ने के लिये भी टेक्स दें! बस इस अन्यायकी पराकाष्ठा हो चुकी ! बात तो यह है कि सड़कों पर चलनेका किराया है, क्योंकि हमारी सरकार व्यापारी है ! हम लोग कहा करते हैं कि सरकारने हमारे हितके लिये रेल, तार, नहर, सड़क आदि अनेक सामान उपस्थित कर रखे हैं, किंतु यह हमारी भूल है-यह सब कुछ उनके स्वार्थ-साधनका मसाला है। भारतको दरिद्र बनानेका षड़यंत्र है। इन सबके संचालक विदेशी व्यापारी हैं। हमारा व्यापारी-समाज अचेत है । हम तो तब सरकारका न्याय समझें जब कि वह सब वस्तुएँ भारतीय व्यापारियों द्वारा तैय्यार करा कर उनसे खरीद कर रेल, तार आदिका प्रबन्ध करे । यदि उनके पास कच्चा माल न हो तो अन्य देशोंसे मँगा दे । परन्तु नहीं वे प्रत्येक वस्तु अपने देशकी बनी ही भारतमें काम लाते हैं । क्या ताताका लोहेका कारखाना रेलें ( पटरिया ) भी तैय्यार करके दे सकता है ? अवश्य दे सकता है, पर वे लेते नहीं, क्योंकि विदेशी व्यापारी जो भारतके धन पर आज गुल छरें उड़ा रहे हैं, कल ही For Private And Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७२ भारतमें दुर्भिक्ष । nar. M. भूखों मरते दिखाई पड़ेंगे। इस प्रकारके व्यापारसे भारतकी सारी लक्ष्मी विदेशोंको चली गई । भारत श्रीहीन हो गया-कान्तिहीन हो गया । शासकोंका यह कर्तव्य नहीं है कि जिस देश पर शासन करना हो उसीको स्वार्थान्ध हो चूस डालें--जिस खेतसे अन्न प्राप्त करना हो उसकी रक्षा न की जाय । जिस वृक्षसे अच्छे फल पानेकी आशा हो और पा रहे हों उसकी जड़में आग लगा दी जाय । जब तक भारतके पास धन है वह देगा, बादमें कहाँसे मिलेगा, क्या इस पर भी कभी सरकारने कुछ सोचा है। तिलोंका तेल निकल चुकने पर खलीमेंसे तेल नहीं मिलेगा। यदि भारत-रूपी कामधेनुसे यथेच्छ फल प्राप्त करना है तो इसे निर्बल न कीजिए। इसे पौष्टिक पदार्थ खिलाइए, कभी कभी हाथ भी फेरिए ताकि वह अपने स्वामीको पहचानने लगे। यदि चारा ही न दोगे तो क्या लेंगे ? जितना है वही ले लें। अतः हम सरकारसे प्रार्थना करते हैं कि वह इस बातका ध्यान रखे कि भारत दरिद्र है, भूखा है, बे-मौत भर रहा है। यही एक मात्र निवेदन वैश्य-समाजसे है कि व्यापार करते समय इस भूखे भारतकी याद मत भूलो। " यत्र देशेऽथवा स्थाने भोगान्भुक्त्वा स्ववीर्यतः। .. तस्मिन् विभवहीने यो वसेत्स पुरुषाधमः !॥" वैश्य-समाजके विषयमें हम अब विशेष लिख कर पाठकोंका समय नष्ट नहीं करना चाहते । " गौ-रक्षा" भी वैश्योंका एक कर्म है, अत एव हम प्रसंग आने पर आगे चल कर इस विषयमें लिखेंगे। For Private And Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उद्योग-धन्धे । उद्योग-धन्धे। " नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वाऽयं नावसीदति ।" सी महत्त्व-पूर्ण और सर्वोपरि कल्याण-प्रचुरा उक्ति है । यदि ठीक सोच विचारके साथ देखा जाय तो आजकल के इस प्रगतिके युगमें जो भला बुरा देखा जाता है, इस उक्तिका अर्थ उसी पर निर्भर है । इसका सारांश यह है कि कोई देश उन्नत हो गया हो अथवा उन्नति चाहता हो तो बिना उद्योगके वह कदापि उन्नति नहीं कर सकता । अर्थात् सब सुखोंका प्रधान साधन उद्योग ही है। इसे कोई पौराणिक अथवा ऐतिहासिक बात नहीं समझना चाहिए, जिसे हमें पूज्य मान कर अंगीकार करना ही पड़े । किन्तु प्रत्येक विचारशील मनुष्य देख सकता है कि आजकलका युग किस ढंगका है । इस प्रगतिशील युगमें जिन जिन देशोंने उन्नति की है केवल उद्योग-धन्धोंसे ही की है, और उद्योग-धन्धोंसे ही वे प्रभावशाली और शक्ति-सम्पन्न हो रहे हैं । परन्तु उद्योग-धन्धोंके साधन क्या होते हैं और वे किसी रीतिसे प्राप्त किये जाते हैं इसका भी विचार करना आवश्यक है। जिन साधनोंसे देशकी साम्पत्तिक स्थिति सुधार कर, उन्नति की जा सकती है उसके लिये विशेषतासे उसके निसर्गदत्त साधन उस देशमें अवश्य होने चाहिए । जैसे कि खनिज और उद्भिज पदार्थोकी विपुलता, यांत्रिक साधनों तथा शास्त्रीय शोधोंसे उन पदार्थोके तरह तहरके रूपान्तर कर व्यवहारोपयोगी वस्तु बनानेके कारखाने, देशमें तैय्यार किये हुए पदार्थ और कीमत,गुण और विपुलतामें सुभीतेके साथ दूसरे प्रगतिशील राष्ट्रोंके कारखानोंका मुकाबिला कर उन्हींके अनुरूप हरेक बातमें चलनेकी ताकत रख कर For Private And Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष । चीजोंकी विक्री करना । इसीका स्पष्टार्थ-~~-उद्योग-धन्धे, कलाकौशल और व्यापार इस त्रयीका निरन्तर ऐक्य रहना है । और यही राष्ट्रकी उन्नतिका द्योतक है । इन पूर्वोक्त बातों पर विचार-पूर्वक दृष्टि डाली जाय तो सामान्यसे सामान्य मनुष्यको भी हमारे इस दरिद्र देश पर दया आये बिना न रहेगी। एक वह समय था जब कि हमारा भारतवर्ष औद्योगिक उन्नतिके शिखर पर स्थित था; इस देशकी नैसर्गिक सम्पत्ति, हस्त-कौशल, कारीगरी, दस्तकारी आदि विभूतियों और विशेषताओंकी बराबरी करनेवाला कोई देश नहीं था । कुतुबमीनारके पास जो लोहेका अद्भत स्तंभ है, उसके विषय में डाक्टर फरगुसन लिखते हैं--- " यह स्तंभ हमारी आँखें खोल कर निस्सन्देह बतलाता है कि हिन्दू लोग उस समयमें लोहे के इतने बड़े खम्भे बनाते थे जो कि यूरोपमें बहुत इधरके समयमें भी नहीं बने हैं और जैसे कि अब भी बहुत कम बनते हैं । और इसके कुछ ही शताब्दीके इस लाटके बराबरके खंभों को कनरिकके मन्दिरमें शहतीरकी भाँति लगे हुए मिलनेले हमको विश्वास करना चाहिए कि वे लोग इस धातुका काम बनाने में अपने बादके कारीगरोंकी अपेक्षा बड़े दक्ष थे और यह बात भी कम आश्चर्य-जनक नहीं है कि १४०० वर्ष हवा और पानीमें रह कर उसमें अब तक भी मोरचा नहीं लगा है । और उसका सिरा तथा खुदा हुआ लेख अब तक भी वैसा ही स्पष्ट और गहरा है जैसा कि १४०० वर्ष पहले बनाया गया था।" । पाँचवीं सदीके आरंभमें फाहियान नामक एक चीनी यात्री भारतमें आया था। वह पटने में कोई तीन वर्ष तक रहा। महाराजा आशोकके बनवाये हए छः सातसौ-वर्षके टूटे-फूटे राजमहलोंको For Private And Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उद्योग-धन्धे। देख कर उसे बड़ा ही दुख हुआ। इस विषय में उसने अपने भ्रमण.. वृत्तान्तमें लिखा है कि अशोकने इस महलको देवताओंसे अवश्य बनवाया होगा। इसकी ऊँची ऊँची दीवारें, भव्य द्वार और चौखटें बनाना मनुष्यका काम नहीं है । ” । भारतके कला-कौशलके विषयमें हम पीछे बहुत कुछ लिख आये है। सारांश यह कि उस समय यह देश सारी दुनियाका सिरताज माना जाता था। किन्तु आज वही हमारा देश जिस हीन दशाको प्राप्त हो गया है, और हो रहा है, उसे देख कर वह पहलेकी स्थिति स्वप्नके जैसी मालूम होती है । देशकी इस अधोगतिको देख कर कौन ऐसा भारतवासी होगा जिसका अन्तःकरण दुखी न होगा । अर्थात् कोई देशभक्त अपनी मातृभूमिकी इस दुरवस्थाको सहन करने में समर्थ नहीं होगा । खैर, अब इस दशाके सुधारनेका कौनसा उपाय किया जाय, इस विषयमें देश-भक्तोंके अन्तःकरणमें अनेक कल्पनाओंने आसन जमा कर तरह तरहके विचार उत्पन्न किये । इस प्रकार उन विचारकोंके चे विचार आज लगभग चालीस वर्षोंसे अपना काम कर रहे हैं । इन चालीस वर्षों में अपनी इस मातभूमिकी दुरवस्था पर जिन्हें हार्दिक कष्ट हुआ और हो रहा है ऐसे अनेक पुरुष हो चुके हैं और वर्तमानमें भी विद्यमान हैं । अब, इन पुरुषोंके उद्योग और विचारोंका फल क्या हुआ? ऐसा प्रश्न सहज ही सामने आता है। तो उसका उत्तर प्रत्यक्षमें सिद्ध ही है । अर्थात् औद्योगिक प्रश्नोंके विचार करनेवाली अनक संस्थाएँ भारतके पृथक् पृथक् प्रान्तोंमें स्थापित हो चुकी हैं । इन संस्थाओंमें सच्ची मार्ग-दर्शक संस्था वही कही जायगी जो सन् १८९१ ई० में रावबहादुर माधवराव रानडेकी स्थापित की हुई " औद्योगिक परिषद् ” के नामसे प्रसिद्ध है। For Private And Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७६ भारतमें दुर्मिक्ष। बृटिश सत्ताके शुरू होते ही हमारे देशके कला-कौशल आदि पर उसका बड़ा विलक्षण प्रभाव पड़ा, जिससे कि उसका परिणाम विपरीत हुआ। १८ वीं शताब्दीके अन्तमें और उन्नीसवींके आरंभमें इंग्लैण्ड में यांत्रिक शोध हुए और उसके थोड़े काल बाद ही धीरे धोरे राजकीय सत्ता स्थापित हुई। उस सत्ताके कारण मनोनुकूल द्रव्य प्राप्तिका भण्डार अपने व्यापारके प्रवेशके लिये हिन्दुस्थानमें किया हुआ इंग्लैण्डका भगीरथ प्रयत्न और उस प्रयत्नका सफली. भृत होना आदि अनेक अनुकूल परिस्थितियोंके कारण इंग्लैण्डके व्यापार, कला-कौशल और कारखानोंको एक साथ ही उत्तेजना मिली। ऐसी अनुकूल अवस्थामें इंग्लैण्डके कारखानोंके व्यापारोंकी स्थिति, सर्वतोपरि समाधानकारक और सन्तोषजनक होने पर उसी दम उसने खुले तौर पर अपनी व्यापार-पद्धति निधड़क आरंभ कर दी। और इस घातक पद्धतिके द्वारा अनेक यूरोपीय राष्ट्रोंका माल भारतमें अपना पैर जमा कर जबर्दस्त हो गया; जिसका परिणाम यह हुआ कि व्यापार-सम्बन्धी स्पर्धा बड़े विस्तारके साथ आरंभ हुई । अर्थात् बाहिरी माल पर ही संतुष्ट रहना एक पेशा सा हो गया । क्यों न हो, जब कि व्यापारके साधन-रूप यांत्रिक साधन ही उस समयके यूरोपियन व्यापारियोंका सामना करनेके लिये हमारे देशमें नहीं थे; किन्तु ऐसा होना भी देशके लिये अनुचित था । खर, परिणाम यह हुआ कि भारतके उद्योग-धंधे, कला-कौशल नाम मात्रको रह गये। आश्चर्य की बात है कि ऐसे ही मौके पर रावसाहब रानडे महाशयने जो बौद्धिक कार्य किया वह ठीक उसीके जोड़का था; बल्कि उससे बढ़कर कहा जाय तो भी अतिशयोक्ति न होगी। हमारे गुजराती, पारसी और खोजा बन्ध ओंने भी उस समय जो कार्य किया है उसको कभी भूलना न For Private And Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उद्योग-धन्धे। चाहिए। माँचेस्टरसे भारतमें जब कपड़ा आना आरंभ हुआ, तब उसके बराबरीका कपड़ा बनानेवाली मिलें यदि भारतवर्ष में स्थापित नहीं की जाती तो न जाने आज हमारा भारत किस दुरवस्था तक पहुँचता ! परंतु उपर्युक्त धनाढय महाशयोंने किसी बातका भय न रख कर साहस और दीर्घोद्योगसे बम्बई तथा अहमदाबादमें सन् १८५४ ई० से १८६५ तक तेरह कारखाने कपड़ेके खोले । जिसमें उन्हें उनके सदुद्योगका सुमधुर फल मिला और भारत में उनका अच्छा यश फैला। एकके उद्योगको फला-फूला देख कर दूसरे लोग भी उत्साहित होते हैं और वैसा उद्योग करनेका साहस करते हैं। ठीक इसीके अनुसार और और लोगोंने भी कारखाने खोले जो दिनों दिन बढ़ते ही गये। किन्तु ये बातें व्यक्तिशः अथवा एक दिशासे हो गई हैं;तथापि कौन कौनसे इतर धंधे और कलाएँ नष्ट हो चुकी हैं और उनसे देशकी कितनी हानि हुई इस बातको लोगों पर अच्छी तरह प्रकट करने के लिये और उस औद्योगिक हानिका राष्ट्रीय दृष्टिसे विचार करनेके लिये कुछ थोड़ी मंडलियाँ शीन ही संगठित हुई । किन्तु उनमें अग्रणीयताका मान किसको दिया जाये, यदि यह प्रश्न उपस्थित हो तो उसके लिये स्व० माधवराव रानडे, महादेव मोरेश्वर कुण्टे इन्हीं दो महाराष्ट्र सज्जनोंका नाम जबान पर आता है, किन्तु और और देशके नेता इसमें गिने ही न जावें ऐसा समझना गलत है । अस्तु, इसी बीचमें एक अनुकूल परिस्थिति सर. कारको ओरसे उपस्थित हुई । वह यह थी कि सन् १८८८ में लार्ड डफरिनने यह मत प्रकट किया कि-" हिन्दुस्थानमें उद्योग-धन्धे, उनका विस्तार, उनकी प्रस्तुत स्थिति तथा हरेक जिले अथवा इलाकेमें चलने योग्य धन्धे और उनकी जरूरतका कच्चा माल इत्यादि For Private And Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष । बातोंके सम्बन्धमें इस देशके लोगोंको बिलकुल ज्ञान नहीं है । इस विषयकी जानकारी जहाँ तहाँ फैला कर देशकी औद्योगिक परिस्थितिका अवलोकन करना अत्यन्त आवश्यकीय काम है।" सन् १९१६ ई० के अक्टूबर मासमें देशी उद्योग-धन्धोंकी उन्नति एवं सरकारके कर्तव्य पर विचार करनेके लिये एक भारतीय औद्योगिक कमीशन नियुक्त हुआ था। उसने डेढ वर्ष तक देशभरमें घूम-फिर कर विशेषज्ञों तथा व्यापारिक एवं कला-कौशल-सम्बन्धी सभा-संस्थाओंकी गवाहिया ली। उक्त कमीशनके सभापति सर टामस हालैंड, मिस्टर फ्रांसिस स्टुआर्ट और डा• हैपकेंसन आदि यूरोपियन तथा मा० मालवीयजी, सर फजलभाई करीमभाई, सर दोराबजी ताता और सर राजेन्द्रनाथ मुकुर्जी भारतीय मेम्बर थे। उक्त कमीशनकी रिपोर्ट ४८३ पृष्ठोंमें प्रकाशित हुई है। मालवीयजी कमीशनकी बहुतसी बातोंके विरुद्ध हैं। उन्होंने ५५ पृष्ठोंमें अपनी बातें अलग लिखी हैं। __कमीशनन अपनी रिपोर्ट में दो बातें कही हैं। पहली बात तो यह है कि सरकारको भविष्यमें भारतीय उद्योग-धन्धोंके सम्बन्धमें जन और सम्पत्तिकी दृष्टिसे निश्चय ही तत्परता-पूर्वक ऐसा काम करना चाहिए, जिससे भारत इन मामलों में स्वावलम्बी रहे । दूसरी बात यह है कि सरकारके लिये ऐसा करना तब तक असंभव है जब तक कि उसे कुछ अधिक अधिकार और विश्वसनीय वैज्ञानिक एवं कला-कौशल-सम्बन्धी परामर्श नहीं मिलते। __ उपर्युक्त बातोंके सम्बन्धमें क्या क्या अधिकार सरकारके हाथमें रहने चाहिए, और फिर औद्योगिक उन्नतिमें उसके द्वारा क्या क्या होना चाहिए, इस विषयमें कमीशनका कहना है कि भारतीय और For Private And Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उद्योग-धन्धे । प्रांतीय दो प्रकारके औद्योगिक विभाग खोले जायँ । भारतीय औद्योगिक बोर्ड वायसरायकी कार्यकारिणी कौंसिलके एक मेंबरकी मातहतीमें रहेगा, और उसमें तीन अन्य उत्तरदायित्व पूर्ण सज्जन रहेंगे। एक इम्पीरियल इण्डस्ट्रियल सर्विस खोली जायगी। बोर्ड देशी उद्योग-धन्धोंकी उन्नतिका काम सोचा और किया करेगा। प्रान्तिक बोडों पर कार्यके विस्तारका भार रहेगा। प्रान्तिक काममें बहुतसे विशेषज्ञ और यंत्र-सम्बन्धी काम जाननेवाले आदमी रहेंगे। भारतीय औद्योगिक डिपार्टमेण्ट देहलीमें खोला जायगा। प्रांतिक विभाग औद्योगिक डाइरेक्टरके ताल्लुक रहेगा । प्रांतिक बोर्ड में अधिकांश गैर-सरकारी आदमी ही रहेंगे। बोर्डके विशेषज्ञ इण्डस्ट्रियल सर्विसके ही नौकर होंगे । इस प्रकार डाइरेक्टर प्रांतिक सरकारका सेक्रेटरी भी हो जायगा। कार्य-विभाजनके प्रथम अध्यायमें भारतीय औद्योगिक स्थितिका वर्णन करते हए कहा गया है कि इस देशके निवासी अब भी प्राचीन प्रणालीके अनुसार खेती करते हैं, इसी कारण उन्हें भर पेट अन्न तक भी नहीं मिलता। पश्चिमी ढंग पर अब भी उद्योग-धन्धोंका प्रचार बहुत कम हो पाया है। दूसरे भारतीय मजदूरोंको कुछ भी ज्ञान नहीं होता। जंगल तथा मछलीके उद्योग-धन्धोंसे अच्छी आमदनी हो सकती है, पर यहाँके लोग व्यापारमें तो रुपये लगा सकते हैं, लेकिन कला-कौशलकी उन्नतिमें अपने रुपये फँसाते हुए डरते हैं । युद्धके पूर्व लोग बाहरसे आनेवाले माल पर ही अवलम्बित रहते थे, सरकार भी इन्हें इसी ओर मदद देती थी। इस देशमें सभी प्रकारके कच्चे माल उपजते हैं, पर न तो लड़ाईके समयमें हो और न शान्तिके समय ही यह देश अपनी आवश्यक वस्तुओंके बनाने में समर्थ हुआ । कपड़े बुननेका काम यहाँ बड़े जोरशोरसे चल सकता For Private And Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ८० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष | है, पर यहाँवाले बाहिरी मशीनोंका आसरा ताकते हैं । यदि समुद्री आवागमन रुक जाय तो लोग हाथ पर हाथ रख कर बैठे रहें । अतः अब सरकार ऐसा प्रबन्ध करे कि कठिनसे कठिन समय में भी यहाँ सब प्रकारकी आवश्यक वस्तुएँ बन सकें । कमीशन वैज्ञानिक ढंग से खेती करानेके पक्षमें हैं, जिससे दूसरे कामोंके लिये मजदूर बहुतायत से प्राप्त हो सकें। इससे कारखानोंकी वृद्धि होगी और मशीनें बनानेके कारखाने के कारखाने भी खुल सकेंगे । कोयले और तेल कम खर्च की ओर ध्यान खींचते हुए कमीशनका कहना है कि ईंधन में किफायत करके जल-कल द्वारा बिजली आदि से मेशीaa चलाने की ओर भी ध्यान दिया जाना चाहिए । दूसरे अध्याय में कहा गया है कि भारतीय कारीगरोंकी योग्यताके बढ़ाने की कोशिश होनी चाहिए। इस अयोग्यता के तीन मुख्य कारण कारण हैं । ( १ ) शिक्षाका अभाव, (२) गरीबीका दुःख और ( ३ ) रोग आदिकी अधिकता । कमीशनकी राय है कि स्वयं सरकार या स्थानिक अधिकारी इन लोगोंको प्राथमिक शिक्षा दें, न कि मजदूर रखनेवाले ऐसा करें | साथ ही शिल्प शिक्षा के प्रचारकी अत्यन्त आवश्यकता है । सुखमय जीवन बितानेके लिये कमीशन चाहता है कि इन लोगोंको अच्छे घर दिये जायें। इसके लिये स्वयं सरकार कल-कारखानेवालोंको भाड़े पर अच्छी भूमि दिया करे । बम्बईवालोको और भी अधिक सहायता दी जाय। कमीशन की राय में यहाँ की शिक्षा प्रणाली नितान्त अव्यावहारिक है । इसे बिलकुल बदल देना I उचित है | यंत्र-सम्बन्धी कार्यों में ऊँचे पदों पर काम कर सकने के लिये, कारखानोंमें उम्मेदवार लोग काम सीख कर, पढ़-लिख कर कुछ बातोंका अध्ययन करें। साथ ही व्यापारिक और कला-कौशल - सम्बन्धी शिक्षाका सरकार विशेष प्रबन्ध करे । इसका जिम्मा I For Private And Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उद्योग-धन्धे । ८१ औद्योगिक विभाग पर रहेगा। इंजीनीयरिंग तथा धातु-विद्याके दो कॉलिज भी खोले जायँ । अन्य अध्यायोंमें इस बातका वर्णन है कि सरकार किन किन बातोंमें दखल रखे और यह कि सरकार अपनी औद्योगिक नीतिको छोड़ दे; क्योंकि अब उससे काम न चलेगा । सरकार तब तक विदेशी माल न ले, जब तक उसे यह न मालूम हो जाय कि भारत में वह माल नहीं मिल सकता । भूमि किस प्रकार प्राप्त हो सकेगी और रेलवेकी असुविधाओंको किस प्रकार दूर किया जायगा इत्यादि बातों पर विचार करते हुए कमीशन बतलाता है कि चूँ कि लोग उद्योग-धन्धों में रुपये नहीं लगाते अतः सरकार औद्योगिक बैंक भी खोले । अन्तमें कमीशन बतलाता है कि भारत में कच्चे मालकी बहुतायत है, पर उद्योग-धन्धोंकी उन्नति के लिये यहाँ यंत्र नहीं हैं । यहाँ के मजदूर तथा कारीगर यंत्र-विद्यासे अनभिज्ञ हैं, अतः यहाँवालोको विदेशका मुँह ताकना पड़ता है, इस सब बातोंका सुधार करनेके लिये बोर्डे | की स्थापना जरूरी है। इस कामके लिये २६ लाख रु० खर्च होंगे। फिर सात वर्षके भीतर इन स्कूलोंकी तरक्की करने में ८६ लाख रु० और लगाने पड़ेंगे । मालवीयजीका कहना है कि वैज्ञानिक तथा उद्योग-धन्धों की शिक्षा पर बड़े जोरशोर के साथ ध्यान दिया जाना चाहिए। इन विषयोंकी सरकारी संस्थाएँ खड़ी की जानी चाहिए । वैज्ञानिक खोज तथा व्यापार - ज्ञानकी शिक्षाकी ओर भी पूरा पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए । कम्पनी - शासन के समय से भारतवर्ष कृषि-प्रधान देश क्यों कर होता चला आया है, आपने इसका बड़ा मार्मिक चित्र खींचते हुए कहा है कि मेरी राय में भारतवर्षके कृषि प्रधान देश For Private And Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८२ भारतमें दुर्भिक्ष । 1 होते जाने में ब्रिटिश सरकारकी पॉलिसी ही मुख्य कारण है, जो कि लगातार भारतको कच्चे माल भेजने के लिये लाचार करती आई है। १८५८ ई० से भारत सरकार ब्रिटिश कारखानोंके फायदे के लिये ही भारतीय रुई की पैदावार तथा उत्तमता बढ़ाती चली आई है । किन्तु भारतवर्ष अच्छे किस्मकी रुई भले ही पैदा करे, पर वह दोनोंके लिये ( इंग्लैण्ड और भारतके ) काममें आनी चाहिए । सरकार अब रुका माल यहाँ ही बनवानेकी पॉलिसी अख्यार करे | मालवीयजीका कहना है कि उद्योग-धन्धोंकी शिक्षा के सम्बन्ध में मिलनेवाली छात्रवृत्तियाँ बहुत ही कम हैं। भारत सरकार की पॉलिसीका इतिहास इस बात से भरा पड़ा है कि उसने औद्योगिक उन्नतिको तर्फ बहुत ही कम पैर बढ़ाया है । बड़े मार्मिक शब्दोंमें मालवीयजीका कहना है कि मैं बतला देना चाहता हूँ कि गत डेढ़ शताब्दी में भारतवर्षने इंग्लैण्डको समृद्धिके लिये क्या क्या दिया है, और अनुदार पॉलि - सीके कारण उसने क्या क्या कष्ट सहे हैं । यहाँ तक कि सब प्रकारकी प्राकृतिक पैदावार रखते हुए भी आज वह संसार में सबसे अधिक गरीब देश है । मैं जापानी ढंगकी कृषि, उद्योगधन्धों तथा साधारण प्रकारकी शिक्षाके प्रचार पर जोर देता हूँ । यह अफसोस की बात है कि इंग्लैण्डको तो प्राथमिक शिक्षाकी आवश्यकता है, पर भारतवर्ष उससे वंचित रखा जाता है । यदि भारतीय उद्योग-धन्धोंकी उन्नति होनी बदी है तो भारतीयोंको संसारकी स्पर्द्धा के लिये तैय्यार हो जाना चाहिए । इसके लिये ऊँची शिक्षाके औद्योगिक विद्यालय तो खुलें ही, पर साथ ही विदेशों में भी भारतीय विद्यार्थी भेजे जायँ । मालवीयजीकी राय है कि आयातनिर्यातकी बहुतायत के कारण यह अत्यन्त आवश्यक है कि सरकार भारतीय जहाज बनवाये । आप औद्योगिक विशेषज्ञोंके घूम-घूम कर | For Private And Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उद्योग-धन्धे । avvvww जाँच करनेका घोर विरोध करते हुए कहते हैं कि यह गाड़ीके गले में पाँचवा पहिया बाँध देना है। इससे कुछ भी लाभ नहीं। इसके स्थान पर आदर्श कारखाने या खोज करनेवाली संस्थाएँ स्थापित की जानी चाहिए। साथ ही आपकी राय है कि इम्पीरियल औद्योगिक बोर्डकी रचना ऊट-पटांग है। उसकी जगह सिर्फ एक ही परामर्शदाता बोर्ड स्थापित किया जाय, जिसके अधिकांश सदस्थ व्यवस्थापक कौंसिलके गैर-सरकारी सदस्यों द्वारा ही चुने जायँ । इससे दो लाख रुपये वार्षिककी बचत होगी । साथ ही बोर्डको भारत-सरकारका पुञ्छल्ला बना कर छोड़ देना भी एक महज लचर बात है । अन्तमें आपका कहना है कि भारतीय ग्रेज्यूएटों को ही डिपार्टमेंण्टमें पद मिलने चाहिए । १५ लाखक मकानात और तीस लाख एकबारगी तथा ६ लाख रुपया वार्षिक कला-कौशल आदिकी शिक्षाके लिये यदि खर्च किये जायें तो भारत का दरिद्रता और दुर्भिक्षसे शीघ्र हो छुटकारा हो सकता है । For Private And Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष। आर्थि कदशा। राई माण्डेगू साहब ' लण्डन टाइम्स' नामक समाचार पत्रमें पालिखते हैं कि हिन्दुस्थानके राजनैतिक सुधारोंके पूर्व आर्थिक सुधार होने चाहिए “ The economic development of India was more important than the alternation of the machinery of Government." " अर्थात्-भारतीय राजनीतिमें हेरफेर करने की अपेक्षा हिन्दु. स्थानकी आर्थिक अवस्था सुधारनेकी अधिक आवश्यकता है।" - हिन्दुस्थानके आर्थिक साधन बढ़ानेके ३-४ तरीके हैं। खेतीकी उन्नति होनी चाहिए । व्यापारकी उन्नति होनी चाहिए । वैज्ञानिक और औद्योगिक शिक्षा बढ़ानी चाहिए । वैज्ञानिक और औद्योगिक शिक्षा बढ़ानेसे भारतवासियोंकी बुद्धिमें बृद्धि होगी। परन्तु उसके लिये मौका तो चाहिए ? अब मांटेग साहब कहते हैं कि खेती और व्यापारकी उन्नति होनेसे भारत की आर्थिक उन्नति होगी। क्या यह बात ठीक है ? हाँ है जरूर, बात उचित तो है, परन्तु आधी। क्योंकि जब तक खेती और व्यापार पूर्ण-रूपसे हिन्दुस्थानी लोगोंके अधीन नहीं हैं तब तक खेती और व्यापारकी उन्नति होनेसे हिन्दुस्थानके लोगोंको कुछ भी फायदा नहीं है। भाज कल बम्बई सरीखे शहरोंमें जो व्यापार बढ़ा हुआ दृष्टि आता है वह विदेशी लोगोंका व्यापार है । कपड़ेके व्यापारमें हिदुस्थानी लोग मेंचेस्टरवाले व्यापारी लोगोंका सामना नहीं कर सकते। क्योंकि मेंचेस्टरवाले व्यापारी लोगोंके माल For Private And Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आर्थिक दशा। 'पर जो कर लगाया जाता है उससे दुगना कर यहाँके देशी व्यापारी लोगोंके बनाये हुए कपड़े पर लगाया जाता है। क्या कोई इस अन्यायका कारण बतला सकता है ? कपड़े पर कर लगाना अथवा न लगाना हिन्दुस्थानके लोगोंके अधिकारमें नहीं है । ये सब बातें अँगरेजी अधिकारियोंके अधीन हैं। तभी तो भारतीयोंके माल पर भारतमें ही अधिक कर वसूल किया जाता है ! । ___ अब खेतीका उदाहरण लीजिए । जैसे जैसे खेतमें अनाज पैदा होता है वैसे वैसे हरेक बोस अथवा तीस वर्षोंके बाद जमीन पर महसूल बढ़ाया जाता है। इससे जो किसान अपने खेतमें कष्ट करके खेतीकी उपज बढ़ाता है, उस उपजका फायदा उसको पूरी तरहसे सदाके लिए नहीं मिलता । इसका कारण क्या है ? इसका कारण यह है कि जमीन पर महसूल बढ़ाना न बढ़ाना किसानके अधीन नहीं है। वे सब बातें अँगरेजी अधिकारियों के हाथमें हैं । अँगरेजी अधिकारी विदेशी होनेके कारण भारतीय किसानोंकी परवा नहीं करते । व्यापारके बारे में तो लिखने की भी जरूरत नहीं है । क्योंकि अँगरेजी अधिकारी छोटेसे बड़े तक मेंचेस्टरके व्यापारियोंके कल्याणकी ओर विशेष ध्यान देते हैं। वे हिन्दुस्थानके व्यापारियोंके कल्याणकी ओर कम ध्यान देते हैं बल्कि ध्यान ही नहीं देते। - जब तक ये ही बातें --वर्तमान अवस्था--बनी हुई हैं, तब तक हिन्दुस्थानी व्यापारी और किसान अपना व्यापार और खेती बढ़ा कर उन्नति नहीं कर सकते । यह साधारण बात है कि जिस प्रकार प्रत्येक मनुष्य अपने अपने हितकी ओर ध्यान देता है उसी तरह अँगरेज अधिकारी भी अपने अँगरेज भाइयोंके हितकी और अधिक ध्यान देते हैं। For Private And Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष। wrsarNAA .. भारतीय किसान और व्यापारी तब तक अपनी खेती अथवा व्यापारकी कुछ भी उन्नति नहीं कर सकते जब तक कि वे अपने अपने काममें स्वाधीन अथवा स्वतंत्र नहीं हैं। अत एव हम स्पष्ट रूपसे कह सकते हैं कि राजनैतिक सुधार और आर्थिक सुधार हमेशा साथ ही होते हैं। पहले आर्थिक सुधार और पीछे राजनैतिक सुधार हों, यह बात बिलकुल गलत है। हम ऊपर बतला चुके हैं कि राजनैतिक एवं आर्थिक सुधार हमेशा साथ साथ ही होते हैं । जैसे जैसे राजनैतिक सुधार होंगे, वैसे वैसे आर्थिक सुधार भी होंगे और आर्थिक सुधारोंके साथ साथ वैज्ञानिक और औद्योगिक सुधार भी बढ़ेंगे । जब तक आर्थिक सुधार न होंगे तब तक वैज्ञानिक और औद्योगिक सुधार होने के लिये भी अवसर नहीं मिलेगा। क्योंकि सब बातें आर्थिक सुधारों पर निर्भर हैं, और आर्थिक उन्नति राजनैतिक उन्नतिके साथ साथ होती है। हम सरकारसे प्रार्थना करते हैं कि राजनैतिक सुधार करनेके लिये हमें वह अवसर दे जिससे हमारी आर्थिक उन्नति हो । आर्थिक उन्नति होनेसे ही भारतकी दरिद्रता दूर होगी और साथ ही दुर्भिक्षसे छुटकारा होगा। भारतकी आर्थिक दशाके विषयमें इधर कई वर्षोंसे दो मत सुने जा रहे हैं। अँगरेज और वर्तमान अँगरेजी शासनके पक्षपाती कहते हैं कि भारतकी आर्थिक अवस्था दिनों दिन उन्नत हो रही है, पर भारतवासी कहते हैं कि हम दिनों दिन दरिद्र होते जा रहे हैं। इसी मतद्वयीके कारण ऋषिकल्प दादाभाई नौरोजीने कहा था कि भारत दो हैं, एक हिन्दुस्थानियोंका तथा दूसरा अँगरेजों और अन्य यूरोपियनोंका । भारतवासियोंका भारतवर्ष गरीब है,पर अँगरेज और यूरोपियन नाना प्रकारसे-अफसर और व्यापारी रूपसे-यहाँका धन ले जाते हैं, इस लिये भारत उन्हें अमीर देख पड़ता है। सच त For Private And Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - आर्थिक दशा। यह है कि इस देशके लोगोंकी अवस्था बड़ी ही सोचनीय है, और जब व्यापारके आँकड़े दिखा कर हमें हमारी समृद्धि बताई जाती है तब वह कटे पर नमकका काम करती है; क्योंकि वास्तव में समृद्धिके बदले दरिद्रता है और आँकड़ोंकी बाजीगरी उसे समृद्धि बताती है । परलोक-गत मि० डिगबीने 'अपने समृद्धशाली भारत' नामक ग्रंथमें सिद्ध कर दिया है कि भारत बड़ा गरीब देश है और उसमें इध. रके अकालोंमें जितने मनुष्य मरे हैं उतने सौ वर्षोंकी लड़ाइयोंमें भी नहीं मरे हैं। भारत-पितामह दादाभाई और मि० डिगबीके सरकारी कागज-पत्रोंसे भारतकी दरिद्रता सिद्ध करने पर भी अभी तक यह सुनने में आ रहा है कि भारतकी आर्थिक उन्नति हो रही है। कलकत्ता विश्वविद्यालयमें, भूतपूर्व अर्थशास्त्राध्यापक श्रीयुत् मनु सूबे. दारने बम्बई के सिडनहम व्यापारिक कॉलिजकी ग्रेज्युएट्स एसोशियेशन और स्टूडेण्ट्स यूनियनकी ओरसे सप्रमाण सिद्ध कर दिया है कि ३० वर्षों में भारतकी आर्थिक उन्नति होनेकी जो बात कही जाती है वह कल्पना-मात्र है। मि० सूबेदारका कहना है कि व्यापारके आँकड़ोंमें वृद्धि या रोकड़-बाकी, सोनेकी आमद या ज्वाइंट स्टाक कम्पनियोंके मूलधनमें वृद्धि तथा घूमधामी दिल्ली-दरबार जैसी बाहरी बातें भारतकी समृद्धिकी झूठी कसौटियाँ हैं। परन्तु यदि भारत समृद्ध नहीं है तो व्यापार बढ़ता क्यों दिखता है ? मि० सूबेदार कहते हैं कि २५ लाख आदमी प्रति वर्ष बढ़ रहे हैं और भारतमें " औद्योगिक क्रांति " नामकी विपत्ति आई है, इस लिये भारतका व्यापार बढ़ रहा है । जो चीजें खाई नहीं जाती उनकी तथा कच्चे मालकी खेती बढ़ रही है और रेलें होनेके कारण यह कच्चा माल यहाँ तैय्यार होने के बदले विदेशोंको चला जाता है । भारतवर्षकी शिल्पकलाका नाश हो जानेसे चतुर For Private And Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८८ भारतमें दुर्भिक्ष । कारीगर मातृभूमिके भाररूप बन मजदूरी करनेको लाचार हुए हैं। लाखों मनुष्यों पर गत तीस वर्षोंमें जो यह विपद् आई है वह व्यापारके आँकड़े या पाश्चात्य ढंगके कारखाने बढ़नेसे दूर नहीं हो सकती । खाद बाहर भेजने और कण्डे जलानेसे खेतीमें जो वृद्धि हुइ है उससे विशेष लाभ नहीं हो सकता। भारत ऋणी देश है और विदशियोंके अपना मुनाफा फिर इसी देशमें लगा देनेके कारण इस पर बाहिरी लोगोंका दावा ह । इस देशकी मालियत अधिकाधिक बन्धक हो रही है, क्योंकि जिस आसानीसे देशमें विदेशी मूलधन लगाया जा सकता है, और शीघ्रतासे विदेशियोंके नील-चायके बागीचों, खानों, जंगलों, जहाजी-कम्पनियों, रेल-कारखानों, बैंकों आदिमें लगा रुपया बढ़ रहा है और जिस कारण इस देशमें प्रति वर्ष कर रूपसे बहुत सा रुपया विदेश चला जाता है उससे हमें अपनी आर्थिक अवस्था पर विचार करना चाहिए। जो १० करोड़ पौण्ड या डेढ अरब रुपया हमने बृटिश सरकारको दिया है, उसका अर्थ यह है कि इस देशके उद्योग-धन्धे तीस वर्षके लिये बन्द कर दिये गये । भारतका १ अरब रुपया विदेशमें भी लगा है; जिसमें प्रायः सत्तर करोड़ तो पेपर-करेन्सी-रिजर्व में और प्रायः तीस करोड़ गोल्ड-स्टेण्डर्ड-रिजर्व या स्वर्ण-भाण्डारमें है। यह एक अरब रुपया गरीब भारतने बहुत धनी देशको ३॥) से ४||) रु. सैकडे ब्याज पर दिया है और इसमें प्रत्येक १०० का दाम आज ५३ से ७० रह गया है । जब विदेशों में हमारी इतनी कम रकम लगी हुई है और उसका दाम इस तरह घट रहा है, तब हिन्दुस्थानमें विदेशियों द्वारा परिचालित ज्वाइण्ट स्टॉक कम्पनिया और प्राइ. वेट कारखाने बढ़ रहे हैं । होम चार्जेज या हिन्दुस्थानके विलायती खर्चके विषयमें जो बातें हैं उनसे ये भिन्न और अधिक महत्त्वकी हैं For Private And Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आर्थिक दशा। सचमुच इस विषयकी ओर जितना ध्यान दिया जाना चाहिए उतना नहीं दिया जाता । इसका फल यह होता है कि भारतकी दरिद्रताका सच्चा वृत्तान्त प्रकाशित नहीं होता । आर्थिक अवस्थाका जो चित्र मि० सूबेदारने खींचा है, वह बड़ा ही भयंकर है। मि. सूबेदारकी बातोंसे जाना जाता है कि भारत एक प्रकारसे विदेशियोंके यहाँ बन्धक हो रहा है। यहाँ विदेशियोंका जितना अधिक व्यापार फैलता जाता है उतने ही हम दबते जा रहे हैं। हम इस बातके बहुत ही विरुद्ध रहे हैं कि हमें आवश्यकताके समय तो विदेशोंसे अधिक ब्याज पर रुपया लेना पड़े और हमारा रुपया विदेशियोंके यहाँ कम ब्याज पर लगे । पर भारतकी अर्थ-व्यवस्थाकी यह विचित्रता है और जब तक इसका संशोधन न होगा तब तक यही दशा रहेगी। दूसरी बात यह है कि आवश्यकता होने पर हम विदेशियोंसे रुयया उधार लें सही, पर उन्हें अपने रुपयेसे देशका दोहन न करने दें। एक देशका दूसरेसे उधार लेना बुरा नहीं है और काम पड़ने पर रुपयेसे अधिक लाभ उठाने के लिये रुपया उधार लेना भी उचित ही है, पर उस रुपयेकी व्यवस्था हमारी आज्ञासे होनी चाहिए। रेलें बनाने में पानीकी तरह रुपया खर्च किया गया है। प्रारंभमें एक मील रेल बनानेमें ३४ लाख रु. खर्च किये गये थे, क्योंकि पूजीवाले समझते थे कि हमें तो मूल पर ब्याज मिलेगा, चाहे रुपये रेल बनाने में लगा दिये जावें या नदीमें फेंक दिये जावें ! इसी अनापशनाप खर्चके कारण कई वर्षों तक रेल भारत पर बोझ सी रही। मि० सूबेदार कहते हैं कि धन एकत्र करने, सामान और माल खरीदने, पटरी आदि बिछानेके ठेकोंमें बेढब घूस खोरी ही इसका कारण है। मि० सूबेदारने करेन्सी और नोटोंके विषयमें भी मार्केकी बातें For Private And Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २० भारतमें दुर्भिक्ष । कही हैं। बताया है कि जबर्दस्ती १ शिलिंग ४ पेंसका रुपया बनाये रखनेकी व्यवस्था पर प्रसन्नता प्रकट की जा रही है। पर सन् १९०७-९ ई० में और अब समरके कारण यह व्यवस्था नष्ट हो गई है। जब भारतसे जानेवाले मालके पक्षमें एक्सचेंजकी दर गिर रही थी, तब १ शिलिंग ४ पेन्स कर दी गई और जब वह बढ़ने लगी और उससे भारतीय व्यापारको हानि पहुँचने लगी तब दर बढ़ने दी गई; क्योंकि वैसा न करनेसे इंग्लैण्डसे आनेवाले मालको हानि पहुँचती। एक्सचेंज व्यवस्था पर कैसी सुंदर टीका है। नोटोंके विषयमें मि० सूबेदारका कहना है कि जब नोट चला कर सोना बचाया जाय और देशके उद्योग-धन्धोंके सहायतार्थ देशके बैंकोंमें रखा जाय, पर कम ब्याजपर दूसरोंको न दिया जाय, तब नोट चलानेसे किफायत होती है। हमें सब विषयों पर अपने देशके हितकी दृष्टिसे विचार करना चाहिए । इस महा समरके परिणामका इस देश पर बड़ा प्रभाव होगा। पर इसमें धन और जनका जो नाश हो चुका है, वह इस देशमें धन-जनके नाशके सामने कुछ भी नहीं है । अकेले दुर्भिक्षने भारतसे इतने मनुष्योंको यमपुरी भेजा है जितने युद्धक्षेत्रमें भी काम नहीं आये ! भारतकी अन्य देशोंकी तुलनामें मत्यु-संख्या बहुत अधिक है, इसका कारण प्लेग, हैज़ा-ज्वर आदि अनेक रोग तो हैं ही जो शारीरिक निर्बलताके कारण होते हैं, पर सबसे बड़ा कारण एक दुर्भिक्ष है । मि० सूबेदारका यह कहना उचित है कि समरकी अवधिमें ही भारत की स्थिति पर समुचित विचार होना चाहिए। For Private And Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पशु-धन । पशु-धन । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९१ 1 पालतू पशु देशकी एक बड़ी भारी संपत्ति है। भारत प्रत्येक बातमें दरिद्र है । यदि अन्न और धनमें दरिद्र है तो पशुधनमें भी कंगाल है । हमें दुःख है कि यहाँ कृषक तो अधिक हैं, परन्तु पशु कम हैं ! धुरन्धर डाक्टरों और वैद्य शास्त्रियों का यही मत है कि दूध बड़ा बलवर्धक भोज्य पदार्थ है; क्योंकि उसमें मनुष्यजीवनकी रक्षा करने और शरीरको बलिष्ट बनानेवाली सभी वस्तुएँ एवं तत्त्व पाये जाते हैं। केवल दूधके ही पीनेसे मनुष्य भली भाँति स्वस्थ हो कर रह सकता है- फिर चावल, आटे आदि किसी पदार्थकी आवश्यकता नहीं रहती । इसके अतिरिक्त रोगियों, बूढ़ों, बालकों और जवानों आदि सभीके लिये एक मात्र पुष्टिकारक द्रव्य दूध ही है । परन्तु ऐसे आवश्यक और उपयोगी पदार्थका प्राप्त होना दिनों दिन दुर्लभ होता जा रहा है । भारतके अर्थशास्त्र-विचक्षण तथा भिन्न भिन्न प्रकारके लेखे तैय्यार करनेवालोंका मत है कि कोई दस या बीस वर्ष के पश्चात् शुद्ध और ताजे दूधका दर्शन ही उठ जायगा । इस बातके ध्यान में आते ही बड़ी गंभीर चिंता उपस्थित होती है। इसमें सन्देह नहीं कि सभ्यताके बढ़ने के साथ ही साथ मजदूरों की मजदूरी और अन्यान्य आवश्यकीय पदार्थों में वृद्धि होती जा रही है । परन्तु भारत में इस समय जो दूधका भाव चढ़ रहा है वह आवश्यकता से अधिक और असामान्य है, पर सामान्य रीति पर चीजोंके दाम चढ़ने के कारण वह महँगा होता मालूम नहीं देता है । क्योंकि इंग्लैण्ड और अमेरिकामें अन्यान्य आवश्यकीय पदार्थ भारतसे दुगुने और तिगुने दामों पर मिलने 1 For Private And Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष । पर भी वहाँ दूधका भाव एक आने सेरसे अधिकका नहीं होता; जब कि भारतमें, गाँवों या शहरों में कहीं पर भी दूधका भाव ६ आने सेर और ४ आने सेरके औसतसे कभी कम नहीं होता । बालकोंकी चढ़ी बढ़ी मृत्यु-संख्या, राजयक्ष्मा आदि भयंकर प्राण-नाशक रोगोंका प्रकोप, शरीरकी शक्तिका ह्रास और रोगसे आक्रान्त होने की संभावना ये सब यथेष्ट पुष्टिकारक भोज्य पदार्थके न मिलनेके ही कारण होते हैं । विशेष रूपसे दूधके अभावसे ही ये विपत्तिया घेरती हैं। ___ भारतीय राष्ट्रकी रक्षा और उन्नतिके लिये हम सबको उन सम्पूर्ण बातोंके दूर करनेकी चेष्टा करनी चाहिए जो शुद्ध और उत्तम दूधकी प्राप्तिमें विघ्न डाल रही हैं और दूधके भावको बेहद चढ़ाती हैं। हम यहाँ यह सिद्ध करनेका प्रयत्न करेंगे कि गो-पालन और गो-रक्षण ही भारतवासियोंकी दूधकी प्राप्तिकी समस्या हल करनेके लिये ठीक उपाय नहीं है, बल्कि भारतके अनेक शिक्षित और अशिक्षित नव युवाओंको लिये व्यवसायकी व्यवस्था कर देने का भी परमोत्तम साधन है। नीचेका लेखा पढ़नेसे यह बात स्पष्ट हो जायगी कि एक देहाती गायके द्वारा जो खालिस आमदनी होगी वह आमदनी एक ग्रेज्यूएट क्लार्क या एक स्कूल के मास्टरकी आमदनीके बराबर है । दो देहाती गायोंकी जितनी आमदनी होगी उतनी ही एक एम० ए० पास व्यक्तिकी, एक स्कूल के सेकण्ड मास्टरकी अथवा किसी ऑफिसके हेडक्लार्ककी आमदनी होगी। एक स्कूलका हेडमास्टर या प्रोफेसर या जूनियर मुंसिफ जितना पैदा कर सकता है उतना ही वह एक आदमी पैदा कर सकता है जिसके यहाँ चार गायें हैं। For Private And Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पशु-धन । समय ऐसा कठिन आ गया है, और दूधकी माँग इतनी बढ़ी हुई है कि अब दूधके व्यापारको जाहिल और लाल ची ग्वालोंके हाथमें रख छोड़ना कदापि उचित नहीं है । हमें अब उठ कर होशियार हो जाना चाहिए और अपने नवयुवाओंको इस व्यापारकी ओर प्रवृत्त करना चाहिए । क्योंकि इसमें पूजी भी कम लगती है और शिक्षाकी भी बहुत कम जरूरत है। नहीं तो यह होगा कि जैसे अन्यान्य व्यवसायोंको यूरोपियन व्यापारियोंने रुपया लगा कर अपने हाथमें कर लिया उसी तरह इस व्यापारको भी वे अपने अधीन कर लेंगे। अब हमें यह देखना चाहिए कि एक गायके लिये कितनी पूँजीकी आवश्यकता है ? उसके दूधसे कितनी आमदनी होगी और उसके खिलाने पिलाने में कितना खर्च पड़ेगा। ___ मान लीजिए एक देहाती गाय पाँच सेर दूध नित्य प्रति देती है। इस पाँच सेरवाली गायका मूल्य १००) और ९०)के बीचमें होगा। चार आने सेरके हिसाबसे उसका ५ सेर दूध ११) रु० नित्यकी हुआ। अब जरा नित्यका खर्चा जोडिए । दो पैसे प्रति सेरके हिसाबसे ३ सेर भूसा छः पैसेका हुआ, एक आने सेरवाली खली आधा सेर दो पैसे की हुई और भूसी-चोकर इत्यादि दो आने रोजकी मान लीजिए, अत एव सारा खर्च मिला कर ।) आने रोज हुआ। इस प्रकार खालिस आमदनी १) रु० रोजकी हुई । सुतरां एक महीनेकी ३० ) रु० आमदनी हुई, जो कि एक सामान्य ग्रेज्यूएट स्कूल के शिक्षक या किसी दफ्तरके हेडक्लर्ककी मासिक आयके बराबर है। एक बात यहाँ पर यह कह देना है कि ऊपरके आमदनी और खर्चके लेखेमें, गौशालाका किराया, नौकरोंका वेतन, दूधकी बिक्रीकी For Private And Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष । दलाली आदिका खर्च नहीं लगाया है। परन्तु यह खर्च जान-बूझ कर आमदनी और खर्चके लेखेमेंसे निकाल दिया गया है, क्योंकि यह खर्चा केवल उप्ती समय देना होगा जब कि डेरीको प्रणाली पर गो-रक्षणका व्यापार चलाया जाय । इस जगह हमें तो सामान्य रीति पर गो-पालनके व्यवसायका क्रम दिखाना है। इस प्रकारके व्यवसायमें गौएँ गो-पालन करनेवालोंके घरमें ही रहेंगी। गोशालामें उन्हें रखने की जरूरत ही नहीं है । उन गौओंकी देख-रेखका काम भी गौओंके मालिकहीको करना पड़ेगा और गौओंका दूध वह अपने घर पर ही बेचेगा। हाँ उसे हिन्दुस्थानी तरीकेकी पशुचिकित्साका कुछ ज्ञान रखना होगा, इससे गौओंके रोगोंका और उनसे होनेवाली मौतोंकी आशंका बहुत कम रह जायगी। दूधकी दुहाईका जो खर्च होगा, वह गोबरकी खाद या कण्डे बेच कर पैदा किया जा सकेगा। __ बच्चा होने पर आठ महीने तक गौका दूध उसी परिमाणमें होता रहेगा। इसके बाद धीरे धीरे कुछ कम होता जायगा । साल या डेढ़ सालके अनन्तर दूध बिलकुल बन्द हो जायगा। परन्तु इस समय गऊको ३ या ४ मासका गर्भ भी होगा और ६ या ७ महीनेके अनन्तर उसको बच्चा भी होगा। बस इन्हीं ६ या ७ महीनों तक गौकी रक्षा और भरण-पोषणके लिये कठिनता होती है, तथा इसी अवस्थामें यह देखने में आता है कि गौ या तो बधिकके हाथ बेच दी जाती है अथवा लापर्वाहीसे तथा उसे भूखे रखनेसे उसके प्राण चले जाते हैं। झूठमूठकी किफायत और आवश्यकतासे अधिक लालच ही इस बुराईका परिणाम है । यदि दूधसे हटी हुई गौका उसके गर्भवती रहनेकी अवस्थामें भली भैाति भरण-पोषण किया जाय तो अन्तमें उस सबका बदला मिल जाता है और टोटा नहीं For Private And Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पशु-धन । रहता । क्योंकि ६ या ७ महीने तक गौकी गर्भावस्था में उसका भरण-पोषण करनेसे लगभग ५०) रु० खर्च होंगे और जिस समय बच्चा होने के बाद वह पाँच सेर दूध नित्य देगी उस समय वह दूने मूल्यको बिकेगी। ९५ अनादिकाल से भारत दुधार गौओं और दूधकी बहुलता के लिये प्रसिद्ध होता आया है । आज भी भारत में गौओंकी संख्या जितनी अधिक है, उतनी कहीं नहीं है; किन्तु साथ ही यहाँ की जन संख्या भी अधिक है । खेद है कि भारतीय गौएँ भारतीय प्रजा-जनोंके सदृश भी स्वास्थ्य में उतनी अच्छी नहीं रहीं, जितनी कि पहले हुआ करती थीं, और न वे पहले सरीखा दूध हो देती हैं। मूर्खतामें फँस कर गौओंके प्रति निर्दयताका व्यवहार करके ही हमने इस प्रकाकी स्थिति पैदा कर दी है । परन्तु अब इस बातकी आवश्यकता है। कि हम सावधान होकर अपनी की हुई भूलको सुधारें । अब हमें यह विचार करना चाहिए कि दूधके इतने कम परिमाण में और असन्तोष जनक रीति पर मिलनेका कारण क्या है ? इस असन्तोषप्रद स्थितिको दूर करने का हम क्या उपाय कर सकते हैं ? स्वीजरलैण्ड जैसा छोटा प्रदेश भी अपने यहाँ के जमे दूधके डब्बों से संसारके बाजारों को पाट सकता है और भारत जैसा सुविस्तृत देश अपनी आवश्यकता के लिये भी दूध नहीं पैदा कर सकता तो हमारा हृदय बेतरह दुखी होता है । दूध के कम मिलने के प्रधानतया दो कारण हैं । एक तो गौओंकी संख्या में कमी और दूसरे उनके दूध पैदा करनेको सामर्थ्यका हास | ये बातें क्यों पैदा होती हैं। इस लिये कि एक तो अच्छे साँड नहीं मिलते और दूसरे गोचर भूमिका अभाव तथा खाने योग्य For Private And Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ९६ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत दुर्भिक्ष । उचित और यथेष्ट चारेकी कमी के कारण गौओकी शारीरिक अवस्था ठीक नहीं रहती । इनके अतिरिक्त रोगोंके कारण गौओं की मृत्यु और अन्य विधियोंके द्वारा गोवंशका बढ़ता हुआ क्षय भी एक तीसरा कारण है । उत्तम साडों और गोचर भूमिका प्रबंध लोगोंकी पारस्परिक सहयोगिता और सहायतासे तथा सरकार और म्युनिसिपाल्टियों या जिला बोर्ड के ध्यान देनेसे हो सकता है। गौके दूधका परिमाण, उसकी स्वास्थ्यवर्द्धक तथा दूध पैदा करने की शक्ति यह सब उत्तम साडों पर निर्भर है। दुर्भाग्यवश सड अब न तो यथेष्ट संख्या में ही मिलते हैं और न वे सर्वथा सब प्रकारसे योग्य ही होते हैं । उदाहरणार्थ हबड़ा जिलेमें १५०० गौओंके बीच में एक साँड है । यह बड़े आश्चर्यका विषय है कि 1 star तो इतना अभाव और हम गोवंशको उन्नत देखना चाहें ! प्रत्येक गाँव के निवासियोंको चाहिए कि वे ५० गौओंके बीच एक उत्तम साँड रखें । हमारे यहाँ शास्त्रों में इस अभावको दूर करने के लिये " वृषोत्सर्ग " नामक एक कर्मका विधान है, जिसमें मृतक के नाम पर चक्र- त्रिशूलादि चिन्होंसे अंकित कर बैल स्वतन्त्र छोड़ दिये जाते हैं । किन्तु खेद है कि हमारे धार्मिक कृत्यों में भी इस दरिद्रताने शिथिलता उत्पन्न कर दी, तभी तो हमारी यह अधोगति है । कभी 1 कभी ऐसी भी आवश्यकता पड़ेगी कि अधिक दूध देनेवाली और अच्छी गो सन्तान उत्पन्न करनेके लिये, कम दूधवाली मामूली गायके साथ अन्य स्थानका उत्तम साँड बुला कर समागम कराना पड़ेगा । यदि ऐसा किया जाय तो बड़ी होशियारीके साथ कार्य करने की आवश्यकता है। बड़े बड़े शहरों और गाँवोंमें म्यूनीसिपाल्टियों और ज़िला बोर्डे को उत्तम साडोंका प्रबन्ध करना चाहिए। For Private And Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पशु-धन गोचर-भूमिका प्रबन्ध जमींदारोंकी सहायतासे हो सकता है। भारतमें जो गोचर-भूमि थी वह खेतीके काममें ले ली गई है,अत एव सरकारसे भी इस विषय में सहायता मांगनी चाहिए। पशुओंके भिन्न भिन्न रोगोंके निदान और चिकित्सा-सम्बन्धी पुस्तकें प्रकाशित होनी चाहिए । भिन्न भिन्न प्रान्तोंकी सरकारें इस कार्यको कर भी रही हैं । प्रत्येक गो-पालन करनेवालेको गौका भरण-पोषण-सम्बन्धी कार्य स्वयं देखना चाहिए । नौकरोंके रहते हुए भी सब कार्योको अपनी दृष्टि से देखना आवश्यक है। ___ भारतके प्रधान प्रधान नगरोंमें कुछ-न-कुछ अच्छी नस्लकी गायें और बछड़े नित्य ही मारे जाते हैं । अब ऐसा समय आया है कि बिना विचारे गौओंके वध किये जानेकी प्रथाको रोकनेके लिये कानून बनना चाहिए। जो लोग कसाईके हाथ अपनी गौएँ बेच डालते हैं उनमें सदुपदेश द्वारा कुछ धार्मिक प्रवृत्ति भी उत्पन्न करनी चाहिए । बंगालमें जिस प्रकार हबड़ेकी पशु-रक्षिणीशाला है उसी प्रकारकी अनेक संस्थाएँ बननी चाहिए, जहँ। कि नाम मात्रका शुल्क ले कर गौओंकी रक्षा को जाय । ऐसा होने पर गो-पालन करनेवाले अधिक नफा उठानेके लिये अपनी गौओंको बधिकके हाथ न बेचेंगे । प्यारे धार्मिक भारतीयो ! उठो इस कामको अपने हाथमें लो और अब अधिक वेपरवाही इस विषयमें न दिखाओ। आजकल की स्थिति को देख कर यही समुचित मालूम देता है कि “डेरी" को प्रणाली पर गो-पालनका कार्य किया जाय और धीरे धीरे उसका उद्देश और भी अवित विस्तृत कर लिया जाय। और उसमें कृषि-कार्य भो आरभ कर दिया जाय, जिससे कि देशी सदाके लिये स्थायो हो जाय । For Private And Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ९८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष । हिन्दू लोग गौको पवित्र एवं पूजनीय पशु मानते हैं । हम उसे " गौ माता " कहते हैं। पंचगव्यके ( गोवर, गोमूत्र, गोदुग्ध, गोदधि और गोघृत) पान द्वारा हमारे शास्त्रकारोंने बड़े से बड़े पापों की भी शुद्धि कही है, जिसे समय समय पर हम लोग पान कर 'अपनी आत्मा को पवित्र करते हैं । किंतु खेद कि जिसे हम माता कहते हैं उसका माताके जैसा सम्मान कभी स्वप्न में भी नहीं करते । अपनी माताके दुःख निवारणार्थ कोई उपाय नहीं सोचते । हम उसे अपवित्र स्थान में रखते हैं, अपवित्र भोजन देते हैं—मैला पानी पिलाते हैं - भरपेट आहार नहीं देते ! ज्यों ही दूध देने से ठहरी अथवा दुबली पतली या कमजोर हुई कि प्रसन्नता से बधिकके हाथ अल्प मूल्य पर बेच डालते हैं । 2 बड़े शहरों में गौओं की बड़ी ही दुर्गति है । हम कलकत्ते नगरकी गौओं का वर्णन पाठकों के आगे रखते हैं । श्री० हासानन्दजी वर्माने २४ - १२ - १९१८ को एक लेख समाचार पत्रों में छपाया है, वे लिखते हैं कि " कसाई लोग भी अपने घरकी दूधकी गौओंके नीचे, दूध पीते बछड़े - बछड़ी को जुदा करक नहीं मारते । कलकत्ते में बंगाली हिन्दू ग्वाले, हिन्दुओं की जमींदारीमें बस कर, हिन्दू ब्राह्मणों को दूध बेव वच पिलाते हैं और छोटे छोटे दुबमुंहे बछड़े -बछड़ी सबके सामने एक, दो, तीन रुपये तक कसाइयों को प्रति दिन वेचते हैं, जिसकी संख्या कलकते के एक म्युनिसिपालिटी के कसाईखाने की प्रति वर्षकी रिपोर्ट में १०००० एवं ११००० छपती है। बंगालकी अच्छी अच्छी गौ-जाति भी प्रायःकलकते में आआ कर नत्र हो गई । अब बंगा में ४-६ सेर दूधको गौ खोजने पर भी कठिनता से मिलता For Private And Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पशु-धन । है। इन दिनों कलकत्तेमें पंजाब, राजपूताना, युक्त प्रदेश और बिहार आदि प्रान्तोंसे अच्छी अच्छी गौएँ-भैंसें आआ कर नष्ट हो रही हैं। कलकत्तेके ग्वालोंके घरोंमें न तो कभी गौ-भैंस गाभिन होती हैं, न कभी ब्याती ही हैं । वे थोड़े दिनकी ब्याई बाहरसे आई हुई गौएँ खरीदते हैं और तत्काल उनके बछड़े-बछड़ी कसाईयोंको बेच, कुछ मास दिन-रात एक तंग स्थानमें-ऐसे तंग स्थानमें जहाँ बारीबारीसे एक गाय बैठ कर रह सकती है और अन्य गौओंको खड़े रहना पड़ता है, बॉध कर, फूंका दे दूध निकालते हैं। और दूध कम होने पर, लाभ न होनेसे, दूध देते समय १३५) १५०) २००) तक खरीदी हुई गौ-भैंस, ३१), ४१) या ५१) रु० तक कसाइयोंको बेच डालते हैं। और दूसरी दूधकी गौ खरीद कर अपने दूधका कार-बार पूर्ववत् चलाते हैं। फिर उसकी भी ऊपर लिखे अनुसार दुर्गति करते हैं। जिस माँति कलकत्तेमें दूधके कारबारी गाय-भैसोंके साथ उनके बच्चोंका भी नाश कर रहे हैं उसी प्रकार बम्बई में भी दूधके पश्चात् यह उपयोगी पशु नाश हो रहे हैं । भारतके अन्य नगरों में भी इसी प्रकार दूधके कारबारियों द्वारा गो-वंशका नाश हो रहा है । जो हो, अगर अपना और अपनी वर्तमान सन्तानोंके साथ साथ देशका भी मंगल चाहते हो तो पूर्व कालानुसार, गोचर-भूमि छोड़नेके निमित्त भारत-सरकार, राजा 'महाराजाओं और जमींदार-तालुकेदारोंसे प्रार्थना करो और जब तक गोचर-भूमि छूटे लगातार इसकी चेष्टा करते रहो।" वर्माजीके उक्त कथनसे ऐसा कौन निर्दय होगा जिसके मन में एक बार दयाका संचार न हो उठे ! जो नगर-निवासी इस भैाति For Private And Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०० भारत में दुर्भिक्ष | दुखी गाय-भैंसोंका दूध पीते हैं वे उनका दूध नहीं बल्कि.......... पीते हैं, यह कह दें तो अनुचित न होगा । गायका धर्मसे क्यों सम्बन्ध है ? इस प्रश्नका यह उत्तर है कि हमारे त्रिकालदर्शी महर्षि प्रत्येक उपकारी पदार्थका धर्मसे इस लिये सम्बन्ध जोड़ गये हैं कि अज्ञानी जन उनके गुणोंको न जान कर कहीं उनके अपमान द्वारा संसारका अपकार न कर सकें । इस कारण वे उपकारी गौ आदि चैतन्य पदार्थों से लेकर पीपल, तुलसी आदि जड़ पदार्थों तकका धर्म से सम्बन्ध जोड़ गये हैं कि जिससे अज्ञानी जन धर्मके भयसे उपकारी पदार्थों का अपमान या नाश न कर सकें। यह कृत्य केवल हमारे ही महर्षियोंका नहीं है। देखो हजरत मोहम्मद साहब खजूरके वृक्षकी कैसी बड़ाई करते हैं । मोहम्मद साहब फरमाते हैं -- “ बड़ाई करो अपने खजूरके वृक्षकी जो मिट्टी आदमकी बनावटसे बची थी, उससे खजूरका वृक्ष खुदाने बनाया । " इसी लिये मोहम्मद साहब ने आज्ञा दी है कि खजूर के वृक्षको मान्य समझो । 1 अब यह प्रश्न होगा कि खजूरका वृक्ष इतना मान्य क्यों है ? उत्तर यह है कि यदि खजूर के वृक्षको इतना आदर नहीं दिया जाता तो मूर्ख मुसलमान लोग उस वृक्षको नष्ट कर डालते और उसके नष्ट होने पर जीवन निर्वाह के लिये उन्हें कठिनाई पड़ती। क्योंकि उस समय अरबमें सिवाय खजूर - वृक्षके और कोई पदार्थ मनुष्यों के जीवनका आधार नहीं था । इसी कारण उसका इतना मान करना लिखा गया है। साइबेरिया देशके रहनेवाले बकरीके चमड़ेको पूजते हैं, जब उनसे इसकी पूजाका कारण पूछा जाता है तो वे उत्तर देते हैं कि यदि बकरीका For Private And Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०१ पशु-धन । चमड़ा न हो तो हम इस शरद-देशमें मर जायँ, इसी कारण हम इसे पूजते हैं । स्वीडन और फिन्लैण्डके रहनेवाले भी जानवरों को पूजते हैं। मनुष्यका यह स्वभाव ही है कि जिससे उसको लाभ होता है, उसकी वह इज्जत और बड़ाई करता है । फिर यह दूध, घी तथा अन्न-वस्त्र-दाता, गाय और बैलका हमारे महर्षि धर्मसे सम्बन्ध कर गये तो कुछ बुरा काम नहीं किया, बल्कि वे संसार अरका उपकार ही कर गये हैं। __ अब हमें यह देखना है कि क्या दुर्भिक्षका कारण गो-वध है ? आजकल जो भारतके प्रत्येक प्रान्तमें घोर दुर्भिक्ष फैला हुआ है उसके अनेक कारणोंमेंसे एक प्रधान कारण गो-वंशका नाश भी है। क्योंकि भारतभूमिकी उपजाऊ शक्ति गो-वंशके साथ-ही-साथ विनष्ट होती जाती है । कारण भारतके बैल, गौ तथा भैंस आदि पशु केवल मनुष्य जातिको ही घृत-दुग्धादिसे परिपालित नहीं करते, बरन् उनके गोबरकी खादसे खेतोंकी उपजाऊ शक्ति बढ़ती है, गोबरके कण्डोंसे भोजन बनता है, जिससे वृक्ष काट कर जलानेकी आवश्यकता कम रहती है। जिस देश में वृक्ष अधिक और हरे-भरे रहते हैं वहँ! वर्षा बहुत होती है । भारतकै बैल और भैंसें हल जोतने, कोल्हू चलाने और गाड़ियों के द्वारा व्यापार तथा मनुष्योंकी यात्रामें बड़े ही काम देते हैं । हाय आज उसी गो-वंशका तथा महिषवंशका ऐसे अविचारसे नाश किया जा रहा है कि जिससे थोड़ेसे मनुष्योंका पेट पालन होता है, पर समस्त भारतका नाश होता जा रहा है। एक ओर प्रति दस वर्ष भारतकी जन-संख्या बढ़ती है तो दूसरी For Private And Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष । ओर पशुओंकी संख्या घटती है। दूसरे बैलों और भैंसोंको बधिया बनाके पशु-वंशका नाश किया जाता है। तीसरे महा लोभी ग्वाले जो दूध बेचनेका व्यापार करते हैं; पशुओंको इतनी कम खूराक दते हैं कि जिससे उनके पशु प्रायः बीमार होकर मर जाया करते हैं। हम देखत हैं कि आजकल भारतके सब नगरोंकी म्यूनिसिपाल्टियाँ पशुआ पर टेक्स लगा कर प्रति वर्ष हजारों रुपये वसूल करती हैं, परन्तु पशुओंकी चिकित्साके वास्ते ऐसे डाक्टर नहीं रखती, जो पशुओंकी देख-भाल किया करें । हमने देखा है कि सैकड़ों दुष्ट ग्वाले गौ और भैसोंका फूकेसे दूध निकालते हैं, जो महा वृणित रीति है, इससे पशु बहुत जल्दी मरते हैं । __ हिन्दुओंमें गो-बंशको बढ़ानेवाली वृषोत्सर्ग (श्राद्धमें बैलको दागकर छोड़ने) की जो रीति है, उसकी ऐसी बुरी दशा है कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता। आजकल इस भयंकर दरिद्रताके कारण इस वृषोत्सर्ग-श्राद्धको कोई करता ही नहीं और यदि करते हैं तो उन दागे हुए सांडोंको लावारिस समझ कर या तो म्यूनिसिपाल्टियोंकी मैलागाड़ी में जोत दिया जाता है या कोई मार डालता है ।। इसके अतिरिक्त आजकल गोमांसका व्यापार इतना बढ़ गया है कि जिसके कारण भारतमें पशुओंकी संख्या घटती ही जा रही है। भारतवर्षमें रहनेवाले मांस-भक्षियोंके पेट-पालनार्थ जितने पशु मारे जाते हैं, उनसे अधिक वर्मादेशके सूखे मांस-व्यापार के लिये केवल संयुक्त प्रांत में प्रति वर्ष १३४०५८ पशुओंका वध होता है। जिसका निम्नलिखित व्यौरेबार हिसाब सन् १९१९ में भारतवर्षीया For Private And Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पशु-धन । १०३ गोरक्षणी-सभाके सभापति आनरबल सुखवीरसिंहजीने अपने व्याख्यानमें प्रकाशित किया था। उन्होंने कहा था कि सन् १९१२ में उक्त व्यापारके वास्ते मौजा गालपुर, तहसील अनूपशहर, जिला बुलन्दशहरमें २०००, अलीगढ में ३९५१०, सिकन्दराराऊमें ७०८९, सादाबादमें १६८०, मथुरामें १७५०, झुरुआनाला इतमादपुर ( आगरा ) में २६५४०, फीरोजाबादमें ६००, इतमादपुरमें १४०, खन्दौली तहसील इतमादपुरमें ४५, फटाधरती (आगरा) में ४०५५, शजवालपुर (तहसील अलीगंज ) में ५००, बरेलीमें १३१७२, फरीदपुर में ५००, ग्राम शहबाज नगरमें ५८००, जहानगंज रसूलपुरमें २५००, सती चौरी (ग्राम) में २३००, संभलमें ७५८, भोजपुर ( ग्राम ) में २०००, अमरोहामें १६८०, फतहपुरमें ३००, कसबा कमालपुरमें २५०, जहानाबादमें ६०, ऐरानमें ५००, कौंचा भँवरमें १०१९२, ललितपुरमें ७६६३, कौचमें ४३५३, पनवाड़ी ( ग्राम ) में ८००, राठमें ८९९, मौदहामें २०३२, महोबामें ४०७७, हुसेनपुरमें ४९३ और आजमगढमें ६० पशुओंका वध हुआ था। यह हिसाब केवल उस मांस-व्यापारका है जो वर्माको भारतवर्षके एक प्रान्तसे भेजा जाता है । यदि सब प्रान्तोंका हिसाब जोड़ा जाय तो न मालूम कितना हो ! अब यह भी विचारना चाहिए कि इस पशु-संहारसे भारतको कितनी हानि पहुँच चुकी है ? पाठकवर्ग ! अकबरके समयका अन्नका भाव तो आप पीछे पढ़ ही आये हैं, उसमें हमने दूधका भाव नहीं बतलाया है। अब हम अलाउद्दीन खिलजीके शासन-कालका, अर्थात् सन् १३०४ ई० में दूधका For Private And Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०४ भारतमे दुर्भिक्ष । भाव बतलाते हैं । उस समय “ एक रुपयेका छः मन दूध मिलता था।" आश्चर्य न कीजिए यह बिलकुल सत्य है ।। . . जब सन् १८५७ ई० में ईस्टइण्डिया कम्पनीका शासन फैला हुआ था, उस समय एक रुपयेके ३९ सेर गेहूँ, साढ़े ५१ सेर चने, १८ सेर चावल, ४ मन दूध और ४ सैर घी बिकता था। सन् १८९० अर्थात् आजसे ३० वर्ष पूर्व ही एक रुपये के २५ सर गेहूँ, २८ सेर चने, १२ सेर चावल, पैसे सेर दूध, रुपयेका दो सेर घी और २३ सेर उड़द मिलते थे। परन्तु सन् १९१८ में एकदम दुर्भिक्षका वज्र टूट पड़ा और एक रुपयेके ५ सेर गेहूँ, ६ सेर चने, ३ सेर चावल, ४ सेर दूध, ४ सेर उड़द और नौ छटॉक घी बिकने लगा और सन् १९२० में घीका भाव ५|| छटाक ही रह गया ! जिन दुधमुंहे बच्चोंको भारतमें जलकी भाँति घी और दूध पीनेको मिला करता था वही अब घी और दूधकी महँगीसे सब देशोंसे अधिक भारतमें मरते हैं । उक्त सभापति महोदयने बच्चोंको मृत्यु-संख्याका हिसाब इस प्रकारसे बतलाया था । एक वर्षसे दो वर्षकी अवस्थावाले बच्चे इंग्लैण्ड में फी सैकड़ा आठ, आस्ट्रेलियामें ७ और भारतमें फी सैकड़ा ४८ मरते हैं। २ से ३ वर्ष तकके बालक इंग्लैण्ड में फी सैकड़ा ९, आस्ट्रेलियामें १२ और भारतमें ११ मरते हैं। ३ से ४ वर्ष तकके इंग्लैण्ड में फी सैकड़ा ७, आस्ट्रेलि. या १२ और भारतमें ५ मरते हैं। ४ से ५ वर्ष तककी अवस्थावाले इंग्लैण्डमें फी सैकड़ा ९, आस्ट्रेलियामें १३ और भारतमें ११ मरते हैं । इस हिसाबसे स्पष्ट सिद्ध होता है कि एकसे दो वर्ष तककी For Private And Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पशु-धन । अवस्थावाले बच्चे भारतमें सब देशोंसे अधिक मरते हैं। जिसका प्रधान कारण यही है कि भारतकी संतानवती स्त्रियोंको वह खाद्यपदार्थ कि जिनसे उनके स्तनोंमें नीरोग दूध बनता है, इतने कम मिलते हैं कि जिनके अभावसे उनके बच्चे जी ही नहीं सकते । ___ अब तो हमारे पाठक समझ गये होंगे कि भारतके दुर्भिक्षका ही नहीं बरन् सर्वनाशका प्रधान कारण गो वंशका नाश है । अत एव हमारो प्रजा-रक्षक गवर्नमेण्टको चाहिए कि गो-वध निवारणके वास्ते शीघ्र ही कोई उचित आईन बनानेका प्रबन्ध करे। यह एक प्रसिद्ध बात है कि मुगल-सम्राट अकबरने नरहरि कविसे निम्न पद्य सुन कर गो-वध बिलकुल ही बन्द करा दिया था। तो क्या हमारी ब्रिटिश गवर्नमेंट हमारी प्रार्थनाओं पर तनिक भी ध्यान न देगी? "तृण जो दन्त तर धरहिं तिनहिं मारत न सबल कोइ, हम नित प्रति तृण चरहिं बैन उच्चरहिं दीन होइ । हिन्दु हि मधुर न देहिं कटुक तुरकहिं न पियावहि, पय विशुद्ध अतिस्रवर्हि बच्छमहि थंभ न जावहिं ! सुन साह अकबर ! अरज यह कहत गऊ जोरे करन, सो कौन चूक मोहिं मारियत मुए चाम सेवहुँ चरन ।" वर्तमान कालमें गो-वध एकदम बन्द हो जाने की अत्यन्त आवश्यकता है। हिन्दू लोग पशुओंकी रक्षा करनेका पूर्ण प्रयत्न कर रहे हैं, उन्होंने बहुतेरे पिंजरापोल तथा गोशालाएँ खोल रखी हैं । अनुमानसे उनकी संख्या ६०० से कम न होगी, तथा उनका व्यय भी वर्ष भरमें १,००,००,०००) रु. होता है । परंतु ये यथा नियम For Private And Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०६ भारत में दुर्भिक्ष । नियंत्रित नहीं की गई हैं । उनमें बहुतसे पशु कमजोर हैं, उनकी मेरी राय में कुछ प्रबन्ध तथा आय वृद्धि करने का कोई उपाय नहीं किया जाता निरीक्षक और परीक्षक नियत किये जायें, जो कि व्ययके विवरणको देख कर अपनी अनुमति दें, जिस पर प्रत्येक कमेटी उसीके अनुसार कार्य करनेका उद्योग करे । इसके लिये प्रत्येक कमेटी अपने फण्डके अनुसार धन दे । गोशालाओं में एक शाखा तो अच्छे पशुओंकी वृद्धि करे तथा दूसरी शाखा रोगी पशुओं का प्रबन्ध करे | इन गोशालाओं की देख-भाल के लिये प्रत्यक प्रान्तों में एक सेण्ट्रल कमेटी स्थापित की जाय । प्रत्येक कमेटीकी ओरसे चतुर पशु चिकित्सक तथा डेरी फार्मर नियुक्त हों । ये लोग गोशाला के मैनेजरको पशु-चिकित्साकी मोटी मोटी बातें बतलावें तथा दूध उत्पन्न करनेकी वैज्ञानिक रीति उन्हें सिखलावें । परन्तु जब तक नसलें न बढ़ाई जायें तथा आसपास के ग्रामों के लोगों को अच्छे तथा नीरोग बैलोंके रखनेका महत्त्व न समझाया जाय तब तक अपेक्षित उन्नति होना नितान्त असंभव है । गौ-रक्षाका एक सहल तरीका यह भी है कि प्रत्येक हिन्दू कमसे कम एक गाय अवश्य रखे तथा गाय बेचना पाप समझे । 1 । अकालमें जहाँ मनुष्योंकी मृत्यु बेहद होती है वहाँ ढोरोंका तो बचना ही कठिन बात है । उस समय २५ फी सैकड़ा ढोर जीवित रहते हैं, शेष मर जाते हैं । बंगालको छोड़ कर सारे भारतवर्ष में पशुओं की संख्या सन् १९०० में केवल ९०७ लाख थी, आस्ट्रोलिया में १,१३५ लाख पशु थे, जहाँ की आबादी कुल ४० लाख हैं आजसे ४० वर्ष पूर्व जब भारत में १४ करोड़ मनुष्य थे तब २७ करोड़ गाय बैल थे, अर्थात् एक मनुष्यको दो पशु हिस्से आते थे ' ! For Private And Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पशु-धन । परन्तु आज ३१३ करोड़ मनुष्योंमें केवल चार करोड़ गौ-बल हैं ! अर्थात् आठ मनुष्योंके हिस्से में एक पशु आता है । सभी गौएँ नहीं हैं। इन चार करोड़में बैल भी शामिल हैं । किन्तु यदि बैलोंके स्थान पर भैसें मान ली जावें तो सभी लगातार दूध नहीं देतीं; साल भरमें औसत नौ महीने दूध देती हैं। सारांश यह कि ३१३ करोड़ भारतीय केवल ३ करोड दुधारू पशुओं पर अपना निर्वाह करते हैं। अर्थात् औसत १० मनुष्योंमें एक दुधारू पशु है । यदि ३ सेर दूध नित्यका समझ लिया जाये तो पाँच छटाँक दूध प्रत्येक आदमीके हिस्सेमें आता है । इसे चाहे वह पीले, चाहे दही बना ले, अथवा घी निकाल ले । कहिए तब किस प्रकार भारत बलवान् हो सकता है ? जिस देशमें पुष्टिकारक पदार्थ खानेको नहीं वह देश क्यों कर बलवान् हो सकता है! गो-वंशके नाशके साथ-ही-साथ हमारा बल भी नष्ट हो गया। हम नीचे एक नकशा देकर यह दिखलाना चाहते हैं कि किस देश के पास कितना पशु धन है। किंतु स्मरण रखिए यह गणना सन् १९०६-७ की है देश, घोड़े, गाय-बैल, भेड़, बकरी, सुअर ! इंग्लैण्ड २० लाख, ११६ लाख, ३०० लाख, + लाख, ३९लाख आस्टेलिया १८ , १०० , ८६२ , + , ७" कनाड़ा १५ , ५५ , २५ " + , २३ , फ्रांस ३१ ,, १६९ ,, १७४ , १४ ,, ७० ; जर्मनी १३ १ २०५ , ७६ ,, ३५ ,, २२० । जापान १४ ,, ११ , + ,, + ,, २ . अमेरिका १९७, ७२५ , ५३२ ,, ,,५४७ भारत १५ , १११७ ,, २२ हजार २८५,, + : For Private And Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०८ भारतमें दुर्भिक्ष। प्रत्येक देशकी तुलना करते समय, उस देशकी जन-संख्याका भी ध्यान रखिए । भारतकी पशु-संख्या अधिक देख कर सबोंसे उच्च न मान लीजिए; क्योंकि यहाकी जन-संख्या ३१ करोड़ है। डेन्मार्कमें सन् १८८१ में ९ लाख गौएँ थीं, और सन् १९०७ में १३ हो गई। उस समय वे ४५० गेलन दूध देती थीं; किंतु अब ५८५ गेलन दूध प्रति वर्ष प्रति गाय हो गया ! अन्य देशोंमें लोग पशु और अंडजोंको वैज्ञानिक रीतिसे पालते हैं और मालामाल हो जाते हैं, पर भारतवासी अपनी मूर्खता और दरिद्रताके कारण पशु-संख्या कम करते जाते हैं। यहाँ उत्तम वैज्ञानिक पशुशालाका कहीं नामोनिशान भी नहीं है। प्रति वर्ष हमारे ना-समझ मुसलमान भाई ईदके दिन सहस्त्रों गउएँ वध कर डालते हैं-गऊ-वधके साथ ही दंगे हो जाते हैं, जिनमें अनेकों हिन्दू-मुसलसान काम आते हैं। ___ सन् १९१० ई० में भारतमें कुल अठहत्तर हजार, एक सौ बारह अँगरेज थे। इन सबका प्यारा भोजन बीफ (Beaf) अर्थात् गोमांस है। यदि प्रति जन एक पौण्ड भी मान लिया जा तो नित्य ९४६ मन या वर्षमें ३,४५,२९० मन गोमांस ये हजम कर जाते हैं। जरा ध्यान दीजिए, इतने गोमांसके लिए कितनी गौओंका वध दरकार है ? यह हम लोगोंकी प्रार्थनाओंका फल है कि आस्ट्रेलियाजहाँसे गोमांस सुविधाके साथ आ सकता है-नहीं मँगाया जाता और हमारे भारतसे ही यह जबरदस्ती लिया जाता है । अन्य देश अपने उपयोगी पशुधनको कभी नहीं देना चाहते । यह तो निर्बल भारतके सिर ही दंड है। एक कहावत भी है कि For Private And Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पशु-धन। " नामर्दकी जोरू सबकी औरत " सो दशा भारतवर्षकी है । अमरीकाकी गौएँ निकम्मी होती हैं। उनसे अँगरेजोंकी अवश्यकता पूरी हो सकती है, पर नहीं, इन्हें तो भारतकी गौओंका ही मांस सुस्वादु लगता है। इधर मुसलमान भाई भी जिनकी संख्या लगभग ६ करोड़ है, प्रायः गोमांस खाते हैं, मानों गाय मुसलमानोंके बालकोंको दूध-घी देकर पुष्ट नहीं करती, केवल हिन्दुओंको ही पुष्ट करती है, और इनके खेत तो तुर्किस्तान और अरबसे ऊँट आकर जोत जाते हैं। भारतकृषि प्रधान देश है। यहाकी भूमिको फाड़ कर अन्न उत्पन्न करनेकी शक्ति केवल बैलोंमें हो है-इन गौपुत्रोंमें ही है। गो-वंशकी क्षीणतासे बैलोंका मिलना कठिन सा हो गया। अच्छे बैलोंका मूल्य १५० ) या २००) रुपया तक हो गया । कहिए भारतके दीन कृषक कहाँसे इतने मूल्यवान बैल खरीदें और खेती करें ! यहाँके दुर्भिक्षका कारण एक नहीं किन्तु अनेक है। जिसबात पर ध्यान दोगे वही दुर्भिक्षका कारण नहीं तो सहायक अवश्य सिद्ध होगी। ___ अमेरिका आदि देशोंमें घोड़ों और यंत्रों द्वारा भूमि जोती जाती है, अन्न बोया जाता है, खेत सींचा जाता है, निंदाई होती है, काटा जाता है, पूले बँधते हैं, अन्न निकाला जाता है इत्यादि; किन्तु भारतकी भूमि जोत डालना बोड़ोंकी शक्ति के बाहर है। यंत्र आदि खरीद कर काम चलाना भी निर्धन भारत की शक्तिले बाहर है । खैर, यदि यंत्रोंसे भूमिको जोता और बोया भी जाय तो क्या दूध-घी भी यंत्रोमेसे दुह लोगे ? ग्वालियर राव्यान्तर्गत पछार स्थानके निवासी मि० गोरावालाने अमरीकाके अनुसार घोड़ों द्वारा कृषिकार्य आरंभ For Private And Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्मिक्ष। किया था, किन्तु सफलता न हुई । इस देशके लिए तो केवल गो-पुत्र बैल ही कृषिकार्य में उपयोगी जानवर हैं। ___ यहाँ पर कसाइयोंकी संख्या ३,४५, ९३३, है । अन्य देशोंमें भी कसाई और मांस-भोजी हैं, पर हमारे देशके कसाइयों की भाँति उत्तम और उपयोगी पशुओंका गला वे नहीं काटते । यहाँ भी उपयोगी पशु काटना निषेध है, किंतु धन-लोलुप पशु-परीक्षक डाक्टरको कुछ रुपये घूस दिये कि वह अच्छे पशुको भी मारनेकी आज्ञा दे देता है। जिस भैाति अन्न विदेशोंको जाता है उसी प्रकार भारतके जीवित पशु भी बाहर जाते हैं । सन् १९०९ तक दस वर्षोंमें ३२०८८०९ जीवित पशु २०५०४७३०) रु० मूल्यके जल-मार्ग द्वारा बाहर भेजे गये और स्थल-मार्गसे तिब्बत आदि देशोंको १५७५९२७ पशु ९४५५५६५) रु० के बाहर भेजे गये । हमने तो ढोरों से इतना ही रुपया पैदा किया और भारतीय पशु-संख्याकी कमी की ! पर अमरीकाने सन् १८९९ में ४३ करोड़ रुपयोंके अण्डे और ४१ करोड़के अण्डज जीव बेचे । जापानमें सन् १९०४ में १६२५०००० मुर्गियाँ और ७५ करोड अण्डे हुए । इंग्लैण्डने एक वर्ष में १६ करोड़, जर्मनीने २ करोड़, फ्रांसने ८ करोड़ नार्वेने ३ करोड़, और कनाड़ाने ८ करोड़ रुपयोंकी आमदनी मछलियाँ बेच कर की। ___ भारत दरिद्र है, भूखा है, परतंत्र है, दुर्भिक्ष पर दुर्भिक्ष देख रहा है, या यों कहिए कि इसमें सदैव ही दुर्भिक्ष नाचा करता है, ऐसी अवस्थामें गाय-बैल रखनेका साहस कौन कर सकता है । चारेका अकाल भी तो साथ ही भयंकर रूपसे पशु-जगत्का संहार कर रहा For Private And Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पशु-धन । है । अन्तमें भूखों मरते अपनी गौएँ अपने हाथों जान-बूझ कर कसाइयोंके हाथ अल्प मूल्य पर देकर हम अपनी जठर-ज्यालाको शांत करते हैं। क्या इस भाँति गुजर करना गोमांस भक्षणसे किसी प्रकार कम है ? परन्तु " बुभुक्षितः किं न करोति पापम् ? मरता क्या न करता । अन्तमें अपने हिंदुत्वको हमें जलाञ्जलि दे देनी पड़ती है। दुर्भिक्षके कारण लोग भूखों मरते हैं, ईसाई हो जाते हैं और मांसभक्षियोंकी-गोमांस-भोगियोंकी-संख्या दिन प्रति दिन बढ़ती ही जाती है। यही कारण है कि “ अहिंसा परमो धर्मः" की दुहाई देनेवाला भारत, बुद्ध जैसे अहिंसा धर्मके प्रचारकको उत्पन्न करनेवाला भारत अपने उदरमें २० करोड़ मांस-भोजी लिये बैठा है ! हे श्रीकृष्णचन्द्र, हे गोपाल, तुम कहाँ हो, आओ अपनी प्यारी गोजाति तथा अपनी मातृभूमिकी शीघ्र रक्षा करो। यदुनाथ ! विलम्ब करोगे तो अच्छा न होगा । हम दिल्लीसे प्रकाशित होनेवाले - "हिन्दी-समाचार" के ता० १६ जुलाई सन् १९१९ के अंकमें प्रकाशित एक लेखको यही उद्धृत कर, अब इस विषयमें अधिक कुछ न लिखेंगे । कारण ठीक यही दशा सारे भारतवर्षकी है। ___" बच्चे, बूढों तथा निरामिष भोजियोंका एक मात्र बलवर्द्धक पदार्थ दूध, घी है। दिल्ली में बहुतसे नौ जवान ऐसे हैं, जिन्होंने अपने बाल्यकाल में रुपयेका सवा सेर घी तथा एक आने सेर शुद्ध दूध लिया है । परन्तु अब कई वर्षसे विशेषतः जबसे दिल्लीके सिर पर राजधानीकी कलगी लगी है, दूध, घीकी महँगीने अमीर गरीब सबका नाकमें दम कर रक्खा है। For Private And Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११२ भारतमें दुर्मिक्ष । इस समय सरकारको शत्रुके पराजित करनेके लिये शूरवीर, पराक्रमी योद्धाओंकी परम आवश्यकता है। हिन्दू-जातिके बल, तेज, पराक्रमका एक मात्र आधार दूध-घी है। यदि ये दोनों पदार्थ उसको दुर्लभ हो गये, जैसा कि दिनों दिन होते जाते हैं, तो हिन्द-जाति तेजहीन, निर्बल, कायर हो जायगी और फिर स्वदेश और सरकारकी रक्षा किस प्रकार कर सकेगी? इस बात पर हमारे शासकोंको ध्यान-पूर्वक विचार करना चाहिए। यदि बल-वर्द्धक पदार्थों के न्हाससे हिन्दुस्थानी नामर्द हो जायेंगे तो साम्राजका पता न लगेगा। २७ जूनको New Zaeland के प्रधान मंत्री Mr. Hughes ने जो वक्तृता Lonodon Chambers of Commerce के सम्मुख दी है उसकी ओर हम भारतवर्षकी प्रजा तथा शासक दोनोंका ध्यान दिलाते है। वे कहते हैं:-Two things are necessary to enable us to bold obr own. firsty ability to defend ourselves against our enemies and secondly. ability to proqace wealth and develop the economic resources of labour. Inda and capital so as to support a nume, rous. aviril and happy people. Anypolicy of ignoring the intimate relationship between national safety and economic welfare is doomed sooner or Iater to destroy the nation adopting it." __ अर्थात् बहु संख्यक शूरवीर तथा सुखी, सन्तुष्ट पजामनों के रक्षार्थ हमें दो बातोंकी आवश्यकता है ! एक तो यह कि हम दुश्मनसे अपनी रक्षा करने की योग्यता सम्पादन करें, दूसरे मजदूरो, धरती For Private And Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पशु-धन । और पंजीके ऊभायक उपायोंकी वृद्धि करें। यदि कोई जाति इन दोनों बातोंकी सहयोगिता . पर ध्यान न देगी तो उसका नाश निश्चय है। __ भारतवर्ष में धरतीका आधार गो-जाति है; और सुखी-सन्तुष्ट, बहादुर प्रजा-जनोंका भी एक मात्र आवार दूध, घीकी उत्पादक गो-जाति ही है । गौकी रक्षाको हम धार्मिक दृष्टिसे नहीं देख रहे हैं, पर यह वास्तवमें भारतवर्षके जीवन-मरणका प्रश्न है। _ मसल मशहूर है कि " मरतेको मारे शाहमदार । " दिल्लीमें दूध दिनों दिन महँगा क्यों होता जाता है, जरा पाठक ध्यान दें। कोई ३-४ वर्ष पहले प्रायः सब घोसी शहरके आसपास रहा करते थे । उनके पशुओं पर साधारण ॥) सेमाही टैक्स था और दूधको हलवाई की दूकान पर पहुँचानेकी मजदूरी नाम मात्रकी थी और कोई चुंगी शहरमें दूध लाने पर न ली जाती थी। अब कोई २-३ वर्षसे कमेटीकी कृपासे फसीलके भासपास रहनेवाले घोसियोंको शहरसे निकाल कर यमुना पार झीलकुरजा नामक गावमें बसाया गया है । जो घोसी बाहर जानेमें असमर्थ थे उनके पशुओं पर फी भैंस ५) मासिक टैक्स लगाया गया। यही नहीं जो दूध इस गावसे तथा म्युनिसिपलकी सीमाके बाहरसे आवे उस पर दो आने मनकी चुंगी लगाई गई, जो शायद संसारमें कहीं नहीं है। एक भारी टैक्स, दूसरी चुंगी, तीसरे दूधको इतनी दूर बाहरसे लानेका किराया-इन सब बातोंने मिल कर दूधको इतना महँगा कर दिया है कि अमीर गरीब सबको उसके लिए तरसना पड़ता है। झोलकुरजा नामक गाँवमें कोई ८० घोसी हैं, जिनके पास कोई For Private And Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११४ भारतमें दुर्भिक्ष । १५०० पशु हैं । इस गाँवके पास ही एडवर्ड कवेन्टर साहबकी मक्खन निकालनेकी कई मशीनें लगी हुई हैं । हमें मालूम हुआ है कि केवल ४-५ को छोड़ कर प्रायः सब घोसी डेरीमें दूध देते हैं । सो मक्खन निकाल कर जो Skimmed milk अर्थात् मशीनका दूध होता है वह हतभाग्य हिन्दुस्थानियोंको ऊँचे दामों पर मिलता है और मक्खन-मलाई गोरे चमड़ेवालोंके काम आता है । लोग शिकायत करते हैं कि भई दहीमें चिकनाई नहीं होती और दूध पर मलाई नहीं जमती। जमे कैसे तुम्हारे भाग्यमें नीला पानी जो बदा है ! __कमेटीकी ५-६ दूकानें बेशक ) सेर दूध बेचती हैं, पर इन पर केवल १०-१२ मन दूध आता है, जो इतने बड़े शहरके लिए काफी नहीं है । कमेटीकी दूकानें मालूम होता है एक प्रकारको चाल है, जिससे वह अपने अन्याय-युक्त टैक्सोंको छिपाना चाहती ह। यदि कमेटी वास्तवमें प्रजाका हित चाहती तो हर गली कूचेमें अपनी दूकानें खोल कर काफी दूध ) सेरमें शहरवालोंको देनेका प्रबन्ध करती। ___ भैंस पर तो २) मासिक टैक्स था ही, अब अफवाह गर्म है कि गौ पर भी २॥) मासिक टैक्स लगनेवाला है। इसका यही अर्थ हो सकता है कि सब पशु शहरके बाहर ले जाओ और वहासे मशी-- नका निकला दूध ऊँचे दामों पर लेकर पिया करो। निकम्मे दुधको पीकर प्रजामें कहाँसे बल आवेगा? क्या ऐसी मरियल प्रजाकी सहायतासे हमारी सरकार शत्रुको जीतना चाहती है ? बुरी अफवाहें कम झूठी निकलती हैं, इस लिए दिल्लीवालोंको For Private And Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पशु-धन । चाहिए कि अपने स्वत्वोंकी रक्षाके लिये वे कटिबद्ध हो जावें। हमारी राजनैतिक संस्थाओं यथा इंडियन एसोसिएशन,हिन्दू-एसोसिएशन, काँग्रेस कमिटी, मुस्लिम-लीग तथा होमरूल-लीगको मिल कर इसका घोर प्रतिवाद करना चाहिए। कमेटीके मेम्बर साहबान भी इधर ध्यान दें और दूध तथा दुधारे पशुओंके टैक्सको दूर करावें। सारांश यह है कि-- १ दूध परसे ) मनकी लज्जा जनक चुंगी उठा दी जाय । २–गौ पर टैक्स बिलकुल न लगाया जाय और जो ३) रु. वार्षिक लगता है वह भी उठा दिया जावे। ३-भैंसोंका टैक्स घटा कर वही ।।) से माही या हद १) सेमाही कर दिया जावे। ४-शहरके आसपास कोई मशीन मक्खन निकालनेकी न न रहने पावे। ५-दूधकी शुद्धता पर ध्यान दिया जावे। ६–घोसियोंको सब प्रकारकी सहायता देकर दूधको सस्ता बिकवाया जाय !" " एक दुःखी प्रजा ।" For Private And Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष । स्वदेशी वस्तु तथा पहिनावा। - श्रीयुत मिस्टर बिपिनचन्द्र पाल कहते हैं ." The Swadeshi movement is ostensively an in offensive movement. The law of the land does not touch it. To obstain from foreigngoods is no crime. To organise measures of social and religious ex-communication against those who may, from powery or perversity be tempted to violate this boy-cott is also absolutely lawful. No one can be punished for resiving to eat with a man who uses foreign goods, and by the inoffensive means a social terroism may be established in the country which will cow down the most spirited opponent of this movement + + + The Government even in India cannot interfer with these matters concerning the personal freedom of the people etc. । अर्थात् स्वदेशी आन्दोलन बिलकुल हानिप्रद नहीं है। देशके कानूनोंका उससे कोई सम्बन्ध नहीं है। विदेशी मालका प्रयोग न करना कोई अपराध नहीं है । और ऐसे मनुष्योंके विरुद्ध-जो निर्धनतासे अथवा मूर्खतासे उस बायकाटके विरुद्ध हों,—होना या For Private And Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वदेशी वस्तु तथा पहिनावा । ११७ समाज और जाति से उसे अलग कर देना नियमके विरुद्ध नहीं है । और किसी ऐसे मनुष्यको -- जो विदेशी माल प्रयोग करनेवालोंके साथ - खानपान न रखे कोई सजा नहीं दी जा सकती, और ऐसे लाभकारक तरीकोंसे एक प्रकारका सामाजिक भय स्थापित किया जा सकता है, जो इस आन्दोलनके बड़े से बड़े शत्रुको भी डरा सकता है। + + + + भारतमें भी सरकार इन बातोंमें - जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता से सम्बन्ध रखती हैं किसी प्रकारका हस्तक्षेप नहीं कर सकती । wa हम लोग विदेशी वस्तुओं के एक गहरे कुएँ में पड़े हैं, जिससे निकलना दुस्साध्य नहीं तो कष्टसाध्य अवश्य है । या यों कहें कि हम विदेशी वस्तुओंके दृढ़ भवन में बन्द हैं । हमारे चारों ओर विदेशी वस्तुएँ भरी हैं। हाथ में विदेशी लेखनी है तो, उसकी निब भी विदेशी है । स्याही भी विदेशी रंगकी है । रंग २ - ३ रुपये तोला तक मिलता है, पर हम उसीसे लिखते हैं। कागज, जिस पर हम लिखते हैं, विदेशी है। दावात, जिसमें स्याही है, वह भी भारत में नहीं बनी है । पिन, चाकू, आदि सभी वस्तुएँ हमारे सामने विदेशी हैं । उदाहरणार्थ एक लालटेन लीजिए वह डीट्ज कम्पनी अमरीकाकी बनी हुई है। उसका काच ( ग्लोब) अमरीकाका या जापानका है । उसमें तेल भी अमरीकाका भरा हुआ है, अधिक क्या कहें उसमें सूतकी बत्ती भी अमेरिकाकी ही बनी हुई है ! यदि तेल या लालटेन हमारे लिये एक दम न मिलें तो अमावस्या की रात्रिको लज्जित करनेवाला महा अंधकार भारतमें हो जाय । लालटेनोंका मूल्य दुगुना हो गया। वर्ष में एक दो काचके ग्लोब भी फूट जाते हैं, For Private And Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir wwwwwwwww भारतमें दुर्भिक्ष। जो फिर जुड़ नहीं सकते । मिट्टीका तेल भी तिगुनी कीमत पा गया। इतना होने पर भी हमने विदेशी वस्तुओंको नहीं छोड़ा, बल्कि उनसे नित्य और अधिक प्रेम करते गये। मिट्टीके दीपकमें मीठा तेल जलाना आज कलके फैशनके विरुद्ध है, पाप है । मैं उदाहरण रूपमें एक वस्तुके विषयमें लिख चुका। अब प्रत्येक वस्तुके विषयमें लिखना व्यर्थ पृष्ठ रंगना है । आप अपने आगे पड़ी किसी वस्तुको देखेंगे तो, वह अवश्य विदेशी होगी। घरमें स्त्रियोंका सौभाग्य चिन्ह चूड़ियाँ भी विदेशी, बिल्लौरी काचकी हैं । वे लग भग २) रु. खर्च करने पर हाथकी शोभा बढ़ावेंगी, किंतु गृहकार्य करते समय जरा ही किसी वस्तुसे टकराई कि टुकड़े हुए। टूटनेके बाद वे जोड़ी नहीं जा सकती, सिवाय फेंकनेके अन्य किसी उपयोगमें नहीं आ सकतीं। अब जरा भारतीय लाखकी चूड़ियों पर दृष्टि डालनेकी कृपा कीजिए । उनका मूल्य ॥) या ॥=) होता है। टूट जाने पर वे फिर जोड़ी जा सकती हैं और बिलकुल खराब हो जाने पर भी चूड़ी बनानेवाले खरीद ले जाते हैं। सारांश यह कि हम अपनी देशी वस्तुओंका अपमान अपनी मूर्खतासे करते हैं और अपना द्रव्य अपने हाथों विदेशी व्यापारियोंके घरमें भर रहे हैं । लिखते दुःख होता है कि ब्राह्मणोंका वह पवित्र जनेऊ तक भी विदेशी सूतका बाजारोंमें मिलता है, कभी कभी तो सीनेके धागोंका बना जनेऊ भी बाजारोंमें बिकता देखा गया है। हमारे भारतीय बन्धु कपड़े भी विदेशी ही पहिनते हैं, जिससे भारत दरिद्र होता जा रहा है और विदेशी वस्त्र-विक्रेता अपना हाथ रंग रहे हैं। कम-टिकाऊ चटक मटकदार विदेशी वस्त्र हम अधिक मूल्य For Private And Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वदेशी वस्तु तथा पहिनावा। पर खरीदते हैं, किंतु महीनों चलनेवाला सस्ता उत्तम देशी कपड़ा हमारे बदनको चुभता है । कितनी अचंभेकी बात है ! सुकुमारताको हद हो चुकी ! उन वीरोंकी संतान जो मनों वजनके कवच और बख्तर शरीर पर धारण करते थे, आज अपने हितकारी मोटे कपड़े भी नहीं पहिन सकते। देशी धोतियाँ मोटी होती हैं, उन्हें पहिनना गँवारोंका काम है इत्यादि कहते हम कुछ भी विचार नहीं करते। मेरे विचारसे तो विदेशी पतली धोती--जिसमें से बदनके बाल तक दिखते हैं, और एक-दो महीने चलती है--पहिनना बिलकुल ही वारोंका काम है। यदि आप अपने प्रिय स्वदेशको दरिद्र नहीं देखना चाहते और पहलेकी भाँति उसे सुखी किया चाहते हैं तो स्वदेशी वस्तुओंका व्यवहार आजसे ही आरंभ कर दीजिए। स्वदेशी वस्तओंका व्यवहार कोई अपराध नहीं है, इससे डरना भारी भूल है । वह कृतघ्न है जो अपने देशकी बनी वस्तुओंका आदर न कर विलायती वस्तुओंको अपनाता है । यदि आवश्यकतानुसार देशकी बनी वस्तुएँ प्राप्त होना कठिन है तो जितनी मिल सकें उतनी ही काममें लाकर अपने भारतीय व्यापारी और व्यापारकी एवं कला-कौशलकी उन्नति कीजिए । भारतीय बन्धुओ ! आलस्यका समय नहीं है, भारतमें दुर्भिक्ष और दरिद्रता सर्व-संहारी तांडव नृत्य कर रहे हैं। सावधान होकर अपने देशकी रक्षाका भार अपने हाथोंमें लीजिए । देखिए, मि० सर टामसमनरो नामी अँगरेज भारतीय मालकी कैसी प्रशंसा करते हैं:__ " हिन्दुस्थानी माल विलायती मालकी अपेक्षा कई गुना अच्छा होता है । एक हिन्दुस्थानी शालको हम सात वर्षसे काममें ला रह For Private And Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२० , भारतमें दुर्भिक्ष । हैं, किन्तु इतनों दिनों तक काममे लाने पर भी उसमें कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। सच बात तो यह है कि यूरोपियन शाल मुफ्तमें मिलने पर भी हम उसका व्यवहार करना नहीं चाहते।" . बहुतसे विदेशी बने हुए माल हमें निर्धन ही नहीं बनाते; बल्कि हमारे निर्धन अति पवित्र धर्मसे भी भ्रष्ट करते हैं। उदाहरणार्थ विदेशी साबुनोंको लीजिए-ऐसा कोई विदेशी साबुन नहीं जिसमें चर्बीका प्रयोग न किया जाता हो ! क्या ऐसी अपवित्र वस्तु भी जान-बूझ कर काममें लाना ऋषि-संतानोंका कार्य है ? जितना विदेशी वस्तका व्यवहार हमें दरिद्र बना रहा है, उतना ही विदेशी पहिनावा भी हमें निर्धन बना रहा है । हम नीचे एक नकशा देते हैं जिससे आपको पता लगेगा कि विदेशी पहिनावा क्यों कर अहित कर है। प्राचीन समयमें एक आदमीको अपने अंगोंकी रक्षा करने के लिये कितने मूल्यके कपड़ोंकी आवश्यकता पड़ती थी उसका वर्णन हम नीचे देते हैं:१ साफा या पगड़ी, मूल्य १) १ अच्छा दुपट्टा १ कुरता या मिरजई ) १ जूती जोड़ा १ धोतीजोड़ा १॥) . . . कुल जोड़ ४०) यह तो आजसे ४०।५० वर्ष पूर्वका खर्च है, किंतु वर्तमान महा दुर्भिक्षके समय भी जब कि कपड़ा चौगुनी कीमत पर है, एक मनुध्यको हिन्दुस्थानी पहिनावेमें:-- १ साफा या पगड़ी ३) १ अच्छा दुपट्टा २ कुरत या मिरजई २) १ जूता जोड़ा २) १ जोड़ा धोती ४) कुल जोड़ १३॥) For Private And Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वदेशी वस्तु तथा पहिनावा। १२१ कुल साढ़े तेरह रुपये खर्च होंगे, जिसमें एक वर्ष भर गुज़र हो सकती है। किंतु स्मरण रहे, कपड़ा स्वदेशी, मोटा और मजबूत होना चाहिए। बिलकुल साफ रहनेके लिये धोबी आदिकी धुलाई, नाईको बाल बनवाई ३) रु० वार्षिक और समझ लीजिए। यदि एक दो कुरते या एक साफा और अधिक रखना हो तो ५) रु० और ऊपरके योगमें मिला दीजिए अर्थात् २२) रु० सालमें एक भला आदमी अपना वर्ष भर अच्छी तरह वस्त्र पहिन सकता है । अब जरा आज. कलके फैशनकी लिस्टको भी पढ़ जाइए: १ फेल्ट टोपी अच्छी ४) १२ डिब्बी टूथ पाउडर(वर्षभर३) १२ शीशियाँ बालोंमें लगाने- ३ बनियान के तेलकी प्रति-मास एक- ४ कमीजें के हिसाबसे वर्षभर १२) १ सेट कमीजके बटन । ) १ऐनक (चश्मा) ८) २ वेस्टकोट (वास्कट) ४) १ बाल काढनेका कंघा ) २ हाफकोट १ टोपी साफ करनेका ब्रुश ।।) २ नेकटाई १२ बट्टी साबुन ( वर्षभर ) २) १ बो १ टूथ ब्रश ।) १ क्लिप १ रास्कोप घड़ी ५) १ शीशी बूट पालिश ॥) १ घडीकी चेन ॥) १ ब्रुश बूट साफ करनेकी ।) २ पतलून ४॥) ? बूट पहिननेका आँकड़ा ) १ गेलिस १॥) ६ रूमाल १॥) ४ परकी मोजा जोड़ी २) १ वाकिंग छड़ी ) १ जोड़ी मोजोंके बन्धन ।) १ जोड़ा धोती भी चाहिए। २ जोड़ी डासन्स कं०के बूट १५) जो बढ़िया हो। (८) कुलयोग १०१।०) For Private And Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૨ भारत में भिक्ष । कुल मीजान १०१/ ) हुआ । अभी दो खर्च और बाकी हैं। जिनके बिना फेशन किसी कामका ही नहीं । वह II) मासिक नाई और १२ आने मासिक धोबी वर्ष भरके १५) रु० और मिला दीजिए । अर्थात् एक वर्ष तक हमें अँगरेजी फेशन बनाये रखनेको ११६ | ) खर्च पड़ते हैं । अब घरमें पतलून पहनके बैठना कठिन है, अतः कुरसी और की सृष्टि घर में होने लगी । और भी कई फेशन- सम्बन्धी खर्च हैं, जैसे चाय, उसके लिये रकाबी और प्याले, सिगरेट आदि । इसका अनुमान आप ही लगा लीजिए कि कितना अपव्यय होता होगा । यदि भारतीय पहनावे में २२) रु० खर्च होता है तो विदे शीमें उससे ५ गुणा अधिक होता है, यह सब पैसा विदेशों को चला जा रहा है । इसके अतिरिक्त कई महाशय ओवरकोट पहिनते हैं । इन कोटों की बाँहों पर तथा पीछे कमर पर सामने दुहरे बटन व्यर्थ ही लगा दिये जाते हैं । कई लोग वेस्ट कोटोंके कालरों पर तीन तीन बटन व्यर्थ ही लगवाते हैं । कपड़ों की सिलाई में कभी कभी कपड़ों के मूल्य से अधिक सिलाई देनी होती है । यदि हम विचारें तो इससे हमें, हमारे कुटुम्बको, समाजको या हमारे देशको कुछ भी लाभ नहीं, बल्कि भारी हानि हो रही है । यह फेशन भारतको दरिद्र एवं दुर्भिक्षका क्रीडास्थल बना रहा है । हम पीछे लिख आये हैं कि भारतवासी पूर्व कालमें इतने सभ्य और चतुर थे कि जिनकी समानता में अभी तक एक भी मनुष्य आगे नहीं आ सकता । यह भारतवासियोंकी मिथ्या प्रशंसा नही है, बल्कि विदेशी लोगोंने भी इस बातको For Private And Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वदेशी वस्तु तथा पहिनावा। १२३ स्त्रीकार किया है-तो विचारनेका स्थल है कि क्या हमारे पूर्वजोंमें अपने पहिनावेको सुधारनेकी अक्ल नहीं थी जो हम पाश्चात्य पहिनावेको अपना रहे हैं ! किंतु नहीं उन्होंने देशके लिये एक प्रकारका अच्छा ही पहिनावा निर्माण किया है। हमें यहाँ भारतीय पहिनावेकी उपयोगिता और विदेशी पहिनावेकी निन्दा करना अभीष्ट नहीं है, अतः हम कुछ विशेष न लिख कर, अपने देशबन्धुओंसे भारतीय ढंगके वस्त्र पहिनने की प्रार्थना करते हैं। भारतीय पहिनावा कदापि निकृष्ट नहीं होता; क्योंकि इस भारतके लिये स्वर्गस्थ देवता लोग भी तरसते थे--देखो विष्णुपुराणमें लिखा है कि " देवता भी ऐसे गीत गाया करते हैं कि वे पुरुष धन्य हैं जो कि स्वर्ग और अपवर्गके हेतु-रूप भारतवर्ष में जन्म लेते हैं, वे हमसे भी श्रेष्ठ हैं।" " गायन्ति देवाः किल गीतकानि धन्यास्तु ये भारतभूमिभागे। स्वर्गापवर्गस्य च हेतुभूते भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात् ।” यदि यह भारत, जिसे पूर्व कालमें जंगली और असभ्य होने तथा गँवारू पोशाक पहिनने का दोष लगाते हैं, वास्तव में आपके कहे भनुसार ही होता तो देवतागण यहाँके लिये इस भाति " स्वर्गापवर्गस्य च हेतुभूते " आदि कह कर उसकी प्रशंसा नहीं करते। " जैसा देश वैसा वेश" "As the country so the dress" अथवा“Where we are in Rome, we must do as Romans dc." For Private And Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२४ भारतमें दुर्भिक्ष | ८५ यह बात बिलकुल सत्य है । हम किसी देश के अनुकरण द्वारा अपनी उन्नति नहीं कर सकते । " यह महाशय रवीन्द्रनाथ ठाकुरका वाक्य है। | इस विषय में हम उनके कुछ कथनको उद्धृत करना उचित समझते हैं । कवि-सम्राट रवीन्द्र बाबू कहते हैं - " विदेशोंके साथ सम्बन्ध होनेसे भारतवर्षकी यह प्राचीन निस्तब्धता हिल उठी है; अर्थात् निस्तब्ध भारतवर्ष चंचल हो उठा है । मेरी समझ में इससे हमारा बल नहीं बढ़ता; उलटे हमारी शक्ति क्षीण होती जा रही है । इससे दिन दिन हमारी निष्ठा, अर्थात् विश्वास विचलित हो रहा है, हमारे चरित्रका संगठन नहीं होता, वह टूटता बिखरता जाता है, हमारा चित्त चंचल और हमारी चेष्टाएँ व्यर्थ हो रही हैं । पहले भारतवर्षकी कार्यप्रणाली अत्यन्त सहज-सरल, अत्यन्त शान्त: तथापि अत्यंत दृढ़ थी। उसमें किसी प्रकारका आडम्बर या दिखावा न था । उसमें शक्तिका अनावश्यक अपव्यय नहीं होता था । सती स्त्री अनायास ही पतिकी चिता पर चढ़ जाती थी और सेनाका सिपाही चने चबा कर समय पर उत्साह पूर्वक युद्धभूमिमें जाता और लड़ता था । उस समय आचारकी रक्षा के लिये सब प्रकारकी अड़चनें भोगना, समाजकी रक्षाके लिये भारीसे भारी यन्त्रणाएँ सहना और धर्म की रक्षा के लिये प्राण तक दे देना बहुत ही सहज था । निस्तब्धता या एकाग्रताकी यह अद्भुत शक्ति, इस समय भी भार संचित है; स्वयं हम लोग ही उसको नहीं जानते । हम इनेगिने शिक्षा चंचल नवयुवक इस समय भी दरिद्रताके कठिन बलको, मौनके स्थिर जोशको, निष्ठाकी कठोर शान्तिको और वैराग्य अर्थात् अनासक्तिकी उदार गंभीरता को अपनी शौकीनी, अविश्वास, For Private And Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वदेशी वस्तु तथा पहिनावा । १२५ ~~~~~~~~wwmmmmmmwwwwwwwwwww mmmmmmmmm अनाचार और अन्ध अनुकरणके द्वारा इस भारतवर्षसे दूर नहीं कर सके हैं । इस मृत्युके भयसे रहित आत्मगत शक्तिने संयम, विश्वास और ध्यानके द्वारा भारतवर्षको उसके मुखकी कांतिमें सुकुमारता, अस्थिमज्जामें कठोरता, लोक-व्यवहारमें कोमलता और स्वधर्मकी रक्षामें दृढ़ता दी है। इस शान्तिमयी विशाल शक्तिका अनुभव करना होगा-एकाग्रताकी आधार भूत इस भारी कठिनताको जानना होगा । भारतके भीतर छिपी हुई वह स्थिर शक्ति ही अनेक शताब्दियोंसे, अनेक दुर्गतियों में, हम लोगोंकी रक्षा करती आती है। याद रखो समय पड़ने पर यह दीन हीन वेशवाली, आभूषण-हीन, वाक्य हीन, निष्ठा-पूर्ण शक्ति ही जाग कर सारे भारतवर्ष पर अपनी अभयदायक मंगलमय बाहकी छाह करेगी। अँगरेजी कोट, अंगरेजी दूकानोंका सामान, अँगरेज मास्टरोंकी गिटपिट बोलीकी पूरी पूरी नकल, इन सबमें से कुछ भी उस समय नहीं रहेगा; किसी काम नहीं आवेगा। आज हम जिसका इतना अनादर करते हैं कि आँख उठा कर भी नहीं देखते; जिसे इस समय हम जान नहीं पाते; अँगरेजी स्कूलोंके झरोखोंमेंसे जिसके सँवार-सिंगारसे रहित झलक देख पड़ते ही हम त्यौरी बदल कर मुंह फेर लेते हैं, वही सनातन महान् भारतवर्ष है । वह हमारे व्यारव्यान-दाताओंके विलायती ढंगके ताली पीटनेके ताल पर हर एक सभामें नाचता नहीं फिरता, वह हमारे नदी तट पर कड़ी धूपसे भरे भारी सुनसान मैदानमें केवल कोपीन पहिने कुशासन पर अकेला चुपचाप बैठा है। वह प्रबल भयानक है, वह दारुण सहनशील है, वह उपवासव्रत धारण किये हुए है । उसके दुर्बल हड्डियोंके ₹ाँचेमें प्राचीन For Private And Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२६ भारतमें दुर्भिक्ष । तपोवनकी अमृत, अशोक, अभय होमकी अग्नि अब भी जल रही है। यदि कभी आधी आवेगी तो आजकलका यह बड़ा आडम्बर, डींग, तालिया पीटना और झूठी बातें बनाना--जो कि हमारी ही रचना है, जिसे हम भारत वर्षभरमें एक मात्र सत्य और महान समझते हैं, किन्तु यथार्थमें जो मुंहजोर चञ्चल और उमड़े पश्चिम सागरकी उगली हुई फेनकी राशि है-इधर उधर उड़ जायगा, दिखलाई भी न पड़ेगा । तब हम देखेंगे कि इसी अचल शक्तिधारी संन्यासी ( भारतवर्ष ) की तेजसे भरी आँखें उस दुर्दिनमें चमक रही हैं, इसकी भूरी जटाएँ उस अधीमें फहरा रही हैं। जब आँधीके हाहाकारमें अत्यंत शुद्ध उच्चारणवाली, अंगरेजी वक्तृताएँ सुनाई न पड़ेंगी, उस समय इस संन्यासीके वन-कठिन दाहिने हाथके लोहेके कड़ेके साथ बजते हुए चिमटेकी झंकार आँधीके शब्दके ऊपर सुनाई देगी। तब हम इस एकान्तवासी भारतवर्षको जाने और मानेगे । तब जो निस्तब्ध है उसकी उपेक्षा न करेंगे, जो मौन है उस पर अविश्वास न करेंगे; जो विदेशकी बहुतसी विलास सामग्रीको तुच्छ समझ कर उसकी ओर नजर नहीं करता उसको दरिद्र समझ कर उसका अनादर नहीं करेंग। हम हाथ जोड़ कर उसके भागे बैठेंगे और चुपचाप उसके चरणोंकी रज सिर पर धारण कर स्थिर भावसे घर आकर विचार करेंगे।" ___ महर्षि रवीन्द्र बाबूके उक्त कथनसे हमें बहुत शिक्षा लेनी चाहिए और एकदम अपनी भारतीयताको और भारतको प्रेम-पूर्वक अपने हृदयसे लगा अपनेको धन्य एवं कृतकृत्य कर लेना चाहिए । इस भयंकर विदेशी तूफानके सपाटेमें आकर अपनी और अपने देशकी For Private And Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वदेशी वस्तु तथा पहिनावा। १२७ दुर्दशा न कीजिए। थोड़ी शक्तिको आवश्यकता है, फिर यह भयंकर तूफान आपको तनिक भी विचलित नहीं कर सकेगा। सारांश यह कि अनुकरणकी मात्रा कम करनेसे हमारा सुधार एकदम हो जायगा । देशको धनी बनने में कुछ भी देर न लगेगी, फिर दुर्भिक्ष तो आपसे आप दबे पाँव भाग जावेगा। __ जो औषधि मरु-वासियोंको लाभप्रद है, वही मालव निवासियोंकी मृत्युका कारण हो सकती है। जो पहिनावा पंजाबियोंका है वह बंगाली पुरुषोंको नितान्त असुविधा-जनक होगा। तो इंग्लैण्ड जैसे सुदूरवर्ती देशका-जो सात समुद्रोंके परले तट है-पहिनावा भारत जैसे गर्म देशके लिये क्यों कर लाभदायक हो सकता है ! इंग्लैण्ड आदि देश शीत-प्रधान हैं । वहीं शीत-जन्य जन्तुओंजैस खटमल, पिस्सू आदिसे--और ठंडसे बचने के लिये तंग और कपड़ों पर कपड़े होते हैं, पर भारतवासी न जाने कैसे हैं जो बिना सोचे विचारे अपनेको यूरोपियन पौशाकसे विभूषित कर बाजार में अँकड़ते हुए निकलते हैं। नेकटाईके-जो ईसाकी फासीका चिन्ह हैं ( १ )--रामकृष्णके उपासक गले में देखा-देखी बांधते हैं। यहाँ तक कि सिर पर, टोप भी अपनेको पश्चिमी सभ्यता एवं पोशाकका गुलाम प्रकट करनेके लिये लगाते हैं। रंग भले ही बिलकुल काला क्यों न हो, सूरतसे भले ही प्लेग क्यों न भड़कता हो, बालक जिन्हें देख कर प्रेत या राक्षस भले ही कहते हों, पर वे तो अपने सिर पर 'हेट' ( टोप ) जरूर ही लगावेंगे। स्वर्गीय महात्मा गोपालकृष्ण गोखले गौरवर्णके खूबसूरत व्यक्ति थे, किंतु उन्होंने एक बार भी विलायतमें अपने सिर पर अँगरेजी टोपी नहीं रखी, वे वही For Private And Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२८ भारतमें दुर्भिक्ष। अपने देशके बन्धेजकी पगड़ी सिर पर लगाये रहते थे। हमारे भारतीय अंगरेजोंका अनुकरण करते हैं, किंतु उनके गुणोंका अनुकरण जरा भी नहीं करते। देखिए वे अपने देशके कसे सच्चे भक्त हैं जो कई समुद्रों पार आकर भी उन्होंने अपने देशका पहिनावा नहीं छोड़ा। भले ही उन्हें वह भारतमें नितान्त असुविधा प्रद हो, किंतु उसे त्यागना वह पाप समझते हैं । और .इधर हमारे भारतकी अवस्था पर ध्यान दीजिए ! For Private And Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तमाखू । wwwwwwwwwww तमाखू । री सम्मतिमें वह मनुष्य जो तमाखूका सेवन करता है, कभी जापति या पिता बननेके योग्य नहीं है। अपनी स्त्रीके सामने इस प्रकार बेहया और निर्लज्ज होनेका उसको कुछ भी अधिकार नहीं है, और अपने बच्चोंको चिर रोगी, निर्बल-शरीर बनानेका भी उसे कोई अधिकार नहीं है।" -डाक्टर आर. टी. ट्राल एम० टी० । __ मराठी और गुजरातीमें अनेक पुस्तकोंके लेखक, कई वैद्यक मासिक पत्रोंके सम्पादक और आयुर्वेद-विद्यापीठके संस्थापक स्वर्गीय आयुर्वेद महामहोपाध्याय श्री० शंकरदाजी शास्त्री महोदयने अपनी "आर्यभिषक् " नामक पुस्तकमें तमाखूके विषयमें बहुतसा लिखा है। वे लिखते हैं- "तमाखूकी टेवसे मनुष्यको बड़ी हानि होती है,परन्तु वह समझमें नहीं आती। तमाखू खानेसे मुंहमें बदबू उत्पन्न हो जाती है और दातोंको हानि पहुँचती है । बलगम उत्पन्न होता है,आँखोंको हानि होती है और पित्त भड़कता है। इसी प्रकार तमाखू पीनेसे छातीमें कफ उत्पन्न होता है और कलेजा जल जाता है। तमाखू खानेवाला कहा थूकेगा, इसका कोई नियम नहीं । इतना बुरा इसका असर होता है फिर भी तमाखूकी टेव दिन प्रति दिन बढ़ती जाती है। यह बुरी टेव जब लोग छोड़ देंगे तब ही देशका भला होगा।" __ अमरीकाके एक बुड्ढे ने जिसकी उम्र १३८ वर्षकी है, अपने दीर्घायु होनेका एक कारण यह भी बताया था कि " मैंने आज तक तमाखू न तो खाई और न पी।" For Private And Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३० भारतमें दुर्भिक्ष । Vvvvvvvvvvv धूम्रपानरतं विप्रं दानं कृत्वाति यो नरः। दातारो नरकं यांति ब्राह्मणो ग्रामशूकरः ॥ --पद्मपुराण । तमालं भक्षितं येन स गच्छेन्नरकार्णवे । विदेशी लोगोंने तथा आधुनिक वैद्य-डाक्टरोंने ही तमाखूको निंद्य ठहराया है, यह बात नहीं है । हमारे पुराण आदि भी साफ इन्कार करते हैं । ऊपरके श्लोकोंमें तमाखू पीनेवाले ब्राह्मणको दान देनेवालेको नरक और ब्राह्मणको मृत्यु-बाद ग्राम-शूकर कहा है और खानेवालेको भी नरकका दुःख लिखा है। " गोलोके गरुडो गोभिर्युद्धं चैव चकार सः। गरुडस्य च तुण्डेन पुच्छकर्णस्तदापतन् । रुधिरोपि पपातोव्यां त्रीणि वस्तूनि चाभवन् । कर्णेभ्यश्च तमालश्च, पुच्छाद्गोभी बभूव च । रुधिरान्मेहदो जाता मोक्षार्थी दूरतस्त्यजेत् ।" -एकादशी महात्म्य । अर्थात्-एक बार गोलोकमें गरुड़ और गायोंमें युद्ध ठन गया। गरुड़की चोंचोंके प्रहारसे गायोंके कान और पूछे गिर गईं, जिनसे तीन वस्तुएँ उत्पन्न हुई। कानसे तमाख, पूँछसे गोभी और खूनसे मेहँदी, अत एव मोक्षके इच्छुकोंको इससे दूर ही रहना चाहिए । यहाँ उक्त श्लोकों को उद्धृत कर हमें न तो तमाखूकी ही निंदा करना है और न उसके सेवकोंको ही कुछ कहना है। हमें यह। यह दिखलाना है कि देशकी भयंकर दरिद्रता और प्रचण्ड दुर्भिक्षका एक कारण भारतवासियोंका तमाखूका सेवन भी है। देशका बहुतसा For Private And Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तमाखू । धन इस अनर्थकारी व्यसनमें बरबाद हो रहा है। प्रति शत बड़ी कठितनासे ६ या ७ मनुष्य ऐसे मिलेंगे जो तमाखूका व्यवहार नहीं करते, बाकी कोई सूंघता है, कोई खाता है और कोई पीता है। यदि ३१३ करोड़ भारतवातियोंमेंसे २६ करोड़ ऐसे मनुष्य मान लिये जायें जो तमाखूका सेवन नहीं करते तो २९ करोड़ तमाखू खाने, पीने और सूंघनेवाले लोग बच रहते हैं। अब इनका तमाखूका खर्च कमसे कम एक पैसा रोज मान लिया जाय तो एक मासमें १४५००००००) २० और १७४०००००००) रु० प्रति वर्ष भारतका तमाखू-खर्च है ! . संसारमें आजकल प्रति वर्ष चालीस लाख मनुष्य केवल क्षयरोगसे ही काल-कवलित होते हैं। केवल बम्बई प्रान्तके ही विषयमें सुनिए, वहाँ हर साल साठ हजार मनुष्य मरते हैं। बुद्धिमानोंकी सम्मति है कि जैसे जैसे तमाखूका सेवन दिन दिन बढ़ता जाता है, वैसे वैसे तपेदिकसे मरनेवालोंकी संख्या वृद्धि पा रही है । डाक्टर अल्नस साहबका कथन है कि " तमाखू सेवन करनेवालोंको पाण्डुरोग हो जाय और उनका रुधिर सूख जाय तो कोई आश्चर्य नहीं । इसका कारण यह है कि तमाखूसे अजीर्ण होता है जिसका परिणाम यह होता है कि रक्त सूख जाता है, और शरीर काँटा सा हो जाता है । रुविर ही जीवनका कारण है । इसके कम होनेसे निर्बलता हो कर क्षय हो तो इसमें आश्चर्य ही क्या ?" विख्यात डाक्टर और बहुतसी पुस्तकोंके लेखक, श्रीमान् आर० डी० ट्राल साहब एम० टी० कहते हैं कि--" शराबसे भी अधिक भयानक और नवयुवकोंमें अधिक प्रचलित एक भयानक और बुरी For Private And Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३२ भारतमें दुर्भिक्ष । आदत तमाखू सेवनकी है। यदि हम इस आदतकी गन्दगी और असभ्यताको भुला नहीं देते तो अपने देश के नवयुवकों के शरीरों को जड़ से सत्यानाश करके शारीरिक बलको नष्ट कर उसका सर्वथा नाश करते हैं । जिस वस्तुका ऐसा भयानक परिणाम है उसका प्रचार दिनों दिन बढ़ता जाता है । " डाक्टर वुडबर्ड साहबका कथन है कि - " तमाखूसे मृगी, स्वरभंग, जीर्णज्वर, छाती और सिर में दर्द, कम्पवात, शिरोविभ्रम, अजीर्ण, नाडीव्रण, उन्माद आदि कई रोग हो जाते हैं। " डाक्टर ब्राऊन साहबका कहना है कि - " तमाखू खाने-पीने या सूँघनेसे निम्न रोगों के होनेका भय है । मन्ददृष्टि, शिरःशूल, मूर्च्छा, अफरा, निर्बलता, गला पड़ना, कम्पवायु, भूतोन्माद तथा ऐसे ही और कई प्रकार के रोग । कभी दिलका उदास होना और कभी कभी पागल भी तमाखूसे हो जाता है, यह कई डाक्टरोंका मत है 1 I 35 1 1 जो देश इसकी भयंकर हानिको समझते हैं वे इस दुर्व्यसनके दूर करनेकी सतत चेष्टा करते रहते हैं । अमेरिका में तमाखूकी विरोधक अनेक सोसाइटियाँ हैं । उनका काम दिनरात तमाखू सेवनको घटाना है । वे अच्छी प्रकार सफलता पा रही हैं । न्यूयार्क की तमाखू विरोधक सभाकी ओरसे नीचे लिखे अमूल्य शब्द प्रकाशित किये गये हैं-" जिन थैलियोंमें थूक बनता है, तमाखू खाने या पीने से वे थैलियाँ सूख जाती हैं, और इस कारण से तमाखसेवनके बाद अन्य किसी मादक द्रव्यके पान करनेकी इच्छा होती है ।" डाक्टर अलसनका कथन है कि तमाखू " मुहँ में थूक आदि उत्पन्न करती है, और जब वह थूक निकाल दिया जाता है तब प्यास For Private And Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तमाखू । १३३ विशेष लगती है और तब प्यासको शांत करनेके लिये किसी नशेदार वस्तुको व्यवहारमें लानेकी इच्छा होती है।" वे युवक जो नशीली बस्तुओंका प्रचार रोकते हैं या जो टैम्प्रैन्सका काम करते हैं, कहते हैं कि तमाखू न पीनेवालोंकी अपेक्षा पीनेवाले अधिक बार अपनी सौगन्धको तोड़ते हैं। डाक्टर वुडबर्ड कहते हैं कि तमाखू पीने या खानेवालोंको पानी अथवा इस भैातिकी दूसरी वस्तु पीनेसे तृप्ति नहीं होती। डाक्टर कार्ण एम० डी० साहबका कथन है कि तमाखूके साथ शराबका ऐसा सम्बन्ध है जैसा कि दिनके साथ रातका है। __ ऊपर लिखी बातोंसे स्पष्ट सिद्ध होता है कि तमाखू भारतवर्षकी दुर्दशाका भी एक कारण है, क्योंकि यही भाँग, गाँजा, चण्डू, चरस, अहिफेन, मदिरा आदि मादक द्रव्योंका प्रचारक है । मादक द्रव्योंस देशका कितना अनिष्ट होता है, इसका विज्ञ पाठक स्वयं अनुमान कर लें । इन नशोंसे भारत दिन दिन दरिद्र होता जा रहा है। नशेखोर भोजनमें कमी कर देते हैं, पर नशे में नहीं करते। नशेबाजी ही भारतवासियोंको चोर, व्यभिचारी, जुआरी, अनाचारी कर रही है । अधिकांश निर्धन भारतीय ही नशेबाज देखे गये हैं। उनके पास खानेको नहीं है, पर नशा वे अवश्य करते हैं। कभी कभी अपनी आदतको, अपनी इच्छाको पूर्ण करने के लिये उन्हें चोरी तक करनी पड़ती है। भला ऐसा इश जो नशा अधिक करता हो, किस भाँति अपनी उन्नति कर सकता है ? नशेके कारण भारत निर्बल हो गया, निर्धन हो गया, बुद्धिहीन हो गया और आज भूखों मर रहा है ! देशका अगणित द्रव्य भारतवासियोंकी नशेखोरीमें नष्ट हो रहा है। भारत-गवर्नमेण्टने यदि इसे रोकनेका प्रयत्न किया है तो वह केवल यही कि उस पर टैक्स बढ़ा For Private And Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३४ भारतमें दुर्भिक्ष । दिया । परंतु यह मादक पदार्थों को भारतसे दूर करनेका तरीका नहीं है, बल्कि निर्धन भारतके पैसेको इस बहानेसे छीन कर अपने कोषको भरना है । यदि गवर्नमेण्ट चाहे तो एक छिनमें भारतको इस सर्व नाशकारी नशेके चंगुल से छुड़ा सकती है। टैक्स बढ़ाने से भारतीय नशेसे कदापि विमुख नहीं हो सकते; क्योंकि नशेकी लत एक ऐसी बुरी लत है जो नशेका मूल्य अधिक करनेसे नहीं छूट सकती ! भारतको इंग्लैण्डका अनुकरण करना चाहिए कि युद्ध-समय में मदिरा के अहितकर एवं हानिप्रद सिद्ध होते ही एक दम उसका परित्याग कर दिया गया - यहाँ तक कि राजमहालों में मदिरा जैसे आसुरी पदार्थका प्रवेश तक निषेध कर दिया गया ! उधर यह हालत हैं, तो इधर भारत जैसे धार्मिक देशमें दिनों दिन नशा तरक्की कर रहा है ! जिन देशों में लड़कियाँ अपने इच्छानुसार पति पसन्द करती हैं, वहाँ उन्हें विख्यात डाक्टर काविन एम० डी० निम्न लिखित उपदेश देते हैं- " रोगके साथ विशेष सम्बन्ध रखनेवाली अथवा जिन्हें रोगका कारण कहा जाय ऐसी बहुतसी आदतें हानिकारक होती हैं, जैसे कि तमाखू और शराबकी देव । मेरी भोलीभाली बहिनो, उन युवा पुरुषोंसे जो इन दो वस्तुओंका व्यवहार करते हैं, सदा दूर रहने का मैं तुम्हें उपदेश देता हूँ । जो मनुष्य तमाखू सेवन करता होगा, वह बहुत ही बदहोश प्रतीत होगा । तमाखू के साथ ही शराबकी कुटेवका ऐसा गहरा सम्बन्ध है जैसा कि दिनका रात्रिके साथ । सुस्ती, रोगोंका होना, सदा बुरा हाल रहना, शोक, एकाएक मृत्युका होना, जिगर और फेफड़ोंकी बीमारीका होना For Private And Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तमाखू। muviummmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm इत्यादि तमाखू और शराब पीनेवालोंके साथ छायाकी तरह लगे रहते हैं । सैकड़ों वर्षोंके साहित्यके अनुभवके आधार पर उपर्युक्त बातें बताई गई हैं। और बहिनो ! तमाखू और शराब पीनेवाले मनुष्योंसे अलग रहो और यह निश्चय कर लो कि हम तमाखू और शराबसे वंचित रहनेवाले पुरुषसे ही विवाह करेंगी; और यदि ऐसा न हो सके " तो सारी आयु अविवाहिता रह कर जीवनके दिन काटो।" __डाक्टर आर० टी० ट्राल० एम० डी० कहते हैं कि " तमाखू सेवनसे जो चुस्ती प्रतीत होती है, वह अन्तमें जीवनको मिट्टी में मिलानेवाली होती है।" ___ तमाखू एक प्रकारका विष है, यह हम ऊपर बता चुके हैं । यह विष जब शरीर में प्रवेश करता है, तब इसको पसीनेके द्वारा बाहर निकालनेके लिये दिल और इसी प्रकार दूसरी इन्द्रिया प्रयत्न करती हैं, जिसे लोग हुक्केसे " चुस्ती आई " कहते हैं। इस प्रकार अधिक अधिक तमाखू सेवनसे इन्द्रियाँ थक कर अन्तको रोगी बन जाती हैं । तमाखूके सेवनसे तमाखू पीनेवालोंको जो चुस्ती बोध होती है, उससे भ्रममें नहीं पड़ना चाहिए । शेक्सपियर, बोकर और न्यूटन जैसे पण्डित लोगोंने अनन्त कष्ट उठा कर पुस्तके लिखी हैं । इनमें जो विद्या भर दी है, वह कोई तमाखू पीनेकी ही टेवसे नहीं लिखी गई है। शास्त्र भी तमाखूका घोर विरोध करता है । ईसाई धर्ममें तमाखका सेवन धर्म नहीं है। आठवें पोप आवन और नवें पोप अनफैण्टने तमाखूके विरुद्ध कठिन नियम बनाये हैं । इसी प्रकार तुर्कि For Private And Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३६ भारतमें दुर्भिक्ष। स्तान और बलिस्तान तथा बर्लिनमें भी तमाखूका सेवन एक बड़ा पाप है। पारसी भाई अग्निकी पूजा करते हैं और इनके धर्ममें तमाखू पीना सौगन्धकी तरह एक धार्मिक बात है। हमारे आर्यशास्त्रोंमें तो इसको महानिंद्य और अस्पृश्य वस्तु बताई है । सिक्खोंके दसवें गुरु गुरु गोविन्दसिंहजीने भी अपने शिष्योंको तमाखूके त्याग करनेकी आज्ञा दी थी, जिसके कारण पंजाबो सिक्ख अभी तक तमाखूको स्पर्श करना महापाप समझते हैं । वर्तमानमें तमाखूके कई रूप और कई नाम हैं । जैसे-सिगरेट, सिगार, चुरुट, बीड़ी आदि। आजकल सिगरेट पीना फैशनमें शामिल है, इसको बिना पिये पश्चिमी ढंगका सारा पहनावा धूल है। जिस भैाति विदेशी पोशाकोंके साथ सामने मस्तक पर बाल रखा कर माँग-पट्टो निकालना फैशन पर मुलम्मा करना है, उसी भैौति फैशनका दूसरा मुलम्मा सिगरेट पीना भी है । इसके साथ ही साथ विदेशी दियासलाईकी भी भारतमें खूब खपत होती है । आजकल किसी महाशयके आने पर उसके स्वागत-रूपमें सबसे प्रथम दो डिब्बिया रख दी जाती हैं, एक तो सिगरेटको और दूसरी दियासलाईकी! भारतवर्ष गर्म देश है । इसके लिये दरिद्रताका कारण तो यह है हो, किंतु साथ ही गर्म वस्तु होनेके कारण भारतीयोंको अल्पायु और क्षीणवीर्य बनाने में भी यह एक प्रवल शत्रुके समान है। छोटी अवस्थामें कामोत्तेजन द्वारा निर्बलता उत्पन्न करनमें, वोर्य को दूषित करने एवं पतला करने में यह एक ही रामबाण वस्तु है। प्रत्येक पुरु. For Private And Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तमाखू। षको प्रायः प्रमेह, स्वप्नदोष आदि भयंकर नाशकारी रोगोंके मुखमें फेंकनेवाली यही एक मात्र वस्तु तमाखू है । इसके ही कारण भारतका असंख्य धन दवाई, औषधियों में जाता है । किसी तमाखू-सेवन करनेवालेसे इसके गुण पूछ देखिए, यदि वह सत्यवक्ता है तो निःसन्देह इसे अत्यन्त हानिप्रद दुर्व्यसन ठहरावेगा। अँगरेजोंकी देखादेखी इसे काममें लाना भूल है क्योंकि वे शीत देशके वासी हैं, अतः उन्हें यह लाभदायक है; किंतु भारतबासी बिना सोचे समझे इसका प्रयोग कर क्यों भारतको निर्बल और निर्धन कर रहे हैं, इसका कोई कारण ही समझमें नहीं आता। हम भयंकर हानि सह कर भी इसका सेवन करते हैं, आश्चर्य है ! भारतमें प्रतिवर्ष ५६००००० मन तमाखू पैदा होती है । अमेरिकाके बाद तमाखूकी पैदावारमें दूसरा नम्बर भारतवर्षका हो है। अमेरिकामें १३५००००० मन तमाखू पैदा होती है। किंतु भारतकी भैाति वह सारी तमाखू अमेरिका ही नहीं फूक देता है, बल्कि बहुतसा भाग अन्य देशोंकी आवश्यकता पूर्तिके काम आता है। यदि अमेरिका दूसरे देशोंकी आवश्यकता पूर्ण करता है तो भारत दूसरे देशोंसे खरीद कर अपनी आवश्यकता पूरी करता है । अब ज़रा आप ही विचार देखिए कि भारतका कितना पैसा व्यर्थ तमाखू द्वारा नाश हो रहा है। इन्हीं कारणोंसे दरिद्रता और दुर्भिक्षने हमारा संहार करना प्रारंभ कर दिया है । __ इसी प्रकारकी एक दो महा अनर्थकारी मादक वस्तुएँ और भी हैं, उनके नाम हैं कहवा, चाय । हमारे भारतमें अभी तक कहीं कहीं देखनेमें आया है कि लोग मादक द्रव्य अपने गुरुजनों तथा For Private And Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष । मान्य पुरुषोंसे छुप कर सेवन करते हैं । परन्तु चाय आदि भी एक मादक पदार्थ हैं, किन्तु उनका उपयोग खुल्लम-खुल्ला पिता, पुत्र एक दूसरेके आगे आनन्द-पूर्वक करते हैं; बल्कि कहीं कहीं तो यदि पुत्र किसी कारणसे चाय न पीता हो तो पिताजी उस पर नाराज हो कर उसे जबरन् पिला ही देते हैं ! कैसे दुःखकी बात है कि लोग इसकी हानि पर जरा भी ध्यान नहीं देते। लोगोंको चाहिए कि जब वे तीर्थयात्रादिको जाते हैं तो गंगा आदि.पवित्र तीर्थों पर फल, बैंगन, कहू आदि शाक-भाजी छोड़ कर अपनी धर्म-शूरताका परिचय न दे कर ऐसे दुष्ट व्यसनों-शराब, भांग, गाजा, चंडू, चरस, अफीम, मदक, सुलफा, पोस्त, तमाखू, चाय, कहवा आदि वस्तुओंके न ग्रहण करने की शपथ खाया करें; जिससे देशका और निजका कल्याण हो; और भारत सुखी एवं धनधान्यसे पूर्ण हो । हमारे ब्राह्मणों, पंडों, पुजारियोंको भी चाहिए कि वे ऐसे दुष्ट व्यसनोंसे ही लोगोंको मुक्त करनेकी चेष्टा करें। यदि वे ऐसा करने लगे तो कोई बड़ी बात नहीं कि शीघ्र ही देशसे मादक द्रव्योंका काला मंह हो जाय, किंतु पहले स्वयं छोड़ दें तब न ! For Private And Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विदेशी शक्कर। १३९ विदेशी शकर । मारे भोजनकी एक मुख्य वस्तु घृतकी भाँति शक्कर भी है। &.अकबरके समयमें गन्नेकी पवित्र और शुद्ध शक्कर १०) मनके भावसे बाजारोंमें मिला करती थी, वही आज ३०) रु० मनके भावसे अलभ्य सी हो गई है । आजसे दस वर्ष पूर्व ही यहाँ एक रुपयेकी चार सेर शक्कर बखूबी मिलती थी । देखते देखते धीरे धीरे मोरीशस टापूसे एक नवीन प्रकारकी शक्करने भारतमें प्रवेश किया । आरंभमें इस शक्करके कारण भारतमें एक बड़ी खलबली मची, लोगोंने इसे अपवित्र और अस्पृश्य कह कर इसका खूब ही अपमान किया। द्विज लोग इसका सेवन तो दूर रहा छूना भी महापाप समझते थे। लोगोंमें उन दिनों इस शक्करके विषय में कई हास्यजनक किम्बदन्तिया फैल गई थीं-कोई कहता था कि इसमें हड्डीका बारीक चूरा भारतीयोंको धर्मच्युत करने के लिये मिश्रित करके भेजा जाता है; कई कहते थे कि इसमें गौ और शूकरकी हड्डियाँ डाल कर हिन्दू और मुसलमानोंको बेदीन करनेका प्रयत्न किया गया है। किन्तु ये सब बातें एकदम निरी झूठी और लोगोंमें भ्रम पैदा करनेवाली थीं। __ इतनी बातें बनाई जाती थीं, किंतु फिर भी लोगोंने इससे बच. नेका बिलकुल प्रयत्न न किया । धीरे धीरे सबने इसको अपने उदरमें मान देना आरंभ कर दिया । और देव-मंदिरोंमें, देवताओंके भोगमें और धर्मकार्यों में भी इसने स्थान पा लिया । यद्यपि यह बात सर्वथैव For Private And Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૪૦ भारतमें दुर्भिक्ष । - अमान्य है कि इसमें हड्डियाँ पीस कर मिलाई जाती हैं तथापि हम कि इस शकरके बनाने में हड्डी सुना है कि हड्डीके बात कोयलों द्वारा मानी भी जा किसी पुस्तक में भी - यह भी एकदम नहीं कह सकते प्रयोग ही नहीं की जाती। हमने शक्करका रस शुद्ध किया जाता है, और यह सकती है । हमने इस विषय में एकाध जगह पढ़ा है, जिसे यहाँ हम लिखते हैं । << Cylinders of wrought or cast Iron varying in diameter from 5 to 10 feet, and in hight from 10 to 50 having a perforated false bottom a couple of inches above the true one are filled with granulated animal charcoal. One ton of charcoal is some times used to purify two tons of sugar, and in at least one refinery, when inferior sugar is operated on, two tons of charcoal serve for on ton of sugar. In most provincial refineries about one ton of charcoal is used to one of sugar etc. (See Dictionary of arts, manufactures and mines 6th Edition by Doctor Vre London 1867 Page 829.) I अर्थात् -- एक टन हड्डीका कोयला दो टन शक्कर की सफाई में लग जाता है । और अच्छी शक्कर बनाने में तो २ टन कोयला एक मन शक्कर के लिये लग जाता है, अधिकांश शक्कर साफ करनेके कारखाने जो कि प्रांतिक होते हैं, उनमें एक टन कोयला एक टन शक्कर की सफाईमें लग जाता है । - डाक्टर वे लन्दन । For Private And Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विदेशी शक्कर। उक्त डाक्टर साहब और भी लिखते हैं किः-- “ Sugar thus cleansed is well prepared for the next refining process, which consist in putting it into a large square copper cistern along with some lime water ( a little bullocks blood) and from 5 to 20 per cent of bone black. Other refiners use both the blood and fining with advantage. (“ Dictionary of art " Manufactures and mines, 3rd edition by Doctor Vre London 1886, Page 1205 etc.) ___ अर्थात्-शक्करकी दूसरी सफाई इस प्रकार .की जाती है कि वह एक चौकोर ताबेकी टङ्कीमें, कुछ चूनेके पानीमें ( जिसमें थोड़ा बैलका खून भी होता है ) ५ से २० प्रति शत हड्डीका कोयला डाल कर शुद्ध की जाती है। और हड्डीके कोयले और खूनका भी अधिक प्रयोग किया जाता है।" लन्दनके डाक्टर इसल अपनी पुस्तक Food and its. adulerations के पृष्ठ १७ और ३१ में लिखते हैं "Blood is a fluid compounded of febrine albumen, and a variety of salts and effete sub. stances, its use therefore in the manufacture of lump sugar, is not merely disgusting, but is calculated to prove injurious to the health. The sugar refiner will tell us that the whole of the blood employed is removed by the pro For Private And Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमे दाभैक्ष। cess of filteration adopted. This is not the case, however, as may in general be readily proved by dissolving a few knobs of lump sugar a large wine-glass of warm water and subjecting the sediment-which usually falls into the bottom, to microscopic examination and chemical analysis; the first shows that the sedimentary matter consists of angular flocculi, taking the form of the interstices of the crystals; and the second, that is composed of coagulated albumen. The only considerable advantage derived from the use of blood, is its cheapness; but when not merely cleanliness but health is concerned, the question of economy ought not to be entertained for one moment. We have now adduced incontestable evidence of the impure condition of the majority of Brown sugar, as imported into this country, and particularly as vended to the public, these impurities prevail to such an extent, and are of such a nature-consisting of live animal, culac or acari, sporules of fungus, starch, grit, wood fibre, grape-sugar etc:-that we feel compelled, however reluctantly, to come to the conclusion that the Brown sugar of commerce in general, is in a state wholly unfit for human consumption. For Private And Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विदेशी शक्कर। १४३ ....ruwwwwwwwwwwwnwarwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww One portion of our advice to the public must therefore be, not to purchase the inferior brown sugar of the shop. (See pages 17,31 " Food and adulerations" by Doctor Hassal London 1855). __ अर्थात्-खून एक प्रकारके जमनेवाले रस और सफेदी तथा कई प्रकारके नमक एवं खराब वस्तुओंसे बनता है, अतः शक्कर बनानेमें इसका प्रयोग केवल घृणित ही नहीं, बल्कि स्वास्थ्यके लिये भी हानिप्रद है । शक्करके शुद्ध करनेवाले शायद यह कहें कि सारा खून छान कर अलग कर दिया जाता है। किंतु वास्तवमें ऐसा नहीं है, जो इस प्रकार सिद्ध हो सकता है कि एक बड़े गिलासमें गर्म पानी भर कर उसमें कुछ दानेदार शक्कर डाल दीजिए। फिर गल जाने पर उसकी पेंदीमें जो मैल जम जाता है उसे खुर्दबीन द्वारा देखा जाय और डाक्टरी तरीकेसे उसका विश्लेषण किया जाय तो पहली चीज उसमें नुकीले रेशेसे नजर आयेंगे, दूसरे खूनकी जमी हुई सफेदी दिखाई पड़ेगी। खूनका प्रयोग करनेका कारण है तो केवल यह कि वह सस्ता है, लेकिन जब कि न केवल सस्ते और सफाई बल्कि स्वास्थ्यका प्रश्न भी साथ ही है तो किफायतका खयाल एक क्षण नहीं रखना चाहिए । हम इसके लिये अकाट्य प्रमाण दे चुके कि विदेशी खाड जो यहाँ आती है और खास कर वह जो सर्व-साधारणमें बेची जाती है, अत्यंत ही अपवित्र होती है । यह अपवित्रता इस सीमा तक है कि पशु, भूसी, कूकर-मुत्ते, माड, ताड़, चुकन्दर आदिसे बनती है । विदेशी शक्कर मनुष्यके खानेके अयोग्य है। हम लोगों की सम्मति है कि वे घटिया शक्कर कदापि न सेवन करें।" For Private And Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कन्द वरता नहीं की जातकायद, पाकी है, लेकिन एक . भारतमें दुर्भिक्ष । अखबार सिविल एण्ड मिलीटरी-न्यूज़ लुधियानाके ३० जुलाई सन् १९०३ ई० के अंकमें लिखा है___“विलायती कन्द या चुकन्दरी खाड-जिसन हिन्दुस्तानकी ज़रा: भते नैशकरको-गारत किया है गो देखनेमें सुफैद और कीमतमें अरजा है, मगर बकौल मि० फिनले निहायत खतरनाक चीज़ है। सब जानते हैं कि वह हड्डियोंसे साफ की जाती है, लेकिन एक अरजानीके सामने मज़हब, अकायद, पाकीजगी और लज्जतः किसी बातकी परवाह नहीं की जाती । आम तौर पर तमाम हलवाई विलायती कन्द बरतते हैं, और पुराने ख़यालके चन्द आदमियोंके लिये जो अभी तक परहेज किये हैं, बाज दूकानदार इसी हड्डियोंकी खाँडमें गुड़का शीरा मिला-मिला कर रंग सुर्थी मायल कर देते हैं ताकि देशी खाँडके धोखे खरीद करने में कोई एतराज न हो। अब शरबत क्यों नफा नहीं करते और लजीज मालूम नहीं हो', अब शरबत नीलोफर क्यों तिश्नगी फरो नहीं करता ? महज़ इस वजहसे कि तमाम अत्तार चुकन्दरी कन्दके शरबत बनाते हैं । मिस्टर फिनले लिखते हैं कि चुकन्दरी शक्कर ख्वाह ऐसी सस्ती हो जावे जैसे रेतके ज़रें, या ऐसी बेशकीमत जैसे मरवारीद, लेकिन फिल हकीक़त एक खतरनाक चीज़ है । इसको ऐसा समझना चाहिए कि जहरके प्यालेमें दूध मिलाया हुआ है । इसके इस्तेमालसे बहुतसी बीमारियाँ देशमें पैदा हो गई हैं, तबीअतोंमें एक खास किस्मकी खुश्की और हरारत पैदा हो गई है। बकौल मिस्टर फिनले यह हद दर्जे की खुश्क और गरम चीज़ है, और खूनमें गैर-मामूली शिद्दत पैदा करती है, जो मसनई जोशके साथ कमजोर हो जाती है। खूनकी For Private And Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विदेशी शक्कर। १४५ कमजोरी ही सारी बीमारियोंकी जड़ है। हिन्दुस्तान जैसे गर्म मुल्कमें नैशकरकी खाँडके सिवाय हर किस्मकी शक्कर मुजिरे-सहेत पड़ेगी। इसी वास्ते हुकमाय हिन्दने जो हजारहा सालके तजर्वे के बाद यहाँकी आबोहवासे वाकिफ़ हो गये थे, लहसन, पियाज़ और गरम चीजोंका इस्तेमाल मना किया है; क्योंकि ये खूनको गैर मामूली गरमी पहुँचाते हैं।" अखबार " हितकारी " के २२ मई सन् १९०३ ई० के अंकमें लिखा है कि-" मगरबी सौदागरोंने सुफैद खाँडको खूबसूरतीका खिताब देकर हिन्दुस्तानी व्यौपारियोंको बहममें डाल रक्खा है। चीनीका उम्दा या खुश जायका होना उसकी सुफैदी पर इनहसार नहीं रखता, लेकिन हिन्दुस्तानमें इस बातको कौन सोचे । जो फैशन अलहसल्लाम कहे सोई सबको मंजूर । चन्द साल हुए कि केम्ब्रि जसे मिस मूलर साहिबा बी० ए० अमृतसरमें आई। इनको किसीने देशी चीनी चायके लिये लेदी। वह उसके जायकेसे ऐसी खुश हुई कि उन्होंने देशी चीनीसे मिठाई बनवा कर अपनो वाल्दा साहिबको लण्डनमें भिजवाई और जब तक पंजाबमें रहीं तब तक देशी चीनीकी लज्जतकी तारीफ करती रहीं। हर एक इनसान जाँच सकता है कि देशी चीनी बनिस्बत विलायती चीनीके जियादह मिठास रखती है, लेकिन जब तक मगरिबसे सनद न आये इस बातको कौन जाने । तजुरबा बतलाता है कि जहा सेरभर दूधमें देशी खाँड एक छटॅाक डालनेसे काफी मीठा हो जाता है, उतना बम्बईकी खाड ( विदेशी खाड) दो छटॉक डालनेसे काफी मीठा नहीं हो सकता है, लेकिन तुर्रा यह है कि दूकानदार खुद विलायती For Private And Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष। खाँडके आशिक बन रहे हैं । चुकन्दरकी खाडमें वह लज्जत और उम्दगी नहीं होती जो कि देशी नैशकरकी चीनीमें होती है । चुकन्दरकी बनी मिठाई जल्द बदबू देने लग जाती है। कोई कोई आम काले रंगका होता है, कोई काले और पीले रंगका । लेकिन रंगसे आमकी असलियतका फैसला नहीं कर सकते । इसी तरह रंगसें चीनीकी असिलियतका परखना, इल्मवालोंका काम नहीं । किफायत शुभारीकी रूसे भी देशी खाड ही अरजा है, क्योंकि जहाँ वह सेर काम देती है, वही यह भाध सेर ही काफी साबित होती है।" ___ " आयुर्वेद-प्रचार " लाहोरके १ नवम्बर सन् १९०३ में लिखा है-"हिन्दुस्तानी शक्कर बलिहाज़ फायदा भी आला है, हाला कि वलायती खाँडके अमराज पैदा करनेके मुताल्लिक कई डाक्टर लिख चुके हैं, मगर न मालूम हमारे भाई देशी खाडके इस्तैमालका सच्चे दिलसे इकरार क्यों नहीं करते और क्यों उसे इस्तेमाल में नहीं लाते। अगर मौजूदा हाल रहा तो देशी शक्करका मिलना भी दुश्वार हो जायगा। लोग नैशकरकी खेती ही छोड़ देंगे और फिर पछतायँगे और कुछ कर नहीं सकेंगे। अभी वक्त है अगर संभला चाहते हैं।" ‘हिन्दी-बंगवासी ' कलकत्ता अपने ३० नवम्बर सन् १९०३ ई० के अंकमें लिखता है__“ भारतवर्षसे प्रति वर्ष एक लाख टन प्रायः (२८००००० मन) जानवरोंकी हड्डिया भेजी जाती हैं । जर्मनी और इंग्लैण्डमें हड्डि. योंके कारखाने अधिक हैं । ये हड्डियाँ खाद तथा चीनी आदि अनेक पदार्थों के प्रस्तुत करने में काममें लाई जाती हैं।" For Private And Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विदेशो शक्कर। १४७ " श्रीवेंकटेश्वर-समाचार " बंबईने १ जनवरी सन् १९०४ के अंकमें लिखा है-" हम बहुत प्रसन्न हैं कि शक्करका विषय उठने पर हमारे धर्मप्रेमी महाशय उसकी अधिक जाँच करने लग गये हैं । गंगापोल जयधुरके पंडित हनुमानप्रसादजी शर्माने इससे देशका रुपया विदेश जाने और धर्मभ्रष्ट होनेके सिवाय और कई दोष लिखे हैं । प्रथम तो यह भ्रष्ट है और इसके बने पदार्थ शीघ्र ही बिगड़ जाते हैं । फिर इसके सेवनसे दस्त और खूनकी बीमारी, मुखमें छाले पड़ने और हैजा होनेका भी डर रहता है । इसके विरुद्ध देशी शक्कर सब तरहसे लाभकारी और ग्राह्य है । आशा है कि इनके कथन पर लोग विचार करेंगे।" . उक्त समाचार-पत्र जनवरी १९०४ के अंकमें पुनः लिखता है" गाजीपुरके पं० देवराज मित्रका कथन है कि मोरिसके ढङ्गकी चीनी शहाजहाँपुरमें भी बनाई जाती है। वही चाशनी तैय्यार करके एक कुलफीदार हौजमें उसे डालते हैं और हौज़के मुंह पर हड्डीका पिसा हुआ मैदा भी छिड़का जाता है । जो हो, इसमे संदेह नहीं कि विलायती चीनी बनाते समय उसका मैल साफ करनेके लिये चूना और जली हुई हड्डीका प्रयोग किया जाता है।" यह बात बिलकुल उचित ही है, क्योंकि विदेशी शक्करके प्रवेशके साथ ही साथ प्लेगने भी भारतमें पदार्पण किया है । सन् १८९० ई० के पश्चात् ही विलायती शक्कर अधिक परिमाणमें यहाँ आने लगी है। उसी समयसे बंबई में प्लेग फैला; क्योंकि आरंभमें यह बंबईमें आई और वहीं इसका प्रसार हुआ था। ज्यों ज्यों विदेशी खाँडका प्रचार भारतके अन्य भागामें बढ़ता गया त्यों त्यों प्लेग भी For Private And Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष। अपनी टाँगें फैलाता गया। यहाँ तक कि आज न तो कोई भारतवर्षका नगर, कस्बा, गाँव आदि इस अपवित्र शक्करसे बचा है और न प्लेगसे बचा है। ___ लाहोरके प्रसिद्ध कविराज, कवि-विनोद पं० ठाकुरदत्तजी शर्माने १ अक्टूबर सन् १९०७ के “ मनुष्य-सुधार" नामक पत्रमें तथा २० जनवरी सन् १९०५ के " हितकारी " पत्रमें अपनी सम्मति प्रकाशित की है कि "प्राचीन वैद्यक ग्रंथों-चर्क, आत्रेयी संहिता आदि में विसर्प रोगके बयानमें साफ लिखा है कि भ्रष्ट खाडके सेवनसे जो गन्ने के अतिरिक्त अन्य पदार्थों द्वारा बनाई जावे, ऐसी ही महामारी (प्लेग) फैलती है। इनके सिवाय और भी कई विद्वानोंको सम्मति है । और विसर्पका बयान उक्त ग्रंथों में विस्तार-पूर्वक लिखा है। यदि किसीको यह शंका उत्पन्न हो कि जिस विलायतमें यह भ्रष्ट खाँड बनती है और जहाँके लोग रात-दिन इसे खाते हैं, वहाँ प्लेग क्यों नहीं फैलता ? इसका उत्तर यह है कि जैसे हर समय मैले और बदबूमें रहनेवाला मनुष्य दुर्गन्धसे बीमार नहीं होता, किंतु साफ और सुगन्धित स्थानमें रहनेवाला उसी बदबूसे बीमार हो जाता है; अथवा जैसे ६ माशे नित्य अफीम खानेवाला मनुष्य नित्य ६-७ माशे खाकर भला चंगा रहता है और कभी ९-१० माशे खा जाय तो भी उसे कोई हानि नहीं होती; परन्तु यदि न खानेवालेको उतनी ही अफीम खिला दी जाय तो वह जीवित नहीं रह सकताइसी भाँति शीत देशोंके निवासियोंको-जिनके संस्कार ही ऐसे हैं और जो सदासे ऐसी ही वस्तुएँ खाते हैं---इस खाँडसे हानि नहीं हो सकती । दूसरे देशोंमें विलायती खाँड खाने पर प्लेगके न होने और इस देशमें होने में कई अन्य बातें भी सहायक हैं For Private And Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विदेशी शक्कर। (१) विदेशी लोग रात दिन भारतीयोंकी भाँति मिठाई नहीं खाते, थोड़ी खाते हैं । खाते हैं तो पेटमें लूंस-ठूस कर नहीं खाते । भारतमें नित्य खाली भोजनके साथ, दूधमें, शरबतमें, हलुवे में बेहद शक्कर खाई जाती है। (२) विदेशी लोगोंमें आजकल सफाईकी और बहुत ध्यान है। शुद्ध जल, शुद्ध वायु, शुद्ध भवन उनके काममें आते हैं। (३) विदेशी मनुष्य बलवान भी हो चले हैं । हमारे देशवासी भयंकर दरिद्रता और दुर्भिक्षके कारण पौष्टिक पदार्थ नहीं खा सकते, अतः निर्बल होते जा रहे हैं। साथ ही बाल-विवाह आदि कई कारण भारतको बलहीन करने में कोई कसर नहीं रख रहे हैं। __भारतमें अमृत तुल्य गन्ने की शक्कर पुष्टिकारक पदार्थ है । इस देशके लिये विदेशी शक्कर कदापि उपयोगी नहीं हो सकती। शक्कर खानेका मुख्य हेतु रक्तको शुद्ध करना है और यह गुण सिवाय गन्ने की शक्करके अन्य किसीमें नहीं पाये जाते । कई बार देखा होगा कि औषधि प्रभृतिमें वैद्य देशी खाँड ही बताते हैं, क्योंकि विदेशी खाँड गुणशून्य और अवगुणका भण्डार है। हमारे देशमें विदेशी मिठाइया भी आती हैं, जो रंगीन, गोल, लम्बी, तिरछी, चौखूटी, तिखूटी आदि अनेक रूपोंकी होती हैं। हमारे भारतीय बन्धु प्रेम-पूर्वक अपने बालकोंको वही मिठाई बाजारसे खरीद खरीद कर खिलाते हैं--किन्तु उसमें प्राणहारी विष है, इस विषयमें हम अँगरेजोंके वाक्य उद्धृत करते हैं, जिन्होंने कई बाल. कोंकी मृत्युका कारण उपर्युक्त मिठाइयोंको बताया है “Every investigation that has been made into the colouring matters used by confec है। For Private And Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५० भारतमे दुर्भिक्ष । tioners for the adornment of their sweetmeats has invaribly ended in the discovery of poisons of the most destructive and deadly nature. In England, the centre of civilization, as we are so fond of calling it, poison is openly vended in the streets, shop windows are filled with it; and although Doctor Letheby tells us that "within the last three years no less than seventy cases of poisoning have been traced to this source "still no steps are taken to decrease or prevent the evil. Brunswick-green is frequently employed for colouring sweet meats. This substance is known as the oxy chloride of copper, a small quantity of it is sufficient to produce death. A case is mentioned by Henke where a boy aged three died from sucking a cake of green water colour prepared with this mineral poison, such as is sold in the colour boxes of children. The most easily obtainable antidote is the white of Eggs. In september 1847 three adults and eight children were taken to marylebone Work house having been seized with vomiting and retched after eating some coloured confectionary, only to penny worth had been purchased, and eleven persons had shared it, yet the symptoms For Private And Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विदेशी शक्कर | appeared within ten minutes of its being taken. The poisonous colours had been made from verdigris. १५१ Another case is mentioned by Dr. Letheby in may 1850; two little girls were taken to London Hospital suffering from the effects of poison. They had brought some sugar ornaments and coloured confectionary from a jew in Pethicoat Lane, and soon after eating them, they were siezed with vomiting pains in the stomach and burning of the mouth, on analysing the vomited matters, there was abundant evidence of the presence of arsenic copper, lead Iron, all of which had been derived from the confectionary of which the children had partaken. On making enquiry, Dr. Letheby was informed that between thirty and forty children had been attacked in a similar way, after purchasing sweetmeats from the Jew in question, who was not aquainted with the poisonous nature of his merchandise, for he had purchased it, so he stated as the refuse stock of a large and "very respectable" firm in the city etc., etc. (See "tricks of trade London" 1856 page 42, 43, 44, 45 etc.). For Private And Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir varnar भारतमें दुर्भिक्ष । ऊपर लिखित अँगरेजीके उद्धृतांशका हिन्दी अनुवाद करना केवल पृष्ठोंका बढ़ाना है। सारांश यह है कि कई डाक्टरोंने डाक्टरी परीक्षा द्वारा सिद्ध किया है रंगीन विदेशी मिठाई एक अति विषयुक्त पदार्थ है, जिसके सेवनसे अनेक बालक बेमौत मर गये । इत्यादि रिसाला ( मासिक पत्र ) " मुफीदुल मुजारईन " माह अक्टूबर सन १९०३ में प्रकाशित हुआ था कि-"जिन पौदोंसे मिश्री निकलती है, उनमें गन्ना अव्वल दर्जे पर है, और चौदहवीं सदी तक युरोपके देशोंमें न तो गन्ना था और न गुड़-शक्कर।तमाम चीनी और कन्द वगरह हिन्दोस्तानसे ही वहाँ जाते थे । अफसोसके साथ लिखा जाता है कि वह हिन्दुस्तान जो तमाम यूरोपका, गुड़ और शक्करसे मुंह मीठा करता था वही अब अपनी जरूरतोंके लिये दूसरे मुल्कोंका मुहताज है । सन् १८३६ ई० से पहले अपना खर्च निकाल कर हिन्दुस्तानसे २ करोड़ रुपये की शक्कर वगैरह मुमालिक गैरको जाया करती थी मगर सन् १८९० ई० में ३३९७९८६१) रु० की चीनी और गुड़ दूसरे मुल्कोंसे हिन्दोस्तान में आया । और यह भी लिखा है कि गन्नेके सिवाय खजूर, छुहारे, मकई, जुवारकी डण्ठल,. बोट (Qeet ) चुकन्दर, नारियल, ताड़ी, मैपिल, शलगम, गाजर, गेहूँ, आलू, दूध, तारकोल इत्यादि अनेक वस्तुओंसे भी चीनी निकाली जाती हैं । यहाँ तक कि हज़रत कारीगरने मनुष्यके मूतसे भी चीनी निकाली है । और एक करखानेका जिक्र लिखा है जिसमें २४ घंटेके अन्दर चुकन्दरसे शक्कर बिलकुल तैय्यार हो जाती है। सोचिए ऐसी वस्तुओंसे तथा इतनी शीघ्र बनी हुई विदेशी खाड For Private And Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विदेशी शक्कर। RAJAmr ANNA क्या उस गन्नेकी बनी हुई देशी खाँडकी-जिसका रस अमृतके समान ठंडा और गुणदायक है और जिसकी राब बनानेके समय ‘पकनेकी गर्मीको भारतवर्षके दूरदर्शी विद्वानोंने जलमें ऊगी हुई घास ( कंजी के द्वारा धीरे धीरे शोरेमेंसे निकाल कर खाँडको ठंडी, पुष्टिकारक,रोग-नाशक और लाभदायक बना दिया है-किसी प्रकार भी बराबरी कर सकती है ? इस विदेशी खाडका इतना अधिक प्रचार हो गया है कि प्रति सहस्र दस मनुष्य बड़ी कठिनतासे देशी खाँडके खानेवाले मिलेंगे । यदि नित्यकी आधी छटाँक खाँड भी प्रति मनुष्य मान ली जावे--क्योंकि बहुतेरे दरिद्रोंको तो खाँड कभी स्वप्नमें भी नहीं मिलती-तो लगभग ढाई लाख मन शक्कर भारतको एक दिनमें चाहिए अर्थात् छः करोड़ मन शक्कर प्रति वर्ष भारतवासियोंके उदरमें समा जाती है । यदि इसमेंसे ३ करोड़ मन शक्कर विदेशी मान ली जाय तो तीन करोड़ रुपया भारतवर्षका शक्कर खाने के लिये हिन्दुस्तानसे बाहर. निकल जाता है ! कहिए मीठा मुंह आप करते हैं या कि विदेशी ! हम अपने हाथों अपने प्यारे देशको कंगाल कर रहे हैं; अपनी मूर्खतासे भारतका भविष्य मिट्टीमें मिला रहे है; अपने हाथों दुर्भिक्षका भारतमें आह्वान कर हर्ष-पूर्वक स्वागत कर रहे हैं। प्यारे भाइयो ! यदि आप एकदम इस शक्करका बहिष्कार कर दो तो धन और धर्म दोनोंकी रक्षा कर भारतका हित कर सकते हो। अपनी जिव्हा इंद्रियको जरा दमन करनेसे यह कार्य अच्छी तरह हो सकता है । हम भारतीयोंके लिये हमारे शास्त्रकार महर्षियोंने इन्द्रिय-दमन एक अपूर्व तप बतलाया For Private And Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष। है, तो क्या आप केवल जिव्हा-इन्द्रियको अपने अधीन नहीं रख सकते ! महात्मा बुद्ध, स्वामी शंकराचार्य, देशभक्त प्रताप, शिवाजी, -स्वामी दयानन्द सरस्वती आदिने अपने देशके कल्याण-साधनार्थ प्राण तक दे दिये, अनेक दारुण कष्टसहे तो क्या आप उनके अनुयायी भारतके दुःख-निवारणार्थ तनिक भी कष्ट न सह कर, इस भाँति दुर्भिक्ष राक्षसको अपने देशबन्धुओंका संहार करता देख कर प्रसन्न होगे ? क्या आपको यह भी नहीं मालूम कि यही दशा रही तो एक दिन दुर्भिक्षके कुचक्रमें हमें भी पड़ना होगा ! __ अब हम जहँ। यह अपवित्र शक्कर बनती है, उस देशका वर्णन संक्षिप्त रूपमें पाठकोंके सम्मुख इस लिये रखना चाहते हैं कि वहाँके निवासी भारतीय बन्धुओंकी दुर्दशा पर आप जरा ध्यान दें । हम तो यहाँ पर वहाँकी बनी शक्कर खाकर अत्यंत प्रसन्न होते हैं, परन्तु हमारे भाइयोंकी वहाँ कैसी दुर्गति है इसे भी पढ़ जाइएयदि आपको तनिक भी अपने देश-भाइयोंसे अनुराग होगा अथवा चित्तमें दया होगी तो आप कदापि उस देशकी बनी शक्कर छुएँगे भी नहीं । जिस देशमें यह शक्कर बनतो है उस स्थानका नाम है 'मोरीशस' टापू । इसी टापूके नामके कारण यह शक्कर “ मोरस शक्कर" के नामसे पुकारी जाती है। For Private And Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोरीशस टापू। मोरीशस टापू। तक्षिण अफ्रिकाको छोड़ कर बाकी जिन देशों या द्वीपोंमें भारत प्रवासी बसे हुए हैं उनमें मोरीशसका नाम सबसे पहले उल्लेख योग्य है । हमारे देशमें मोरीशस टापू दो नामोंसे प्रसिद्ध है; एक 'मोरिस ' और दूसरा 'मिर्चका देश । डच लोगोंने अपने राजकुमार मोरिसके नाम पर इस द्वीपका नाम मोरीशस रखा था, लेकिन हमारे यहाँ मोरिस नामकी प्रसिद्धि उस देशसे आनेवाली शक्करके कारण हुई। मिर्चका मुल्क इस देशका नाम क्यों पड़ा इस विषयमें एक बार भारतमित्रने लिखा था कि “ दो चार मिचें खानेसे तो मुंह ही कड़वा और चरपरा हो जाता है, परन्तु अधिक मिरच खानेसे खानेवालेको बड़ा कष्ट होता है और असह्य वेदनासे वह छट-पटाने लगता है । मोरीशसमें हिन्दुस्तानी कुलियोंके साथ जो कुव्यवहार किया जाता है, वह ऐसा है कि मानों उसके चारों तरफ मिर्च ही मिर्च लगा दी गई है । इस लिये इस दारुण दुःखसे दुखी होकर ही वहाँ जानेवाले हिन्दुस्तानी कुलियोंने इस टापूका नाम 'मिर्चका. मुल्क ' रख दिया।" ___ संभवतः 'मिर्चका मुल्क ' पुकारे जानेका यही कारण हो, लेकिन हमारी समझमें यह मोरीशसका अपभ्रंश है। जो हो हमें क्या प्रयोजन । मोरीशस उपनिवेश है । इसके दो कारण हैं, एक तो यह कि वहाँके ३६८७९१ मनुष्योंमें २५७७०० भारतीय हैं । दूसरे यह कि दासत्व प्रथाके उठ जाने पर सबसे पहले भारतवासी इसी द्वीपको कुली बना कर भेजे गये थे। For Private And Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५६ भारतमें दुर्भिक्ष । यह द्वीप हिन्द महासागर में है । कुमारी अन्तरीपसे इसकी दूरी लगभग दो हजार मील है । सन् १५०५ तक तो इसमें केवल बन्दर और चूहे ही रहते थे । पुर्तगालवाले जा बसे थे, मगर उन्हें सन् १७१२ में चूहोंसे तंग आकर भागना पड़ा था । लगभग १०० बर्षो से मोरीशस अँगरेजोंके अधिकार में है। जब सन् १८३२ ई० में गुलामी उठा देनेकी बात चली थी, तब ईखके व्यवसायी मोरीशस निवासी फरासीसियोंने अँगरेजों से कहा था कि - "गुलामीकी प्रथा उठा देनेसे दमारा बाणिज्य-व्यवसाय नष्ट हो जायगा, गुलामोंसे तो हम अपना सारा काम कराते हैं ।" इस पर अँगर जोंने उन्हें वचन दिया कि हम हिन्दुस्तान से तुम्हारे लिये कुली भेजेंगे । तबसे अर्थात् सन् १८३४ ई० से फरासीसियों के खेतों पर काम करनेके लिये हिदुस्तान से कुली भेजे जाने लगे थे । मोरीशस में जो जो अत्याचार भारतीयों पर हुए उनका वर्णन अक्षरशः करना मानों पुस्तककी पृष्ठ संख्या बढ़ाना है, तो भी हम कुछ अत्याचारोंका वर्णन करेंगे। मोरीशसके गोरोंने भारतीयोंको अधिक परतंत्र बनानेके नियम बनाये । अँगरेजी विश्वकोष के नवें संस्करणके ३३६ वें पृष्टमें लिखा है- “ The case of Mauritius was more serious: It had long been suspected that the colony had been indulging in a course of legislation the tendency of which says Mr. Geoghegam, the under-Secrety th the department of agriculture in the Government of India, was For Private And Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोरीशस टापू । १५७ towards reducing the Indian labourers to a more complete state of dependence upon the planter, and to-wards driving him into indentures, a free labour market being both directly and indirectly discouraged." अर्थात्-मोरीशसकी स्थिति अधिक भयंकर थी । बहुत दिनोंसे इस बात की आशंका थी कि यह उपनिवेश ऐसे कानून बना रहा है, जिसके कारण भारतीय मजदूर प्लांटरोंके बिलकुल अधीन हो जायें और वे बार बार शर्तबन्दी कर लें । स्वतन्त्र मज़दूरीको हर प्रकारसे, सीधी तरहसे और टेढ़े तरीकोंसे रोकने की चेष्टा की जा रही थी । यह बात मि० जी ओघेन साहबने जो उस समय सरकारी कृषिविभागके उपमंत्री थे, कही थी । , " सन् १८३४ ई० से १८३८ तक चार वर्षो में २५ हजार भारतीय मोसको कुली बना कर भेजे गये । इन्हीं दिनों ब्रूहम साहबने तथा दासत्व प्रथाके अन्यान्य विरोधियोंने ब्रिटिश पार्लमेंटमें इस कुली प्रथा के विरुद्ध आन्दोलन किया । 'इन्साइक्लोपीडिया' के नवीन संस्करण में 'कुली-प्रथा' का जिक्र करते हुए इस विषय में लिखा है । (f Brougham and the anti-salavero party denouced the trade as a revival of slavery, and the Bengal Government suspended it in order to investigate its alleged abuses. The nature of these may be guessed when it is said that the enquiry condemned the fraudu lent methods of recruiting then in vogue, and For Private And Personal Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५८ भारतमें दुर्भिक्ष। the brutal treatment which coolies often receive from ship captains and masters.” अर्थात्-ब्रूहम तथा दासत्व प्रथाके विरोधी दलने इस कुलीप्रथाकी बड़ी निन्दा की और कहा कि यह गुलामीका नवीन रूप है, और बंगालकी सरकारने इसे कुछ दिनोंके वास्ते इस लिये बन्द कर दिया कि तब तक इसकी हानियोंकी जाँच की जाय । इस प्रथाकी हानियों और दुरुपयोगोंका पता इसी बातसे लग सकता है कि जाच करनेवालोंने भरतीकी प्रथामें जिन छल-पूर्ण तरीकोंसे काम लिया जाता था उनके कारण, और जहाजोंके कप्तानों तथा अन्य कर्मचारी भारतीय मजदूरोंके साथ जो जंगलीपनका बर्ताव करते थे उसके कारण, उसकी अत्यंत निन्दा की है । फ्रांसीसी बैरिस्टर मि० देपीनेने भारतीयोंका बहुत कुछ पक्ष ग्रहण किया। इसके बाद मोरीशसमें तेमिलके प्रोफेसर राजरत्न गुदालियरने बहुत कुछ प्रयत्न किया, परन्तु सरकारी नौकर होने की वजहसे वह प्रकाश्य रूपसे कोई आन्दोलन नहीं कर सके । अन्तमें उन्होंने सहृदय फ्रांसीसी मि० एडोल्फडे प्लेविट्जके द्वारा एक प्रार्थना-पत्र महाराणी भारतेश्वरीके औपनिवेशक मंत्रीके पास भेजा, जिसमें यह निवेदन किया गया था कि एक शाही कमीशन द्वारा मोरीशस प्रवासी हिन्दुस्तानियोंकी दशाकी जाँच की जाय । तदनुसार सन् १८७१ ई० में जाँचके लिये कमीशन नियुक्त हुआ । सन् १८७५ ई० में कमीशनने अपनी रिपोर्ट साम्राज्य-सरकारके सामने पेश की। इस रिपोर्टका तात्पर्य यह था कि कुलियोंके साथ जो बर्ताव किया जाता है, वह अत्यन्त असन्तोष-जनक है और वे पूर्णतया For Private And Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोरीशस टापू। १५९ प्लाण्टरोंके अधीन हैं । कमीशनने सुधार करनेके लिये कितनी ही सिफारिशें की थीं और तदनुसार कुछ सुधार किये भी गये थे, लेकिन तब भी मोरीशस-प्रवासी भारतीयोंकी दशामें कोई विशेष अन्तर नही पड़ा! उनके दुःख ज्योंके त्यों ही बने रहे । एक सरकारी रिपोर्ट में, सन् १८८३ ई० में मोरीशस-प्रवासी भारतीयोंकी जो दशा थी उसके विषयमें लिखा है: “While the Government of India have taken great care to secure the satisfactory regulation of the Emigrant ships the laws of the Island have been so unjust to the coloerud people, and so much to the advantage of the Planters, that gross evils and abuses have arisen from time to time. In 1871 a Royal commission was appointed to inquire into the abuses complained of various reform were recommended and some improvements have been effected, but the Planters are not remarkable for their respect of the rights of the Coloured people, and the system is liable to gross abuse unless kept under vigilant control by higher authority." __ अर्थात् यद्यपि भारत-सरकारने इस बातके लिये बहुत प्रयत्न किया है कि जिन जहाजोंमें भारतीय मजदूर विदेशोंको भेजे जाते हैं, उनकी अवस्था सन्तोष-जनक की जावे, तथापि इस द्वीपके कानून कृष्णवर्ण आदमियोंके लिये इतने अन्याय-पूर्ण और प्लाण्टरोंके लिये इतने कधिक लाभदायक रहे हैं कि इनकी वजहसे समय समय पर For Private And Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६० भारतमें दुर्भिक्ष । बहुतसी बड़ी बड़ी बुराइयाँ और अन्यान्य दोष उत्पन्न हो गये हैं। सन् १८७९ ई० में जिन अन्यायों और बुराइयोंकी शिकायत की गई थी उनकी जाँच करनेके लिये एक कमीशन नियुक्त किया गया था । इस कमीशनने कितने ही सुधारोंकी आवश्यकता बतलाई और तदनुसार कुछ सुधार कर भी दिये गये । लेकिन प्लाण्टर लोग कृष्णवर्ण जातियोंके अधिकारोंको विशेषतः आदरकी दृष्टिसे नहीं देखते । यदि उच्चाधिकारी वर्ग बड़ी सावधानता पूर्वक 'कुली प्रथा' पर अपना अधिकार न रखे तो इस प्रथामें अनेक निकृष्ट बुराइयोंके पैदा होने की संभावना है । मोरीशस - प्रवासी भारतीय भाइयोंको क्या क्या कष्ट सहने पड़े अथवा सहने पड़ते हैं इसका संक्षेपमें यहाँ वर्णन किया जाता है । मोरीशस प्रवासी भाइयों को जो थोड़े बहुत राजनैतिक अधिकार हैं, वे उनका उपयोग नहीं कर सकते । इसका कारण यह है कि उनकी उन्नति और अवनति बहुधा गोरे जमींदारों और कारखानेवालों पर अवलम्बित है । कभी तो हिन्दुस्तानियों के पास गोरों की जमीनका कुछ रुपया बाकी रहता है और कभी खाद मोल लेनेके लिये हिन्दुस्तानियोंको गोरोंसे रुपया उधार लेना पड़ता है। इस भाँति हिन्दुस्तानी लोग गोरोंका मुंह ताकते रहते हैं । मोरीशसको जिस समय कुली भेजना प्रारंभ हुआ था, उस ममय स्त्रियोंके ले जाने की प्रथा नहीं थी, परन्तु कई वर्षों के बाद मैकड़े पीछे ३३ स्त्रियाँ ले जाना गुमाश्तोंने उचित सझा । स्त्रियों की संख्याकी कमीसे जो जो नैतिक हानियाँ हुईं उनके लिखनेकी आवश्यकता नहीं है । पाठक स्वयं अनुमान कर सकते हैं । For Private And Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोरीशस टापू । __ पहले भारतवासियोंको एक बड़ा कष्ट यह भी था कि जेलमें पहुँचते ही उनका सिर और दाढी मुंडा दी जाती थी। हिन्दू शिखा और मुसलमान दाढ़ी रखते हैं । शौककी बात समझ कर वे शिखा और दाढ़ी नहीं रखते हैं, बल्कि हिन्दू मात्रके लिये शिखा और मुसलमानोंके लिये दाढ़ी रखना धर्मसे सम्बध रखता है । शिखा और दाढी मुंड जानेसे हिन्दू और मुसलमानोंके धर्मोको धक्का लगता था । केवल यही नहीं, बल्कि जेलखानेमें दोनों प्रकारके धर्मावलम्बियोंको काफिरों द्वारा पकाया हुआ खाना खाना पड़ता था। इसमें हिन्दू मुसलमानोंके अखाद्य पदा का बिलकुल विचार नहीं किया जाता था । चार पाँच वर्ष हुए श्रीयुत् मणिलालजी बेरिस्टरने जो उस समय मोरीशसमें रहते थे, बड़े प्रयत्नके बाद जेलके इन कष्टोंको दूर कराया। लगभग ७५ वर्ष तक भारतवासियोंको मोरीशसमें इन कष्टोंको जेलके समय सहना पड़ा । सुनते हैं कि एक बार एक ब्राह्मणने जेल में जाकर दो महीने तक कुछ भी नहीं खाया, तब उसके लिये दूधकी व्यवस्था की गई और वह जेलसे निकाल दिया गया, किन्तु इसके एक सप्ताह बाद ही निर्बलता एवं बीमार हो जानेके कारण उसके प्राण पखेरू उड़ गये । इन सबका मूल कारण हमारा विदेशी शक्करका व्यवहार ही कहा जा सकता है। भारतवासियोंके खाद्य पदार्थे। पर टैक्स बहुत ज्यादह लगाया जाता है । उदाहरणार्थ एक साधारण बात लीजिए-यूरोपियन लोग मक्खन खाते हैं और हिन्दुस्तानी घी व्यवहारमें लाते हैं । मोरीशसमें मक्खन की अपेक्षा घी पर अधिक टैक्स लगता है । कानू ११ For Private And Personal Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir vvvvvvvvvvvvvv भारतमें दुर्भिक्ष। नकी दृष्टिमें यूरोपियन और इण्डियन समान होने चाहिए, पर मोरीशसमें यह बात नहीं हैं। हिन्दुस्तानमें हिन्दू और मुसलमानके उत्तराधिकारीका निश्चय उनके धर्म-शास्त्रानुसार होता है, इन्हींके अनुसार हिन्दुओं और मुसलमानोंको उनकी पैतृक आदि संपत्तिया प्राप्त होती हैं, परन्तु मोरीशसमें ांसीसी कानूनके अनुसार संपत्तियों के उत्तराधिकारी निश्चित होते हैं । हिन्दू और मुसलमानोंके यहाँ जो सम्पत्तिके उत्तराधिकारी समझ जाते हैं, उन्हें फ्रांसीसी कानून अपनी प्राप्य सम्पत्तिसे वंचित कर देता है। इसका कुपरिणाम यह भी होता है कि भारतीय कृषकोंकी जायदाद कितने ही छोटे छोटे टुकड़ोंमें बँट जाती है । इससे कृषकगण बन्धनमें फँस जाते हैं। शिक्षाके विषयमें भी मोरीशस-प्रवासी भारतीयोंको बहुत कष्ट है । यद्यपि मोरीशसमें भारतवासी ७० प्रति शत हैं, तथापि उनकी सुविधाका कुछ भी खयाल नहीं किया जाता । मोरीशसमें ६ भाषाएँ प्रचलित हैं;तमिल, तेलगू , हिन्दी, अंगरेजी फ्रेंच और मोरीशियन । जो भारतीय लड़के स्कूलोंमें पढ़ते हैं, उन्हें अँगरेजी और फ्रेंच द्वारा शिक्षा दी जाती है। ऐसा करनेमें मोरीशस-सरकारका उद्देश यही है कि इन लोगोंमें देशी भाव और राष्ट्रीय विचार उत्पन्न न होने पावें । यदि कोई लड़का स्कूल में पढ़ता है तो वह साधारणतया ४ भाषाएँ सीखता है । घरमें तो वह अपने देशकी भाषा बोलता है और बाहर उसे मोरीशस की दोगली भाषा “क्रोल ” में बातचीत करनी पड़ती है तथा स्कूल में अँगरेजी और फ्रेंच सीखता है । लेकिन इन चारों भाषाओंमेंसे उसे यथार्थ योग्यता एक भी भाषामें प्राप्त For Private And Personal Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोरीशस टापू। नहीं होती । हिन्दुस्तानकी जो तीन भाषाएँ मोरीशसमें प्रचलित हैं उनमें हिन्दी प्रधान है। तेमिल और तैलगू बोलनेवाले भी हिन्दी समझ सकते हैं । अत एव मोरीशस-सरकारका कर्तव्य है कि वह हिन्दुस्तानी लड़कोंको हिन्दीमें शिक्षा दिलवानेका प्रयत्न करे। ___ मोरीशसमें रहनेवाले हिन्दुओंको एक भारी दुःख यह है कि वे शास्त्रानुकूल अपने यहैं। अन्त्येष्टि संस्कार नहीं कर सकते अर्थात् मुर्दे नहीं जलाने पाते । सुना है कि इन मुद्दों द्वारा भी वहाँवाले शक्कर बनाने योग्य मसाला प्राप्त करते हैं । वे मुर्देको किसी यंत्रमें डाल कर उसका सत्व निकाल लेते हैं जो शक्कर बनाने के काममें आता ह । हम नहीं कह सकते कि यह बात जनताको घृणा उत्पन करनेके लिये गढ़ी गई है या कि सत्य है, ईश्वर ही जाने ! एक बार एक धनी हिन्दूने वहा बहुतसा रुपया व्यय करके एक मुर्दा जलाया था, परन्तु अन्य हिन्दुओंको ऐसा करनेका अधिकार नहीं । जो मुर्दा जलाता है उसे कठिन दंड दिया जाता है। ___ सबसे बड़ा कष्ट भारतीयोंको यह है कि उनकी आर्थिक उन्नतिमें अनेक बाधाएँ डाली जाती हैं । मोरीशसमें कारखानोंके मालिकोंका एक विशेष दल है । इन्हीं लोगोंका मोरीशसमें प्रभुत्व है । ये लोग भारतवासियोंकी बढ़ती देख कर जलते हैं और उनकी दशा सुधारनेके लिये जो यत्न किये जाते हैं, उन्हें निष्फल करनेकी चेष्टामें रातदिन लगे रहते हैं । मोरोशसमें भारतीयोंके साथ न्याय-युक्त व्यवहार होनेका प्रश्न बहुत दिनोंसे चल रहा है । सन् १८७२ ई. से जब कि वहाँके प्रवासी भारतीयोंकी दशाकी जाँच करने के लिये पहला कमीशन बैठा था, तभीसे यह प्रश्न चल रहा है, किंतु अभी For Private And Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir wwwww १६४ भारतमै दुर्भिक्ष । तक इसका फैसला नहीं हो पाया । वहाँके रहनेवाले भारतीयोंके लिये सहयोग समितियों और बैंक चलाने की जो व्यवस्था की गई थी, उसके विरुद्ध मोरीशसके गोरोंका दल नियमित रूपसे आन्दोलन कर रहा है । सन् १९०९ ई० में जो कमीशन बैठा था उसने अपनी रिपोर्ट में लिखा है--" मोरीशसके छोटे छोटे हिन्दुस्तानी प्लाण्टरों पर ही मोरीशसका भविष्य विशेष रूपसे निर्भर है, इस लिये उनकी आर्थिक दशा सुधारने के लिये कोऑपरेटिव क्रेडिट बैंक खोले जाने चाहिए।" भारत-सरकारने कमीशनके इस प्रस्तावको मान कर जांच करने के लिये एक अँगरेज अफसरको मोरीशस भेजा था। उसने जाँच करने के बाद जो रिपोर्ट भेजी उसीके अनुसार सन् १९१३ ई० में इस द्वीपमें इन बैंकोंके स्थापित करनेका कार्य आरंभ किया गया । इस बात को देखते ही मोरीशसके धनाढ्य गोरे बहुत जलने लगे और उन्होंने एक दल बना कर अपने कारखानोंके पासके खेतोंमें उगनेवालो बेंतकी फसल पर अधिकार जमानेकी चेष्टा की । जुलाई सन् १९१४ ई० में इस द्वीपकी एक कोआपरेटिव क्रेडिट सोसायटी ( सहयोग-समिति ) ने इस दलसे अलग किसी दूसरे कारखानेसे बेंतकी फसलका ठेका कर लिया, जिससे इस दलवालोंके उद्देशकी सिद्धि न हो सकी। ऐसा होते ही सभी कारखानोंके गोरे मोरीससके सहयोग समिति-सम्बन्धी प्रस्तावोंके और उसकी प्रतिष्ठाके विरुद्ध प्रयत्न करने लगे। इसका परिणाम यह दुआ कि सहयोग-समितिके मेम्बरोंको अत्यंत हानि उठानी पड़ी। __ यद्यपि मोरीशसकी उन्नति वहाके भारतवासियों पर निर्भर है, तथापि मोरीशसके राजकार्य में उन्हें कुछ भी अधिकार नहीं दिया For Private And Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोरीशस टापू । १६५ जाता | अब तक मोरीशस - प्रवासी भारतवासी शान्तिके साथ इस स्थिति में रहे हैं, लेकिन भविष्य में यह स्थिति कायम नहीं रह सकती । और तो और सर फ्रान्क स्वीटनहम जैसे बोर एंग्लो-इंडियनने जो पिछले रायल कमीशनमें नियुक्त हुए थे, लिखा था: For the last three quarters of a century it had been found possible for the colonial Government to regard the Indian as a stranger among a people of European civilization-a stranger who must indeed be protected from imposition and ill-treatment and secured in the exercise of his legal rights, but who has no real claim to a voice in the ordering of the affairs of the colony. From. what we have learnt during our inquiry we very much doubt whether it will be possible to continue this attitude. The Indian population in the colony has no natural inclination to assert itself in political matters, so long as reasonable regard is paid to its desires on a few questions to which it, not unreasonably, attaches importance." अर्थात् - पिछले ७५ वर्ष से मोरीशस सरकार यह समझती रही है कि मोरीशस प्रवासी हिन्दुस्तानी इस उपनिवेशमें यूरोपियनोंके बीच में विदेशी हैं, जिनका बचाव छल, कपट और बुरे बर्ताव से तो जरूर करना चाहिए ताकि वह अपने न्याय पूर्ण अधिकारोंका प्रयोग कर सके, लेकिन इस उपनिवेशके मामलों को तय करनेका For Private And Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष । उनको कोई अधिकार नहीं है । हमें अपनी जाँचसे जो कुछ बातें ज्ञात हुई उनसे हम कह सकते हैं कि भविष्यमें मोरीशस-सरकार इस नीतिका अनुसरण कर सकेगो, इस बातमें हमें बहुत ज्यादह सन्देह है । मोरीशसके भारतवासियोंके हृदयमें वहाँके राजनैतिक मामलोंमें दखल देनेकी कोई स्वाभाविक इच्छा तब तक नहीं होगी जब तक कि कुछ प्रश्नोंके विषयमें उनकी जो इच्छाएँ हैं, उन पर उचित ध्यान न दिया जाय । क्योंकि इन प्रश्नोंको वे बहुत उपयोगी समझते हैं । और उनका ऐसा समझना अनुचित भी नहीं है। वास्तवमें मोरीशस सरकारकी धींगाधींगी अब तक चल रही है, और उसने मोरीशस प्रवासी भारतीयोंको कोई राजनैतिक अधिकार नहीं दिया। लेकिन अब आगे यह अन्याय-पूर्ण नीति कायम नहीं रह सकती। जबसे दक्षिण अफ्रिकाके प्रवासी भाइयोंने 'सत्याग्रह' के संग्राममें विजय प्राप्त करके संसारको यह दिखला दिया है कि दुनियामें भारतवर्ष भी एक देश है और वहाँके निवासी आत्मिक बल द्वारा बड़े बड़े अत्याचारोंको दूर करा सकते हैं, तभीसे मोरीशसवालोंके हृदयमें भी कुछ जागृति उत्पन्न हो गई है। यह जागृति ही हमें इस बातका विश्वास दिलाती है कि मोरीशस-सरकारकी यह लबड़धोंधो शीघ्र ही नष्ट होगी। मोरीशसमें जो हिन्दू या मुसलमान अपने धर्मके अनुसार विवाह करते हैं और उनकी सरकारसे रजिस्ट्री नहीं कराते वे कानूनकी दृष्टिसे unmarried का अविवाहित समझे जाते हैं और उनकी स्त्रियाँ धरेलू या रखनी समझी जाती है ! इस द्वीपकी पिछली मर्दुमशुमारीकी रिपोर्ट में लिखा हुआ है किः-- For Private And Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोरीशस टापू। १६७ "The large number of unmarried persons (58-8 per cent) is a cnsequence of the practice among the lower classes, both of the Indian and general population, of contracting religious marriages; that is to say, they do not appear before the civil status of officers and hence, under the civil Statws Laws of Mauritius are not legally married.” अर्थात्-" मोरीशसमें जो बहु संख्यक मनुष्य यानी ८५.८ की सदी बिन ब्याहे हैं, इसका कारण यह है कि भारतवासियोंमें और जन-साधारणमें नीच जातिके मनुष्योंमें यह रिवाज है कि वे अपने धर्मानुसार विवाह करते हैं अर्थात् वे सिविल स्टेट्स आफीसरके सामने आकर रजिस्ट्री नहीं कराते, इसी कारण मोरीशसके कानूनके अनुसार इन लोगोंकी शादी न्याय्य नहीं समझी जाती।" इस दुर्दशा-पूर्ण स्थितिको शीघ्र ही दूर करनेकी आवश्यकता है। भारतवासियोंको मोरीशसमें जो जो कष्ट सहने पड़े उनका वर्णन करनेसे एक अलग ही बड़ी पुस्तक बन सकती है । वहैं। एक निर्भीक हृदय अँगरेज मजिस्ट्रेटने, जिनका नाम मि० बेटसन था, लार्ड सेण्डरसनके कमीशनके सामने जो कुछ कहा था, उससे अच्छी तरह प्रकट होता है कि किन किन कष्टोंमें भारतीय मजदूरोंको मोरीशसमें काम करना पड़ा | मि० बेटसनने कहा था:___“ The system resolved itself into this-that I was merely a machine for sending people to prison......There is absolutely no chance of the For Private And Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६८ भारत में दुर्भिक्ष | coolie being able to produce any evidence in his own favour; the other coolies are afraid to give evidence; they have to work under the very employed against whom they may be called upon to give evidence. Even if a coolie came before me with marks of physical violence on his body, it was practically impossible to coviet the person charged with assault for want of corroborative evidence. It was most painful sight to see people hand-cuffed and marched to prison in batches for the most trivial fault." अर्थात् - इस प्रथाका निश्चय करके यही परिणाम होता था कि मैं आदमियोंको जेलखाने भेजने के लिये कोरमकीर मशीन बना दिया गया था । कुलीके लिये इस बातकी संभावना नहीं है कि वह अपने पक्षके समर्थनमें कुछ भी साक्षी उपस्थित कर सके । दूसरे कुली लोग गवाही देनेसे डरते हैं, क्योंकि उन्हें उसी मालिके विरुद्ध गवाही देने को बुलाया जाता है, जिसके कि यहाँ उन्हें भी काम करना पड़ता है । यहाँ तक कि जब कोई ऐसा कुली, I जिसके शरीर पर चोट के निशान हों, किसी मालिक पर अभियोग चलाने आता था तो भी उसके पक्षको समर्थन करनेवाला कोई साक्षी न हो नेके कारण अभियुक्तको दोषी करना वस्तुतः असंभव हो जाता था । अत्यन्त ही छोटे छोटे अपराधोंके लिये झुंडक झुंड आदमियोंको हथकड़ी डाले हुए जेलखाने को जाते देख कर मुझे बहुत ज्यादह खेद होता था । " For Private And Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोरीशस टापू । १६९ मि० बेटसनने जो दीन-दुखी भारतीय मजदूरोंका पक्ष लिया, इसका परिणाम यह हुआ कि मोरीशसकी व्यवस्थापक सभा के गोरे प्रतिनिधियोंने उनकी नियुक्ति के विरुद्ध आन्दोलन करना शुरू किया । वहाँ के स्वार्थी समाचार-पत्रोंने भी इन्हीं लोगों की हाँ में हाँ मिलाई । केवल यही नहीं बल्कि ये लोग ऐसी ऐसी चालाकियोंसे काम लेने लगे कि अन्त में विरक्त होकर इस न्यायवान्, सरल अँगरेज मजिस्ट्र ेटको इस उपनिवेश से विदा होना पड़ा । मोरीशस सरकार के अत्याचार ज्योंके त्यों जारी हैं । अभी बहुत दिन नहीं हुए तब उन्होंने पं० जयशंकर पाठक तथा मुसलमान भाइयोंको बिना कुसूर देशसे निकाल दिया था। हमारी समझमें यह प्रत्येक मनुष्यका अधिकार है कि दण्ड पानेके पहले वह दोषी सिद्ध किया जाय, पर मोरीशसके नादिरशाही राजकर्मचारियोंको इस बातकी क्या परवा है ! क्या भारत में रहनेवालोंका यही कर्तव्य है कि अपने देश बन्धुओंके साथ इस भाँति अन्याय, अत्याचार और जुल्म देखते रहें और हम वहाँको बनी शक्कर जो उनके रक्तके समान है, बिना कुछ सोचे समझे खाते चले जायँ ? जहाँ अपने भाइयोंको नरकके समान यातना दी जाती हो, वहाँ की वस्तु ग्रहण करना तो क्या छूना भी घोर पाप है । वहाँ की बनी वस्तुओंका घोर बायकाट करना मानों अपने दुखी भाइयों की तकलीफों को दूर करना है, मानों अपने देशको धनवान्, सुखी और दुर्भिक्ष रहित करना है । 1 कई लोग यह कह देते हैं कि "आज तक तो विदेशी शकर खाते रहे, नस नस में वह घुस गई, अब परहेज करनेसे कुछ लाभ नहीं ।" For Private And Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष । mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm ऐसा कहना भारी भूल है। मैंने आज तक ऐसा मनुष्य कोई नहीं देखा जो एक बार काँटोंमें गिर कर बिद्ध हो गया हो और फिर न उठा हो, उसने काटे न निकाले हों, या काँटोंमें गिर कर यह कहा हो कि अब तो काँटोंमें गिर गये, सारे बदन में काँटे छिद गये, अब काँटोंसे नहीं निकलेंगे और सुख-पूर्वक यहीं पड़े रहेंगे। हमारे शरीरसे मरते समय तक भी देशका भला हो सके तो करते रहना चाहिये " जो पराये काम आता धन्य है जगमें वहो । द्रव्यहीको जोड़ कर कोई सुयश पाता नहीं । आमरण नर देहका बस एक पर-उपकार है। हारको भूषण कहे, उस बुद्धिको धिक्कार है। लाभ अपने देशका, जिससे नहीं कुछ भी हुआ। जन्म उसका व्यर्थ है जलके बिना जैसे कुआ । पेट भरनेके लिये तो, उद्यमी है स्वान भी। क्या अभी तक है मिला उसको कहीं सम्मान भी ?" ॥ For Private And Personal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भिक्षुक । २७ भिक्षुक । “He who truly lives, Whose charity is free, But he who never gives, Is dead as dead can be.” भारतवर्ष में दान धर्मसे सम्बन्ध रखता है। तभी तो हमार शास्त्रोंमें--- " श्रवणसुखसीमा हरिकथा, सकलगुणसीमा वितरणम् । -" __ कहा है। धर्मकी दस उत्तम विधियोंमें दान भी एक है। निस्स्वार्थ और निष्काम हो कर, सच्चे और शुद्ध हृदयसे, दूसरोंको जो वस्तुतः सहाय्यापेक्षी अवस्थामें है, यथार्थतः सुखी तथा सन्तुष्ट बनानेकी प्रबल इच्छा और दया तथा उदारताकी तीव्र प्रेरणासे किसी उपयोगी वस्तुको श्रद्धा-पूर्वक देनेहीका नाम दान है। . निस्पृह हो कर और दान-पात्रके निकट स्वयं जाकर सद्भाव पूर्वक दान देना ही उत्तम दान है । यश, सुख और स्वर्गकी कामनासे, प्रत्युपकारकी आशा रखते हुए, दान-भाजनको अपने पास बुला कर, जो दान दिया जाता है वह दान मध्यम है। माँगने पर तिरस्कार-पूर्वक अनिच्छा प्रकट करते हुए दान देना अधम दान है। श्रीमद्भागवद्गीतामें भी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने उसे ही सात्विक दानका रूप दिया है जो देश, काल तथा सुपात्रका विचार करके दिया जाता है। For Private And Personal Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष । __ सात्विक दानसे श्री-वृद्धि,कीर्ति-वृद्धि, धर्म-वृद्धि और स्वर्गकी प्राप्ति तक होना हमारे महर्षियोंने लिखा है । भारतवर्ष में केवल दान ही एक अनुपम वस्तु है, जिससे बिना प्रयास ही स्वर्ग, अर्थ, काम और मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है। हमारे शास्त्रों में बिना उत्तम दानके सम्पत्तिकी सारी शोभाको तुच्छ बताया है, यहाँ तक कि हाथोंका कर्तव्य-कर्म भी एक मात्र दान कहा है । मनुजी कहते हैं " यत्पुण्यफलमाप्नोति गां दत्त्वा विधिवद्गुरोः । तत्पुण्यफलमाप्नोति भिक्षां दत्वा द्विजो गृही।" अर्थात्-विधि-पूर्वक गुरुको गो दान करने पर जो फल प्राप्त होता है वही पुण्य-फल गृहस्थीको भिक्षा देनेसे होता है। हमारे यहाँ अन्नदानका कितना महत्त्व लिखा है " तुरगशतसहस्त्रं गोगजानां च लक्षं, कनकरजतपात्रं मेदिनीं सागरान्ताम् । - विमलकुलवधूनां कोटि कन्याश्च दद्यात्, नहि नहि सममेतैरन्नदानं प्रधानम् ।" अर्थात्-एक लाख गाय, घोड़, हाथी तथा सुवर्ण और चाँदीके पात्र, ससागरा वसुन्धरा और योग्य करोड़ कन्याओंका दान करने पर भी वह फल नहीं मिलता जो अन्नदान करनेवालेको मिलता है। किंतु बाबा तुलसीदासजीने लिखा है-- " जिनके लहहिं न मंगन नाही ते नरवर थोरे जग माहीं।" धर्मके शुभ लक्षणोंमें, दसमें से एक दान भी है।पर आजकल दानका रूप बेढब बिगड़ गया है। दानकी काया कलषित होनेसे ही सामा For Private And Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भिक्षुक । १७३ जिक शरीर बहु व्याधि-ग्रस्त और देश दारिद्रय दलित एवं दुर्भिक्षग्रस्त दिखाई देता है। इस कंगाल भारतमें यदि दानका ऐसा ही सर्व. स्वान्तक रूप कुछ दिनों तक बना रहा तो इस देशका भविष्य नन्द, यशोदाके भविष्यसे भी कहीं अधिक भयंकर हो उठेगा। हाय, क्या इसी स्वर्णभूमि भारत पर शिवि, दधीचि, हरिश्चन्द्र, रघु, गय, बलि, कर्ण, विक्रम आर श्रीहर्ष आदि प्रातःस्मरणीय वदान्य राजा राज्य कर चुके हैं ? हा न वे राम रहे न वह अयोध्या ही रही, न वह चमन ही रहा, न वे बुलबुलें ही रहीं ! ____“दानी बहुत थे किन्तु याचक अल्प थे उस कालमें । ऐसा नहीं जैसी कि अब प्रतिकूलता है हालमें । " भारतमें दान-प्रथाका रूप परिवर्तन हो गया । इस प्रथाने इतना जोर पकड़ा कि भारत में एक दम आलसी मनुष्योंने भिक्षा माँगना अपना एक रोजगार ही मान लिया। उसीसे वे अपने उदर-पोषणके अतिरिक्त अन्यान्य गृहकार्य चलाने लगे। इतना ही नहीं, कई भिक्षुक लखपति भी हैं । किन्तु-- " वन्दिनो दानमिच्छन्ति भिक्षामिच्छन्ति पङ्गवः । इह सत्पुरुषाः सिंहा अर्जयन्ति स्वपौरुषात् ।” अर्थात्-भिक्षाकी इच्छा करना लूले-लँगड़ोंका काम है, परन्तु भारतके लोग हट्टे कट्टे बलवान होते हुए भी भीख माँग कर उदरपोषण करते हैं । इत्यादि अनेक ग्रंथोंमें हमारे शास्त्रकारोंने भिक्षावृत्तिको अत्यन्त ही निंद्य कार्य कहा है। __ भारतवर्ष में लगभग साठ लाख मनुष्य भिक्षावृत्ति द्वारा अपना उदर भरते हैं। इनमें वे साधु भी हैं जो दल बाँध कर हाथी, घोड़े, ऊँट, For Private And Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७४ भारतमें दुर्भिक्ष । गाड़ी आदि अपन साथ साथ लिये फिरा करते हैं । वे ब्राह्मण भी हैं जो मंदिर-सेवा द्वारा अपना काम चलाते हैं। वे फकीर भी हैं जो घर घर स्वाग धर कर माँगते रहते हैं। सारांश यह कि भिक्षावृत्ति करनेबालोंकी संख्या साठ लाख है, वे कोई भी हों। हमारा, साधु-समाज भारतवर्षके लिये बकरीके गलेके थनोंकी भाँति व्यर्थ ही है। पूर्वकालमें प्रायः अस्सी हजार साधु भारतवर्ष में थे । वे सब तपस्वी, धर्मनिष्ठ, वेद-वेदांगपारग और वनवासी थे। उनकी सारी आयु देशके कल्याण-चिंतनमें ही बीतती थी। जनताका उपकार उनके जीवनका एक मात्र लक्ष्य था । व्यास, बशिष्ठ, गौतम, कणाद, पतंजलि, पाणिनी आदि महर्षि उन्हीं अस्सी हजारमेंसे थे, जिन्होंने अपने तपोबलसे भारतका कल्याण किया है, जिनका वृहत् ऋण हमारे सिर है । कुपथगामी भूपालगणोंको सदुपदेश द्वारा अन्याय-पथसे हटा कर प्रजाका कल्याण करना एवं देशकी दशाका समय समय पर बोध कराते रहना उनका ही काम था। भारतवासियोंको सब प्रकारकी शिक्षा देना उन्हींका काम था। क्षत्रियादि अन्य वोंको उनके उनके धर्मामुसार चलाना उन्हींका काम था। भारतको दुर्भिक्षसे बचानेके निमित्त बड़े बड़े यज्ञ अहर्निशि करते रहना उन्हीं परोपकारी महात्माओंका काम था । क्योंकि वे विज्ञानवेत्ता थे--उन्हें श्रीकृष्ण भगवान्के गीतामें कहे वाश्य पर दृढ़ निश्चय था कि " अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभवःयज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ।" For Private And Personal Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भिक्षुक। १७५ __ अर्थात्--अन्नसे प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है और मेघसे अन उत्पन्न होता है, यज्ञसे मेघ उत्पन्न होता है और कर्मसे यज्ञ उत्पन्न होता है ।" वे अपने यज्ञकर्म द्वारा भारतको रोग, शोक, चिंता, दुर्भिक्ष आदि भयंकर उत्पातोंसे बचाते रहते थे। यही नहीं समय समय पर अस्त्र ग्रहण कर वे राजाओंको सहायता देते थे। उसी मण्डलीमें द्रोणाचार्य और कृपाचार्य थे, जिन्होंने महाभारतमें अपूर्व संग्राम कर बड़े बड़ शस्त्रधारियोंको चकित कर दिया था । जिनका कहना था कि-- " अग्रतश्चतुरोवेदाः पृष्ठतः सशरं धनुः । ____द्वाभ्यामपि समर्थोस्मि शास्त्रादपि शरादपि ।" अर्थात्--" चारों वेद मेरे आगे हैं-हृदयस्थ हैं और धनुष-बाण पीठ पर हैं । शास्त्र और शस्त्र दोनोंमें मैं समर्थ हूँ।" तत्कालीन साधुओंके गुणोंकी प्रशंसा करना मानों सूर्यको दीपक दिखलाना है। उस समय विश्वामित्र जैसे ब्रह्मर्षि द्वितीय सृष्टि उत्पन्न करनेमें समर्थ महात्मा मौजूद थे । भृगु जैसे उग्र तेजधारी महात्मा विद्यामान थे। परशुराम जैसे वीर महात्मा मौजूद थे। ऐसा कौन राज्य था, जिसके परामर्श-दाता मंत्रियों के समूहमें एक भी ऋषि न रहता हो । दधीचिके समान परोपकारी महर्षि, जिन्होंने अपनी जांघकी हड्डी वृत्तासुरके मारने को देवताओं को दे दी थी, विद्यमान थे। __ आजकलके साधु-समाज पर जरा दृष्टि डालिए-तपके नामसे तो वे आग जलाके तपने का अर्थ निकालते हैं। धर्मनिष्ठा केवल नहा कर राख मठ लेजा और ति उक-छापे करके गले में माला डालने में समा रही है। वेदवेदांग-पारग होना तो उनके लिये बड़ी For Private And Personal Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir wwwwwwwwwwww भारतमें दुर्भिक्ष। कठिन बात है, बल्कि उन्हें रामायणकी चौपई पढ़ना भी भली भाँति नहीं आती । वनवास तो उन्हें नरक तुल्य लगता है, सदा गाँवके बाहर ठहर कर अपनेको वे बनवासी कहते हैं। देशके कल्याणका इन्हें जरा भी ध्यान नहीं । इन्हें यह भी पता नहीं कि भारतवर्षकी इस समय क्या दुर्गति है और हमारा इस समय क्या कर्तव्य है। बल्कि उसे मिट्टीमें मिलानेके कार्य ये सदैव करते रहते हैं। तीन पाव या सेरभर अन्नका दिनभरमें नाश करते हैं और गाँजा, भाँग, चरस, चंडू, अफीम आदि मादक पदार्थोंका सेवन कर अपनी बुद्धि भ्रष्ट करते रहते हैं । कुपथगामी भूपालोंको ये बेचारे क्या हटा सकेंगे जब कि वे खुद ही कुपथमें जा रहे हैं । भारतवासियोंको ये निरक्षर भट्टाचार्य गँवार लोग कुछ शिक्षा भी नहीं दे सकते । वाँको धर्माचरण करनेका सदुपदेश ये दें कहासे, इन्हें यही पता नहीं कि वर्ण कितने होते हैं ! इन्हें हवनादि द्वारा देशका कल्याण करना ही नहीं आता, हैं। यदि उदर-रूपी हवन कुंड में पड़नेसे घृतादि पौष्टिक पदार्थ बचें तो यज्ञ सूझे । रात-दिन तमाखूका हवन तो ये बिला नागा करते रहते हैं । शस्त्र ग्रहण में भी ये कायर हैं। हैं। पटेबाजी करके थोड़ा उछल कूद जरूर कर लेते हैं, परन्तु यदि गवर्नमेट उनसे कहती कि युद्धमें सहायता करो, तो शायद ही कोई आगे आता । क्योंकि मुफ्तखोरोंसे काम होना जरा कठिन ही है । आजकलके साधू खानेको माल और ओढ़नेको दुशाले प्रयोगमें लाते हैं। हाथी पर सवारी और साधु नामकी ख्वारी करते हैं । उक्त लेखसे मेरा प्रयोजन सच्चे साधु महात्माओंसे नहीं हैं। .. हमारा ब्राह्मण समाज तो भिक्षक समाज बना बनाया है ही। For Private And Personal Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भिक्षुक। १७७ ब्राह्मण जातिने अपने हाथों अपनी मिट्टी पलाद कर रखी है, इसमें कोई सन्देह नहीं। आजकल ब्राह्मण नामका अर्थ ही भिक्षुक सा हो रहा है । लोग इस सर्व पूज्य, सर्वोच्च जातिका हेय दृष्टिसे देखने लगे हैं। इसमें दोष लोगोंका नहीं है, जैसा जो करता है वैसा ही वह नाम धराता है । ये भी साधु लोगोंसे कम नहीं, बल्कि इनका पारा एक-दो डिग्री अधिक ही है; क्योंकि ये लोगोंसे भीख मांग कर विवाह शादी आदि कामोंमें सहस्रों रुपया व्यय करते हैं । पढे लिखे हों तो भीख ही क्यों माँगे । क्याकिः---- "प्रतिग्रहसमर्थोपि प्रसंगं तत्र वर्जयेत् । प्रतिग्रहेण ह्यस्याशु ब्राझं तेजो प्रशाम्यति ॥" मनुमहाराज कहते हैं कि दान लेनेसे ब्रह्मतेज नष्ट होता है। " तृणादपि लघुस्तूलस्तूलादपि हि याचकः।" अर्थात्-" तृणसे हलका रुईका फाया और उससे भी हलका भिक्षुक होता है । " यही कारण है कि आज अग्रजन्मा जाति नीच गिनी जा रही है । यह दुर्भिक्षके कारण हैं अथवा दुर्भिक्ष इनका कारण है ? मेरे विचारसे दुर्भिक्ष इनकी बेपरवाहीके ही कारण है। सच है या झूठ इसका अनुमान विज्ञ पाठक स्वयं कर लें। ___ यद्यपि ब्राह्मणोंमें तीर्थोके पण्डे समझे जा सकते हैं तथापि इनके विषयमें भी हम विशेष रूपसे कुछ लिखेंगे, क्योंकि दान लेनेवालों में और भिक्षुकोंमें ये भी अग्रगण्य हैं । देखिए मथुराके पंडे चौबोंके विषयमें मथुराके पुराने कलेक्टर मि० ग्राउस सा० मथुरा मेमोरियटमें लिखते हैं। “The Chanbes of Muttra, however, numbering in all some 6,000 persons, are a peculiar १२ For Private And Personal Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष । race and must not be passed over so summarily. They are still very celebrated as wrestlers and in Mathura Mahatmya, their learning and other virtues also are extolled in the most extravagant terms, but either the writer was prejudiced or time has had a sadly deleriorating effect. They are now ordinarily described by their own countrymen as a low and ignorant horde of rapacious mendicants, like the Pragwalas at Allahabad they are recognized local cicerones ; and they may always be seen with their portly forms lolling about near the most popular Ghats and Temples ready to bear down upon the first pilgrim that approaches." अर्थात्-मथुरा में लगभग छः हजार चौबे रहते हैं। उनकी चालढाल, बोलचाल, रहन-सहन, उठना बैठना एक अनोखे ढङ्गका है। उनकी पहलवानीकी बड़ी तारीफ है । उनकी विद्या और योग्यताकी मथुरा महात्म्यमें बड़ी तारीफ की है। परन्तु उनके वर्तमान कृत्योंसे जान पड़ता है कि या तो लिखनेवाले हीने इक-तरफ़ी बातें लिखी हैं या समयके प्रभावसे वे सब बातें नष्ट हो गई हैं। आज-कल उनके ही देशवासी उन्हें अति नीच, अपढ़ और लुटेरे कहते हैं। वे लोग बहुधा यात्रियोंको शहरकी इमारतें दिखाते हैं, बहुधा घाटों और मन्दिरों में घूमते फिरते हैं और ज्यों ही कोई यात्री आता हुआ दिखाई पड़ता है कि उस पर एकदमसे टूट पड़ते हैं।" For Private And Personal Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भिक्षुक | १७९ "Bereft of those precious unities they have now degenerated into a community of beggers, whose highest ideal on this side of every Eternity is to glut themselves with sweet-meats, shorn of decent dress, with eyes outstretched and reddened by Bhang, with ashes adorning their foreheads, pluming themselves on the idea of an indulgence in humorous but obscene talk, these pot bellied heroes are to be witnessed, wondering about in groups like so many beasts in heards, in all the leading cities of India at all times in the year, in the rainy season in particular, our description of the degradation of the present Chanbes of Muttra is, by no means over-drawn.” अर्थात् - एक समय वह था जब कि वे लोग भारतवर्षकी बहुतसी जातियोंके पुरोहित और धर्मकमा में सम्मति देनेवाले अर्थात् उपदेशक थे । उन जातियों के आदमी उनकी अनुमतिके अनुसार सब काम करते थे । उनका कहना कभी नहीं टालते थे और उनका बहुत आदर-सत्कार करते थे । इन उक्त बातोंके वे उस समय सर्वथा योग्य थे। किंतु आजकल उनका उद्योग सिर्फ इस बातका है कि किसी प्रकार उनको अच्छेसे अच्छा भोजन मिल जाया करे, बस केवल यही उनका धर्म-कर्म है । वे लोग अपनी उदर-दरी भरनेके लिये मसखरेपनकी अश्लील बातें बकते हुए, पशुओंकी तरह भारतके प्रधान प्रधान नगरों में सदैव घूमते दिखाई देते हैं । For Private And Personal Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८० भारतमें दुर्भिक्ष । उनके नेत्र भंगसे लाल लाल रहते हैं । माथा राखसे चुपड़ा होता है। और फटे हुए वस्त्र पहिने उत्तम भोजन मिलनेकी आशामें वे फूले नहीं समाते । इसी भाति प्रत्येक तीर्थके पंडे कसाईकी भाँति यात्रियों की खाल तक निकालने में कसर नहीं रखते । ये लोग बेचारे यात्रियोंका धन लूट-खसोट कर अपना घर बनाते हैं । भूखों मरते भारतवासी अपने पेट पर पट्टी बाँध कर उन्हें धन देते हैं। इस देश की क्या ही विचित्र दशा है कि दाता तो भूखों मरें और दान लेनेवाले लखपती करोड़पति बनें, ऐशो आराममें उम्र बिताया करें। ___ एक दल भिक्षुकोंका और भी है, वह फकीर कहाता है-ये मुसलमान साधु होते हैं । ये लोग तो प्रत्यक्षमें ठग होते हैं । माँग खाना इनका धन्धा है, बाकी फकीरीका लक्षण इनमें एक भी नहीं है। प्रायः इनका भार भी हिन्दुओंके माथे ही हैं । इनको माँगने के अच्छे अच्छे ढंग और हथकण्डे आते हैं । धूर्तता इनका मुख्य उद्देश और विलासिता इनकी सहचरी है। भारतवासियोंका-अहिंसा धर्मके अनुयायी हिन्दुओंका-पैसा ये लोग मांस-भोजन तथा व्यभि. चारमें व्यय करते रहते हैं । इनके अतिरिक्त और भी कई लोग भिक्षुक हैं जो अपना उदर-पोषण केवल भीख माँग कर ही करते हैं। ___ हमार यहाँकी दान-प्रथा बिलकुल बिगड़ गई । दाता पात्र-कुपात्रको देख कर दान नहीं देता तो याचक दान कुदानको नहीं देखता। जैसे राखमें डाला हवन नहीं कहाता, उसी प्रकार मूखों और कुपात्रोंको दिया हुआ भी दान नहीं कहाता । व्यासजी कहते हैं For Private And Personal Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir AAAAAAAAAAAAM भिक्षुक। " वेदपूर्णमुखं विप्रं सुभुक्तमपि भोजयेत् । न च मूर्खनिराहारं षड्ात्रिमुपवासिनम् ।" अर्थात्---विद्वान यदि अक्षुधित हो तो भी उसे भोजन कराना अच्छा, किंतु मूर्ख छः दिनका भूखा हो तो भी उसे भोजन न दे। देखिए कैसी अच्छी बात कही है। विद्वानों तथा मूोका कैसा भेद दिखाया है। किंतु हम तो शास्त्र-वाक्य भी नहीं मानते। यह दोष भी हमारे ही सिर है कि हमने कुपात्रोंको दान दे-दे कर भारतको भिखारी बना दिया । देशको आलसियों, मुफ्तखोरों और मूसे भर दिया। दिन प्रति दिन भिक्षुकोंकी संख्या रक्तबीजकी तरह बढ़ रही है, क्योंकि भिक्षुकोंकी संतान भीख माँगनेवाली ही बनेंगी। और देखने में आया है कि उनके सन्तान बहुतायतसे पैदा होती है । इस भाँति यदि इनकी बढ़ती होती रही और देश इसी प्रकार दरिद्र और दुर्भिक्षसे घिरा रहा तो आश्चर्य नहीं कि कुछ वर्षोंमें ही सारे भारतके निवासी भिक्षुक ही भिक्षुक होंगे । गोसाई तुलसीदासजीने कहा है " नार मुई घर संपति नासी मूंड मुंडाय भये सन्यासी। अर्थात्---स्त्रीक मरते ही और धनहीन होते ही साधु बन कर भीख मागनेकी सूझती है । किंतु मेरे विचारसे धनहीन होते ही आलसी पुरुष भीख मांगने लगते हैं । आजकल तो स्त्रीकी कोई कैद नहीं, क्योंकि सैकड़ों साधु कहानेवाले धूर्त स्त्रियों और बाल-बच्चों सहित भीख माँग कर पेट भरते हैं। For Private And Personal Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८२ भारतमें दुर्भिक्ष । भिक्षुकोंकी वृद्धि रोकनेका कोई उपाय अभी तक नहीं सोचा गया! न जान भारतवासी क्यों इस ओरसे बेफिक्र हो रहे हैं । इस भौति भिक्षुकोंको बढ़ने देना भारी भूल है । जिस देशमें भिक्षुक अधिक हों क्या वह देश कभी उन्नत हो सकता है ? नहीं, कदापि नहीं। देशकी उन्नतिमें यह भिक्षुक दल अत्यंत बाधक है । हम यह नहीं चाहते कि हमारे पूर्वजोंकी आज्ञा उल्लंघन कर दान देना, लेना तथा आयुके चौथे भाग अर्थात् वृद्धावस्थामें हरिभजन या देशकल्याणके निमित्त गृहत्याग करना बुरा है । नहीं वह उत्तम है, किंतु शास्त्र-मर्यादानुकूल होना चाहिए-वर्तमान भिक्षुक समाज इसके नितान्त अयोग्य है । ऐसे मुफ्तखोरोंको देशमें रखनेसे एक दिन वह आजायेगा जब कि सभी भिक्षुक ही भिक्षुक दृष्टि आवेंगे। भारतमें दानका धर्मसे सम्बन्ध होने के कारण कोई कानून भी गवर्नमेंट नहीं बना सकती । और बना भी सकती है तो गवर्नमेंटको इससे लाभ ही क्या ? यदि गवर्नमेंट भिक्षुकोंके लिये कानून बना दे. कि-" अमुक आयुसे नीचेवाला व्यक्ति भिक्षुक नहीं हो सकता.. अथवा स्वस्थ और हट्टा-कट्टा बलवान, एवं स्त्री-पुत्रवाला मनुष्य भीख नहीं मांग सकता; अन्धे, लँगड़े, लूले, कोढी, बूढ़े, अपाहिज, अथवा जो काम करने के लिये अयोग्य हों वे ही भिक्षावृत्ति द्वारा उदरपोषण कर सकते हैं," तो कोई बुरी बात नहीं होगी और न भारत वर्षके धर्मको किसी भँतिका धक्का ही लगेगा। हमारे नेताओंका ध्यान इस ओर शीघ्र जाना चाहिए । गवर्नमेंट ऐसे ऐसे कानून ता पास करनेको उतारू रहती है जिससे भारतवासियोंके हृदयको वज्रके समान चोट लगे, किंतु भारतक सुधारकी दृष्टिसे बहुत ही कम For Private And Personal Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भिक्षुक। १८३ कानून बनाये गये हैं । सुना गया है कि अभी हाल में बंगालसरकारका ध्यान इस ओर गया है और वह इस सम्बन्धमें एक कानून बनाना चाहती है। अमेरिका जैसे उन्नत देशोंमें भीख मांगना बड़ा भारी अपराध है। वहाँ जहाजसे उतरनेके पूर्व ३००) रु० नकदी दिखानेवाला व्यक्ति ही देशमें प्रवेश कर सकता है, अन्यथा वह वापिस लौटा दिया जाता है; क्योंकि उनका देश भीख माँग कर पेट भरनेका स्थान नहीं है, वहाँ उद्यमी और पुरुषार्थी मनुष्य ही रह सकते हैं। भला, जिस देशके निवासी उद्यमी और परिश्रमी हों वहा क्या कभी दुर्भिक्ष, प्लेग, दरिद्रता आदि फटक सकते हैं ? कदापि नहीं। तभी तो अमेरिका समस्त संसारमें उन्नतिशील देश कहा जाता है; क्योंकि वहाँ एक भी भिक्षक नहीं । अमेरिकामें ही क्या जापान आदि अन्य देशोंमें भी भिक्षा बिलकुल नियम-विरुद्ध और निंद्य कार्य माना जाता है। हालैण्डमें ऐसे मुफ्तखोरोंके लिये जो कि काम करने के लायक होते हुए भी कामसे जी चुराते हैं, यह उपाय निकाला गया है कि यदि कोई मनुष्य भीख मांगते हुए पकड़ा जाय और कारागार में रहनेसे इन्कार करे तो उसको एक हौजमें डाल देते हैं । इस हौजमें एक पम्प लगा रहता है, यदि वह उस हौजका पानी न निकालता जाय तो थोड़ी देर में पानी सिरके ऊपर आ जाय। अत एव उसे हाथ पैर हिलान ही पड़ते हैं, इस प्रकार उसे काम करनेकी आदत पड़ जाती है और आलस्य दूर हो जाता है। हम भी यही चाहते हैं कि भारतवर्षके भिखमंगोंके लिये भी हमारी गवर्नमेंट कोई ऐसा ही कानून बनावे । नहीं तो ये भिखमंगे जों For Private And Personal Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमै दुर्भिक्ष । कोंकी तरह भारतका खून चूसते रहेंगे। इस दरिद्रताका भी कोई ठिकाना है ? कारलाइल साहब ऐसे भिक्षुकोंके विषयमें बहुत कुछ लिख कर अन्तमें लिखते हैं--" ऐसे भिक्षुकों का प्रति रविवारको जब छुट्टी रहती है, शिकार खेलना चाहिए । " इसका मतलब यह नहीं कि उक्त साहब उनको सचमुच जानसे मार डालना बतलाते हैं-नहीं ऐसा लिख कर उन्होंने भिक्षुकों के प्रति अपनी अत्यंत घृणा प्रकट की है। __ हिन्दीक धुरन्धर लेखक मिश्रबन्धुओंमें से पं० शुकदेवबिहारी मिश्र बी० ए० वकील हाईकोर्ट लखनऊ लिखते हैं कि" हट्टे कट्टे लोगोंको दान देना देश और उन दोनों के लिये एक ही हानिकारक है । देशको इस लिये कि उसका इतना धन व्यर्थ नष्ट होता है और उसकी द्रव्योत्पादक शक्ति जो उन्नतिकी एक मात्र जननी है, घटती है । और उन भिक्षुकोंकी यों हानि होती है कि वे पुरुषार्थके नितान्त अयोग्य हो जाते हैं। आप कहेंगे कि क्या साधु-फकीरोंको मर जाने दें ? इसका उत्तर यही है कि ऐसे निरुद्यमी कायर पुरुषोंका जो देश पर केवल बोझ मात्र हैं, मर जाना ही उत्तम है । इस शरीरसे जो मनुष्य कुछ भी लाभ नहीं उठाता, उससे तो वह पशु भला जो सैकड़ों काम आता है।" __ भारतवर्षके भिक्षुक बड़े ही चटोरे और फजूल खर्च एवं व्यसनी होते हैं। उनके मुखमें बिना घी-शक्करके ग्रास नहीं उतरता । वे सोनेके जेवर और बढ़िया मूल्यवान् शाल ओढ़ते हैं। बड़े बड़े मंदिरों, बागीचों, मठों और मकानोंके अधिपति होते हैं। हाथी-घोड़े और पालकीमें बैठ कर चलते हैं । चंडू, चरस, गाजा, For Private And Personal Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भिक्षुक। १८५ मदक, अफीम और भंग जैसे बुद्धि-बिनाशक पदार्थों का सेवन करते हैं । भिखमंगोंमें प्रायः ये दूषण होते ही हैं; क्योंकि उन्हें कमाना नहीं पड़ता; मुफ्तका माल हाथ लगता है, फिर जो जो कुकृत्य न हों वे थोड़े ही हैं। ऐसे पुरुषोंमें नैतिक बुराइया होना स्वाभाविक बात है। अब देखना चाहिए कि इस भिक्षुक महामण्डलका, जिसके साठ लाखसे अधिक सभासद हैं, खर्च कहाँसे चलता है और कितना व्यय होता है ? कहनेकी आवश्यकता नहीं कि इनका भरण-पोषण भारतवासियोंके ही सिर है, क्योंकि वे तो परिश्रम करना पाप समझते हैं । इनका अच्छे भोजन, अच्छे वसन तथा नशे आदि सबका खर्च लगाया जाय तो एक अच्छे गृहस्थसे कहीं अधिक ही खर्च निकलेगा। किंतु यदि औसतसे आठ रुपया प्रतिमास प्रति भिक्षुक भी मान लिया जावे तो भी उनका खर्च ४९००००००) रु० वार्षिक बेचारे दीन, दरिद्र, दुर्भिक्ष-पीड़ित, भूखे भारतवासियोंके ही सिर है ! जब तक भारतमें भिखमंगे हैं तब तक भारतकी दशा सुधरना कठिन है । क्योंकि भिखारी बड़े ही अनाचारी और अत्याचारी होते हैं । देखिए भिखारी रावणने सीता हरी । भिखारी विष्णुने वृन्दाका सतीत्व नष्ट किया। भिखारी विष्णुने बलिको छला। भिखारी विश्वामित्रने हरिश्चन्द्रको छला । भिखारी महादेवने वनमें ऋषिपत्नियोंको लज्जित किया। भिखारी अर्जुनने बलदेवजीको धोखा दिया। भिखारी कृष्णने जरासंघका नाश कराया । भिखारी नारदने मोरध्वजके पुत्रका बध कराया। भिखारी त्रिदेवने अनुसूयाके For Private And Personal Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८६ भारतमें दुर्भिक्ष। पतिव्रतका नाश करना चाहा । भिखारी आल्हा-ऊदलने मॉडोके राजाको मारा । भिखारी मुनिया बुढियाने लाखों यात्रियोंकी लुटवाया। भिखारी मेजर टक्कर साहबने हजारों हिन्दुओंका धर्म भ्रष्ट करवाया। आजकल भिखारी लोग जा जो उपद्रव, अत्याचार कर रह हैं वह विज्ञ पाठकोंसे छिपा नहीं है । सारांश यह कि भारतके लिये भिखारियोंकी अधिक संख्या सत्यानाशका मूल कारण है। अत एव इनकी संख्या घटा कर देशकी दारिद्रय और दुर्भिक्षसे रक्षा करनेका उपाय सोचना चाहिए। For Private And Personal Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुछ और भी। कुछ और भी। जब कभी भारतवर्ष में प्लेगका दौरा किसी नगर गाँव या कस्बे में होता है तब वहाँके रहनेवाले, उस जन-नाशसे घबरा उठते हैं, उससे बचनेका उपाय सोचते हैं, औषधिया सोचते हैं इत्यादि । किन्तु उन्हें इस बातका तनिक पता नहीं कि प्लेगसे बढ़कर एक दूसरा पिशाच भी भारतवर्षको ऊजड़ कर रहा है। वह दूसरा पिशाच दुर्भिक्ष है । यदि प्लेगसे एक मनष्यकी मृत्यु हुई है तो इस पिशाचने उन्नीस आदमियोंका संहार किया है। दुनियाके प्रसिद्ध मेडिकल जर्नल मि० लेन्सेट साहबने लिखा है कि पिछले दस वर्षों में दस लाख मनुष्य तो प्लेगके शिकार हुए और एक करोड़ नब्बे लाख मनुष्य दुर्भिक्ष राक्षसके कराल डाढों द्वारा पिस गये! दुर्भिक्षने क्या नहीं कर दिखाया। अनेक ऋषि-सन्तान भूखें मरती ईसाई और मुसलमान हो गई । भूखों मरती भारत ललनाभोंने अपने पावन पतिव्रत धर्मको जलांजलि देदी। भूखों मरते करोड़ों भाई आरकाटियों द्वारा बहकाये जाकर फिजी, दक्षिण अफ्रिका, नेटाल, ट्रांसवाल, आरेञ्जफ्रीस्टेट, दक्षिण रोडेसिया, केपकालोनी, कनाड़ा, आस्ट्रेलिया, मोरीशस, सीलोन आदि अनेक टापुओंको भेज दिये गये। वहाँ पहुँच कर, बल्कि भारत छोड़ कर जहाज पर पैर रखते ही उन्हें जिन जिन आफतों, अत्याचारों और दुर्दशाओंका सामना करना पड़ा, उनकी कथा हृदयको विदीर्ण करनेवाली है। For Private And Personal Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८८ भारतमें दुर्भिक्ष । " देखो भरी हुई दुःखोंकी, उनकी करुणासे सानी । सिंधुपारसे संग हवाके, आती रोनेकी बानी ।।" -माधव शुक्ल । देखो, दूर खेतमें है वह कौन दुःखिनी नारी । पड़ी पापियोंके पाले है वह अबला बेचारी॥ देखो कौन दौड़ कर सहसा कूद पड़ी वह जलमें । पाप-जगतसे पिंड छुड़ा कर डूबी आप अतलमें ! ॥ -भारतीय हृदय । देखिए प्रवासी भारतवासियोंके सच्चे शुभचिंतक, भारतके एक मात्र हितेच्छु, महात्मा गाँधीके अनन्य भक्त, मि०सी, एफ० एण्ड्यूज अपनी प्रभावोत्पादिनी लेखनीसे लिखी " Indian women in Fiji " नामक पुस्तकमें कैसी हृदय-विदारक कविता लिखते हैं, जिसे पढ़ कर अपने प्रवासी भारतवासियोंके दुःखोंकी गाथाका पता हमारे पाठकोंका अच्छी तरह लग जाएगा। “ They are, toiling, toiling, toiling, In the dense rank sugar cane, And their hearts are burning burning, With a dull and smouldering pain. They are weeping, weeping, weeping, For the homes left far behind, And their cry comes fainter fainter, On the distant south sea wind. They are mute with sullen silence, Over wrongs too dark to tell, For Private And Personal Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुछ और भी। १८९ And the memory haunts and haunts them, Of an evil black as hell. They are dying, dying, dying, Unblest, unloved, unknown, Ah, God in heaven in heaven, Make their dumb cry thine own." क्या ही करुणा-जनक दशा है । हाय हमारे भोले भोले भारतीय भाई भूखों मरते, जीवित नरकमें पड़े यम-यातनासे कठोर दुःख उठा रहे हैं । क्या हमें इस बातका पता है कि वे क्यों इस भौति दुःख सह रहे हैं ! हा, वे बेचारे भयंकर दुर्भिक्ष और दरिद्रके कारण ही जीवित नरकमें हैं। __ भूखों मरते भारतवासियोंने अपना गौरव खो दिया, स्वतंत्रता खो दी. आत्मबलको तिलांजली दे दी, दासत्वको अपना लिया, जिनकी छायाके स्पर्शसे हमारे पूर्वजोंने स्नान किया उन्हीं ऋषियोंकी सन्तानोंने आज उन्हीं लोगोंकी जूतिया खाकर भी " हैं। हजूर " कहना अपने जीवनका एक मात्र उद्देश्य समझ रखा है। __ वह ईश्वरकी प्यारी ब्राह्मण जाति भी ठोकरें खाने लगी । जिनकी चरण-रजसे लोगोंने क्या चक्रवर्ती राजाओंने अपने मस्तकको अभिषिक्त कर अपनेको पवित्र किया, उन्हीं अग्रजन्मा भूसुरोंकी भूखों मरते दुर्भिक्षके कारण कैसी अधोगति हो गई ! बिना बुलाये, अपमानित होने पर भी, भोजन-प्राप्तिके लिये, अपनेसे नीच वर्णके लोगोंके द्वार पर वे आशा लगाये अड़े रहते हैं । कई तो सिर फोड़ कर खून निकाल कर अपने पेटकी ज्वाला शांत करनेको अन्न प्राप्त करते हैं। For Private And Personal Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९० भारतमें दुर्भिक्ष । कभी किसीके यहाँ विवाह-शादीमें जेवनार होने दीजिए तब जूठी पत्तलोंके पड़ते ही भिक्षुक और कुत्ते एक साथ उन पत्तलों पर टूट पड़ते हैं । कुत्ते उनसे छुड़ाते हैं और वे कुत्तोंसे छुड़ाते हैं। कैसी हृदय-विदारक बात है । हाय, इस अभागे भारतको सन्तान इस प्रकार भूखों मरती है । रेलवे स्टेशनों पर जब कि रेलगाड़ी आकर ठहरती है और मुसाफिर कुछ खाकर खाली दोने फेंकते हैं तब भूखों मरते हमारे भारतीय बन्धु उन्हें कुत्तोंसे छीन छीन कर खाना चाहते हैं। क्या ही शोचनीय दशा है ! क्या सिवाय भारतके किसी अन्य देशकी भी यह दशा है ? नहीं, कदापि नहीं । यह तो केवल एक अभागा भारतवर्ष ही है जहाँके लोग और कुत्ते आपसमें भोजनके लिये इस भाँति लड़ते हैं। किसी कविने सच कहा है " मंगनमें अरु स्वानमें, इतो भेद विधि कीन्ह । स्वान सपुच्छ विलोकिये, मंगन पूछ विहीन ।” कहा जाता है कि भारतवासी कमजोर होते हैं, पर यह बात बिलकुल झूठ है । हैं। इतना अवश्य है कि पहले की अपेक्षा वे अब निर्बल हैं, किंतु अन्य देशोंके किसी मनुष्यसे शक्ति में कम नहीं हैं। भारतवासी इतनी कड़ी मिहनत करनेवाले होते हैं कि उनके समान दूसरे किसी देशका मनुष्य परिश्रम नहीं कर सकता। किंतु यहाकी मजदूरी इतनी कम है कि बेचारे मजदूरोंको अपना उदर-पालन करना भी कठिन है। दिन भर पत्थर फोड़ने पर भी एक मजदूर रातका वही ज्वारी या मक्कीकी सूखी रोटी नमककी डलीके साथ खाता है। और विदेशोंमें मजदूर लोग इतना पैदा कर लेते हैं कि अल्प परिश्रमसे खाने पीनेके For Private And Personal Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुछ और भी। अतिरिक्त खूब बचा लेते हैं। कारण वहँ। काम अधिक होनेसे मनु व्योंका मूल्य है और अच्छी मजदूरी मिलती है । भारतमें सैकड़ों हजारों आदमी रोजगार ढूँढने के निमित्त घर छोड़ कर महीनों परदेश घूमते रहते हैं तब भी पेट भरने योग्य भी नौकरी उन्हें कहीं नहीं मिलती ! अपनी अमेरिका-सम्बन्धी पुस्तकोंमें स्वामी सत्यदेव जीने लिखा है कि यहाँ पर विद्यार्थी दिन में एक घंटा भर काम करके अपना निर्वाह भली प्रकार करके कुछ बचा भी सकता है । स्वयं स्वामी सत्यदेवजीने ग्रीष्मावकाशमें इतना कमा लिया था कि महीनों तक उसके द्वारा वे अपना खर्च चलाते रहे थे। परन्तु भारतवर्षम रात-दिन जी-तोड़ परिश्रम करनेवाला मनुष्य भी मास में कमसे कम तीन चार बार एकादशीका उपवास करता है ! यहाँ भूखों मरते लोग अपने जीते-जी अपने प्राणाधिक प्रिय बालकोंको अपनेसे जुदा कर देते हैं । यहाँ एक बी० ए०, एम० ए० डिग्री-भारबाही उतना नहीं कमा सकता जितना अमेरिकाका एक कुली कमा लेता है। यहाके काम कराने वाले लोग मुफ्तमें ही काम करा लेना चाहते हैं। इसमें अग्रगण्य हमारी सरकारके कर्मचारी आदि ही हैं, क्योंकि वह बहुतसे दीन मनुष्योंको जबरदस्ती बेगारमें पकड़ लेते हैं और उनसे काम करा कर एक पैसा नहीं देते और यदि देते हैं तो केवल नाम मात्रको या हमारे आसू पोंछनेको । हम पूछते हैं, गरीबोंके साथ ऐसा अन्याय क्यों ? भूखों मरते भारतवासियों पर यह जुल्म क्यों ? पर कौन सुनता है । जहाँ गवर्नमेंटके कर्मचारी ही ऐसे निंद्य कार्य करें और देशके गरीबों और भूवोंको सतावें, वहाकी दुर्दशा और क्या होगी ! देखा गया है एक साधारण सरकारी कर्मचारी For Private And Personal Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९२ भारतमें दुर्भिक्ष । किसी गावसे एक बेगार पकड़ लेता है और उसे उसकी कठिन मिहनतके लिये एक पाई नहीं देता, बल्कि यदि वह चलने में किर्स कार्यवश 'ना' कह दे तो उस दीनको बेतों और ठोकरोंसे मारत है। पटवारीको देखिए, वह किसी एक गरीबको अपनी सेवामें रात दिन हाजिर रखता है और उस दीनको एक फूटी कौड़ी भी नह मिलती। खेद है कि भारतके भाग्य-विधाता भी इनकी दशा पर ध्यान नहीं देते। भारतमें ढूँढने पर '५)रु० मासिक. पर भी एक हट्टा-कट्ट जवान मजदूर मिल जाता है । इसका कारण देशकी दरिद्रता और दुर्भिक्षकी प्रबलता है। ___“ न्यू इंग्लैण्ड मेगजीन " ( New England Magazine ने अपने सन् १९०० सितम्बरके अंकमें लिखा थाः: The real cause of Indian famines is the extr: eme the object, the awful, Poverty, of the Indian people. अर्थात् भारतमें दुर्भिक्षका मुख्य कारण भारतीयोंकी अत्यन्त नीचे दर्जेकी दरिद्रता है।" __+ + + इधर हमारे खेल भी विदेशी हो गये, अतः देशका करोड़ों रुपया इन खेलों द्वारा भारतसे कूद कर विदेशों पहुँचने लगा। हम लोग विदेशी खेलोंसे इतना प्रेम करने लगे हैं, मानों भारतमें एक भी उत्तम खेल नहीं है। किंतु हम दावेके साथ कह सकते हैं कि भारतका एक साधारणसे साधारण खेल भी अत्यन्त बलदायक, स्वास्थ्य-सुधारक एवं सरल और सस्ता है । फुटबाल, क्रीकेट, टेनिस, हाकी, गॅॉल्फ जैसे हानिकारक और निकम्मे महँगे खेलोंसे हमारे भारतीय खेल कई बातोंमें For Private And Personal Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुछ और भी। उत्तम हैं । देखने में आता है कि व्यायामके सामान भी हमारे घरोंमें विदेशी ही भरे पड़े हैं । जैसे डम्बेल, सेंडोज डम्बल, फेंकनेका गोला आदि । किंतु ये सब निकम्मी वस्तुएँ हैं। भारतवासियोंके व्यायामके लिये मुद्गर आदि वस्तुएँ ही पर्याप्त हैं । आँखोंके सामने है कि प्रोफेसर राममूर्ति जैसे आधुनिक भीमने देशी ढंगकी कसरतोंके प्रतापसे विदेशोंमें पहुँच कर भारतका बल-परिचय दिया! एक देशी ढंगके खिलाड़ी और एक टेनिस क्रीकेटके खिलाड़ीके बलकी परीक्षा कभी आप स्वयं कर देखिए, किंतु हमें इस बातकी परवा नहीं, हम तो फैशनके भक्त हैं। हम डंकेकी चोट कहेंगे कि भारतका मामूलीसे मामूली काम भी देशके लिये लाभप्रद, सर्वोत्तम एवं कम-खर्च है। उदाहरणार्थ--बन्दूक चलानेके लिये हमें वर्तमान समय में ७) रु० सैंकडेके कातूंस खरीदने होते हैं और बन्दूककी कीमत सौ-पचास रुपये अलग है । किंतु भारतीय एक बासके बने धनुष पर, सस्ते तीर चढ़ा कर बन्दूकसे कहीं अधिक काम कर सकते हैं। साथ ही कार्तृस चल चुकने पर किसी कामका नहीं रहता, परंतु तीर पुनः पुनः काममें आ सकता है । महाभारतके प्रसिद्ध महाभारती अर्जुनका गांडीव वर्तमान किसी एक बड़ी भारी तोपसे क्या कम था ? वर्तमानमें भी राना सुलतानसिंहजी तथा भावनगर काठियावाड़के निवासी लल्लूभाई कल्याणजी शाह आदि पुरुषोंने धनुर्वेदके वे प्रयोग जो शास्त्रोंमें वर्णित हैं, लोगोंको कर दिखाये हैं। किंतु सारी बात तो यह है कि हम आँख मींचे बिना सोचे समझे विदेशी-प्रेमी हो गये हैं। अब हम लोगोंका कर्तव्य है कि जरा अपनी बुद्धिसे काम लें और दुनियाकी बनावटी ३ For Private And Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९४ भारतमें दुर्भिक्ष। चटक मटक पर न रीझें । स्मरण रखिए वह भारतीय वस्तु जिसे आप निकम्मी और अयोग्य समझे बैठे हैं, हमारी उद्धारकारिणी और सुख-सम्पति दायिनी है । हमें चाहिए कि हम बाह्य सुंदरतासे मोहित होकर उसे न अपनावें, बल्कि उसके सच्चे गुणोंसे । तभी संभव है कि देशकी भयंकर स्थिति सुधर सकेगी। + + + + नित्य हमारे काममें आनेवाली एक वस्तु और भी है, उसे हम लोग तैल कहते हैं । आजसे २५ अथवा ३० वर्ष पूर्व सारे देशका अंधशार तिल्लीके तैल अथवा अन्य किसी भँति उत्तम तैलसे दूर किया जाता था। बल्कि राज-प्रासादोंमें घृत भी जलाया जाता था। हमारे जलानेके उन पदार्थों में अनेक गुण थे। तैलकी शरीर पर मालिश अत्यंत बलकारक है, उससे कई प्रकारकी खाद्य वस्तुएँ तैय्यार होती हैं, देश में जिस ऑति घृत काममें लाया जाता है उसी भौति गरीब श्रेणीके मनुष्य तैल काममें लाते है। तैलकी दोपशिखा द्वारा कज्जल आदि प्राप्त कर नेत्रोंमें अजनकी भाति लगाते हैं, जो नेत्रोंके लिये अत्यंत हितकर वस्तु है । किंतु जबसे मिट्टीके तैलका आगमन हमारे भारतमें हुआ तबसे तिल्लीके तेलको लोगोंने पेंशन दे दी। आज एक साधारण गृहस्थकी पर्ण-कुटीसे लेकर एक गगनस्पर्शी राज-प्रासाद तथा हमारे भगवान् राम-कृष्ण आदि देवता ओंके देवालयों तकको इसने अपने अधीन कर लिया । करोड़ों मन मिट्टीका तैल अंधकार विनाश नार्थ भारतवर्ष में खरने लगा। इस तैलने भारतके स्वास्थ्यको अपने साथ भस्म करना आरंभ कर दिया और शोब ही भारतवर्षके बलवान् शरीरको निर्बल कर For Private And Personal Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुछ और भी। रोगी कर दिया । प्लेग, कालरा, ज्वर आदि रोगोंको भारतमें लानेवाला एक यह तैल भी है। इसका धुआँ तन्दुरुस्तीको बरबाद करनेमें एक ही सिद्ध हुआ है । जो लोग मूल्यवान लालटेनोंमें इसे जला कर यह समझते हैं कि हम इसके धुएँसे बचे हुए हैं, वे वास्तव में भूले हुए हैं। वे प्रत्यक्ष रूपसे इसका धुआँ नहीं देखते, किंतु उससे मकानकी सारी हवा दूषित रहती है । प्रायः प्रति शत ७५ भारतवासी मिट्टीकी या टीनको चिमनियोंमें इसे जलाते हैं, जिसमेंसे एक प्रकारकी धएँकी चोटीसी लपट जलते समय उठा ही करती है-भला, क्या कभी आपने इसके द्वारा भविष्यमें उत्पन्न होनेवाली हानिको भी विचारा है ? उसका दूषित एवं विष-तुल्य धुआँ आपके श्वास द्वारा शरीरमें प्रवेश कर अनेक रोगोंको उत्पन्न करता रहता है, प्रत्येक इन्द्रियको निर्बल करता है। तभी तो भारतवासी अब रोगी और कमजोर होते चले जाते हैं । आँखोंके लिये मिट्टीका तैल एक दम विष-तुल्य पदार्थ है, जिसने भारत के हजारों लाखों नवयुव. कोंकी दृष्टि शक्ति कम कर डाली, जिसके कारण माताके उदरसे बाहर आते ही ऐनककी आवश्यकता पड़ती है ! आपने देखा होगा कि चिमनी जला कर सोनेवाले मनुष्योंका मुख प्रातःकाल उठने पर काला होता है, नासिकाके छिद्र बिलकुल Black hole ( ब्लैक होल) या रेलके एंजिन ठहरनेके मकानके द्वारके जैसे होते हैं। मुखसे थूकने पर कफमें कज्जल मिश्रित होता है । अर्थात् हम अपने हाथों अपनी बरबादी कर रहे हैं, उक्त मिट्टीके तैल को खरीद कर अपना करोड़ों रुपया ही विदेशोंको नहीं दे रहे हैं बल्कि रोगी भी हो रहे हैं । इन दिनों तो मिट्टीके तैल का भाव पूर्वापेक्षा तिगुना, चौगुना For Private And Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९६ भारत में दुर्भिक्ष | तक हो गया तब भी हम उसको त्यागना नहीं चाहते ? हमें चाहिए: कि हम इस तैलको प्रयोग में लाना एकदम छोड़ दें ताकि दरिद्र भारतका अरबों रुपया बाहर जानेसे बचे और प्लेग आदि भयंकर रागोंका देशसे काला मुंह हो ! हमें तिलोंके तैलकी रोशनी बुरी लगने लगी तब मिट्टीके तैलके लैम्पको काचका बना कज्जल-ध्वज लगा कर हमने अपने नेत्रोंको सुखी किया । शनैः शनै: हमें इस प्रकाशमें भी कम दीखने लगा तो Kitson Gigh की सृष्टि हुई -- विवाह शादियों में, नाच- रंगोंमें, आनन्द-उत्सवों में नाईकी मशालोंका अपमान कर इनको स्थान दिया गया । धीर धीरे हम अंधोंको इसमें भी नहीं सूझने लगा तक विद्युत् - प्रकाशका नम्बर आया । ईश्वर न करे, कहीं हम भार तीयोंको- तिलोंके तैलके प्रकाश में सतयुग से अब तक काम करनेवालोंको-अपनी दृष्टि शक्ति कम हो जानेके कारण यह बिजली की रोशनी भी पर्याप्त न हो ! और हमें पढ़ने के समयः सूर्य-सदृश प्रकाशवान् किसी ज्योतिको घर घर आवश्यकता पड़े ! आश्चर्य है कि आज हमने इस तैलका व्यवहार कर, अपने हाथों अपनी आँखें खराब कर लीं और ऐनक लगाने लग गये हमारे विदेशी बन्धुओं को इसमें भी लाभ है, क्योंकि करोड़ों रुपये की ऐनके अन्धे भारत में खप जाता हैं । हम यह बात जानना चाहते हैं कि रातदिन लिखनेवाले श्रागणेशजी, अथवा वाग्देवी सरस्वतीया १८ पुराणों तथा महाभारत के लेखक महर्षि व्यास किंवा रामायण के रचयिता महर्षि बाल्मीकिने भी कभी अपनी वृद्धावस्था तक ऐनक लगाई थी या नहीं ? For Private And Personal Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुछ और भी। इस मिट्टीके तैलके साथ ही साथ अन्यान्य वस्तुओंकी भी आवश्यकता पड़ती है, जो कि सब विदेशो होती हैं। जैसे लेम्प, चिमनी, ग्लोब, बत्ती आदि । इसी भैाति गेस और बिजलीके लिये विदेशी ही वस्तु काममें लाई जाती है। बिजलीके कारखानोंके इंजिन, तत्सम्बन्धी सामान, तार, खंभे, काँचकी चिमनियाँ इत्यादि सभी विदेशोंकी बनी होती हैं, यहाँ तक कि उसका मालिक भी कोई विदेशी सज्जन ही होगा ! गैसकी बत्ती--जो छूनेसे ही नष्ट हो जाती है, बर्नर, काँच, तार, पंप आदि सभी चीजें विदेशी होती हैं । सारांश यह कि उसके काममें लानेवाले ही केवल भारतवासी स्वदेशी होते हैं, अन्य कुछ नहीं ! हँ। उस प्रकाशको देख कर " वाह वाह' कहनेवाले भी स्वदेशी ही होते हैं । परन्तु यह वाह वाह क्या सचमुच ठीक है या हमारी मूर्खताका नमूना है ? कुछ मी समझिए मेरे विचारसे अनेक मार्गोंसे भारतका धन विदेशोंको खिंचा जा रहा है और भारत हमारी अज्ञतासे दिनों दिन दरिद्र और दुर्भिक्षका भोजन होता जा रहा है। ___+ + + + + __ हम उसी नगरको उन्नतावस्था में समझते हैं जहाँ रेल, तार, टेलीफोन, पानीके नल, विजलीकी रोशनी, ट्रामगाड़ी, मोटर और बाइसिकलें आदि इधर उधर घूमती फिरती दृष्टि आती हैं। जहाँ दो चार मिलें या कारखाने न हों वह नगर कदापि उन्नत नहीं कहा जा सकता । जहाँ मोटर भों भों करती हुई अपनी दुर्गन्ध भरी वायु न छोड़ती जाती हो वह नगर नगर ही नहीं। हमारी कैसी उलटी समझ है! रेलका प्रत्येक सामान विदेशी है तो उसके मालिक भी विदेशी For Private And Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९८ भारत में दुर्भिक्ष | 1 शीत ऋतु में लोग इसे 1 बना रहे तो पत्थरके कोय - ही हैं । इसी भाँति तार, टेलीफोन, ट्राम इत्यादिके विषय में भी समझिए । प्रायः रेल और मिलोंके एञ्जनों में जो पत्थरका कोयला जलाया जाता है, क्या कभी आपने इसके भयंकर परिणाम पर भी दृष्टि डाली है । आपको यह तो मालूम होगा ही कि पत्थरके कोयले का धुआँ एक अत्यंत विषैला पदार्थ है । कई बार शीत निवारणार्थ जला कर मकान बन्द करके रातको सो गये हैं और सुबह देखा गया है कि उस मकान में एक भी मनुष्य जीवित नहीं है, सब मर गये हैं । इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि यह कोयला स्वास्थ्य-नाशक वस्तु है । भारतवर्ष में करोड़ों मन कोयला प्रति दिन जलता है, फिर भला भारतमें प्लेग यदि सदैव क्या आश्चर्य हैं ? एक विज्ञानवेत्ता का कहना है कि लेका धुआँ वृष्टिका घोर शत्रु है। इसी भाँति उसने पेटरोल और मिट्टी के तैलके धुएँको भी वृष्टि के लिये अत्यन्त हानिकारक बताया है । उसका कहना है कि वह पदार्थ जो वृष्टिके लिये उपयोगी है और निरन्तर वायु मण्डलमें रहता है, कोयले के धुंएँसे बिलकुल नष्ट हो जाता है । यदि कोयला भी न जलाया जाए और उसकी जगह जंगल काट कर लकड़ियाँ काममें लाई जाएँ, तो भी वनोंके कट जाने से वृष्टि कम हो जायगी । यद्यपि अधिकांश एंजनों में लकड़ियाँ नहीं जलाई जाती हैं तथापि अन्य कई कारणोंसे भारतके जंगलके जंगल काट डाले गये हैं । इसी कारणसे और पत्थरके कोयले के धुंएँ आदि अन्य कारणोंसे भारत में भली भाँति वर्षा नहीं होने पाती और वर्षा न होने से सदैव देश में दुर्भिक्ष पड़ा करते हैं। यदि एक कारण ही दुर्भिक्षका हो तो भी सन्तोष कर लिया जाये, किन्तु यहाँ For Private And Personal Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुछ और भी। तो प्रत्येक कारण ही भारतकी दरिद्रता और दुर्भिक्षसे सम्बन्ध रखता है । ईश्वर ही इसका रक्षक है! + + + + + दुर्भिक्षने भारतको खूब ही धर दबाया, आज उसका जीवन संकटमें है । सन् १८६५ ई० के पूर्व इंग्लैण्ड में प्रति सहस्र सत्तर मनुष्योंकी मृत्यु होती थी, किंतु अब केवल १५ ही रह गई । आबादी बढ़ी और मृत्यु-संख्या घटी। कारण वहाँके लोगोंने हैजा, प्लेगज्वर आदि रोगोंके होने के कारण जान लिये हैं। उन्होंने इसके चार प्रधान कारण बताये हैं: (1) Want of ventilation. (2) Over-crowded houses. (3) Bad and defective drain, and (4) The drinking water containing impurities, अर्थात्(१) मकानोमें शुद्ध वायुका अभाव, (२) बहुतसे लोगोंका एक साथ ही एक मकानमें रहना, ( ३) बुरी तथा गन्दी नालियोंका होना, और( ४ ) ऐसा खराब पानी पीना जिसमें गन्दापन हो । इंग्लैण्डने तो उक्त चारों कारणोंको दूर करके अपने देशको निरोग बना लिया। किंतु हिन्दुस्थान-जिसमें लोग रात-दिन दुर्भिक्षोंका सामना करते रहते हैं, जिसको भरपेट अन्न प्राप्त करना कठिन है, जिसके सैकड़ों बालक क्षुधाकी प्रज्वलित आंनमें नित्य भस्म होते हैं--उक्त कारणोंको किस भाँति दूर कर सकता है ? क्यों For Private And Personal Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०० भारतमें दुर्भिक्ष । कि इनके दूर करनेके लिये धनकी आवश्यकता है और देश निर्धन है,अत एव रात-दिन नये नये मानव-संहारी रोगोंका भारतमें आगमन हो रहा है । इसके अतिरिक्त अभी तक भारतवासियोंने शुद्ध अन्न, जल एवं वायुके अनुपम गुणोंको भी नहीं जाना है । हम देखते हैं कि रात्रिका सोने के समय वायु आनेके सभी मार्ग बन्द कर दिये जाते हैं, यहाँ तक कि चार अंगुलके छिद्रको भी वे कपड़ा ठूस कर मूंद देते हैं । कारण वे गरीब हैं, भूखे हैं, अतः चोरोंके घुस आनेका डर उन पर सवार रहता है । दरिद्रताक कारण प्रत्येक मनुष्यके अलग अलग रहनेको मकान नहीं बनाये जा सकते, इस लिये आठदस हाथ लम्बे-चौड़े मकानमें सात या आठ मनुष्य एक हो बिछौने और ओढनेमें घुस कर सो रहते हैं, वहीं रसोई बनती है, उसा घरमें हँाडी-कँडे तथा अन्य सामान पड़े हैं, वहीं एक कोनेमें पानी रखनेका स्थान है ! बात यह है कि एक तो उन्हें इतना ज्ञान नहीं होता कि एक बिछौनेमें दो मनुष्योंके सोने, रसोई-वर एवं शयनागार एक होने तथा वहीं पानीके रखनेका स्थान होनेसे क्या क्या भयंकर हानियाँ होती हैं । दूसरे यदि ज्ञान भी हो तो दरिद्रताके कारण वे विवश हैं। क्योंकि प्रत्येक कार्य के आरंभमें सबसे पहल धनका प्रश्न सामने आता है: The Mud huts of people favour spread of plague. But they are built of mud because,that is generally the only material, the builder can obtain” “......He inhabits a mud hovel, in the middle of a crowded village surrounded by For Private And Personal Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुछ और भी। २.१ dung-hills and stagnant pools, the water of which latter is not seldom his only drink". __ अर्थात्-भारतवासी मिट्टीक बने मकानोंमें रहते हैं। मिट्टीके मकान प्लेग फैलाने में सहायक हैं । इन गरीबोंको सिवाय मिट्टीके दूसरी वस्तु ही मकान बनानेको प्राप्त नहीं होती। ऐसी झोंपड़ियोंमें रहते हैं जहाँ चारों ओर गोबरके ढेर, पास ही गन्दे पानीकी तलैया--जिसका पानी वे प्रायः पीते हैं--भी है ।" __ सुख कौन नहीं चाहता ? क्या झोपड़ीका रहनेवाला चूनेके मकानोंमें रहना पसन्द नहीं करता ? या उसे अच्छे, स्वच्छ, मकानमें रहना नहीं आता ? वह सब कुछ चाहता है, परन्तु करे क्या ? दिन प्रति दिन अकालोंका सामना करते करते उसे अपने जीवनकी आशा भी नहीं रही। पेट भर खानेको अन्न नहीं, फिर रहनेके लिये उत्तम मकान कहासे लावे ! __ + + + + + प्रथम तो भारतवासी विदेश-गमन करना बिलकुल पसन्द ही नहीं करते । दूसरे भारतवासियोंको अन्य देशोंने इस नीच श्रेणीके मनुष्य मान रखा है कि वे अपने देशोंमें हमें घुसने देना नहीं चाहते,और जो वहाँ पहुँच चुके हैं उन्हें जिस तिस प्रकारसे अपने देशसे बाहर करनेके अनेक उपाय करते हैं। वहाँ भारतवासियों के लिये कड़ेसे कड़े अन्याय-पूर्ण कानून बनते हैं और कानूनोंका भी खंडन करनेवाले अनेक अत्याचार उनके साथ होते हैं । यही इस विषय पर मैं अधिक लिखना नहीं चाहता। तथापि भारतवासियोंकी विदेशोंमें बड़ा ही मिट्टी पलीद है यह मैं बतला देना चाहता हूँ। विदेशी लोग हम For Private And Personal Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०२ भारतमें दुर्भिक्ष । पर निम्न लिखित दोष लगाया करते हैं--(१) भारतवासी मूर्ख होते हैं,(२) हमसे मिल कर रहना पसन्द नहीं करते,( ३ ) जातिपातिके बन्धनोंसे जकड़े होते हैं, (४) मैले होते हैं अत एव हमारे देशोंमें बीमारी फैलती है, (५) दुराचारी होते हैं, (६) साफे बाँधते हैं,(७) हमार देशका धन बचा बचा कर भारतको भेजते रहते हैं,( ८ ) ये लोग ईसाई नहीं हैं,(९) इन्हें ब्रिटिश उपनिवेशोंके प्रवेशका अधिकार पूर्णतया प्राप्त नहीं, (१० ) ये लोग सभ्य जातिके नहीं.( ११ ) ये साधारण भोजन करके बहुत बचा लेते हैं,(१२) हमारी बराबरी करते हैं, (१३) कम मजदूरी पर काम करते हैं— इत्यादि । ये सब आक्षेप ऐसे हैं जिनमें कुछ सार नहीं, मूर्खता पूर्ण एवं दिल्लगी करने योग्य हैं। हम पूछ सकते हैं कि यदि विदेशोंमें हमें घुसने का अधिकार नहीं तो भारतमें विदेशियोंको घुसनेका क्या अधिकार है ? किंतु हमारी ब्रिटिश गवर्नमेण्टने हमारे इन अपमानोंको कभी नहीं सोचा । सच बात तो यह है कि हमारी सरकारने कभी हमारा पक्ष नहीं लिया है; और न कभी हमारे विपक्षियोंके विरुद्ध एक उँगली ही उठाई है। यही एक मुख्य कारण है कि हमारा विदेशोंमें खुलमखुल्ला अपमान हो रहा है और वहाके निवासी हजारों रुपये मासिक वेतन पर भारतमें आनन्द कर रहे हैं और हम च भी नहीं कर सकते । नहीं तो क्या मजाल थी कि हमें अपमानित करनेवाले भारतकी सीमामें फटकने पाते । हमारी इस प्रकारकी बे-इज्जतीका कारण हमारी ब्रिटिश गवर्नमेण्ट है, जो हमारे दुःखोंको देख कर दुखी नहीं होती! या दसरा कारण हमारी परतंत्रता है। यदि हम अपने देशके शासक होते तो आज हम उन विदेशि For Private And Personal Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुछ और भी। योंको जो अपने देशमें हमारे भाइयोंका अपमान कर प्रसन्न होते हैं, कदापि भारतवर्ष में नहीं आने देते और जो हैं उन्हें कभीके यहाँसे एकदम निकाल दिये होते, परन्तु हम तो पराधीनताकी दृढ़ जंजीरमें बँधे हैं। यह एक प्रसिद्ध बात है कि " जिसका सम्मान घरमें नहीं वह बाहर भी सम्मानित होनेको आशा छोड़ दे।" हम एक ऐसे देशका कुछ जिक्र करते हैं जहाँ भारतवासियोंको अन्य देशों और द्वीपोंकी अपेक्षा अधिक आराम और सुख था, किंतु उसने जब देखा कि भारतवासियोंका ब्रिटिश उपनिवेशों में हो अपमान होता है तो हम भी उन्हें अपने देशसे निकाल बाहर करनेका उद्योग क्यों न करें । वह देश है ' अमेरिका । अब वह भारतवासी मनुष्योंको अपने यहीं नहीं आने देना चाहता है। वह भी ऊपर लिखे हुए आक्षेपोंकी भाँति कई आक्षेप करता है। इस समय लगभग बीस लाख भारतवासी विदेशों में हैं और अमेरिकामें सन् १९१३ की मनुष्य-गणनाके अनुसार ४७९४ भारतवासी थे। इनमें लगभग ३०० विद्यार्थी हैं । किस किस सालमें कितने भारतवासी अमेरिकामें गये थे यह बात निम्न लिखित अंकोंसे प्रकट होती है१९०० सन्में, ९ भारतवासी गये। १९०२ १९०३ १९०४ , " , २५८ १४५ १९०५ , For Private And Personal Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०४ भारतमें दुर्भिक्ष। २७१ १९०७ १९०८ १०७२ १७१० ३३७ १७८२ १९११ , ५१७ १९१२ , १६५ , अब जबसे अमेरिकाकी सरकार भारतवासियों के विरुद्ध चर्चा कर रही है तबसे बहुतसे भारतीय अमेरिकाको घीकी मक्खीकी भांति छोड़ कर अपने देशको वापस आने लगे हैं। देखिए अमेरिकाको भारतवासियों द्वारा संगृहीत धन भारतको आता देख कर कैसा दुःख हुआ है। महाशय प्रोफेसर जैक और लौक अपनी “ The Immigration problem " ' प्रवासका प्रश्न ' नामक पुस्तकमें लिखते हैं “Usually they (Indians ) have little money in their possession when they arrive and come with the expectation of accumulating a fortune of some 2000 dollars, then going back to their native land.........', __ अर्थात्-प्रायः भारतवासियोंके पास जब कि वे अमेरिकामें आते हैं, कुछ भी नहीं होता और वे लोग इसी आशासे यहाँ आते हैं कि हम यहाँसे सात आठ हजार रुपये इकडे करके अपने घर ले जायेंगे। इसी माति केली-फोर्नियाके कुछ अमरीकन लोगोंने कहा था कि For Private And Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुछ और भी । २०५. El हिन्दू लोग अपनी कमाईका एक बड़ा भाग अपने घर भारतवर्षको भेज देते हैं । स्टाकटन नामक नगर के निकटके हिन्दुओंने सन् १९१४ ई० में ५५ हजार, ४ सौ, ६७ रुपये घरको भेज दिये ।" थोड़ी देर के लिये हम मान भी लेते हैं कि उक्त संख्या ठीक है । अब हमारा प्रश्न इन केली-फोर्नियावाले अमरीकनोंसे है कि" क्या अमेरिका-प्रवासी यूरोपियन लोग अपनी कमाईका एक बड़ा भारी हिस्सा अपने देशको नहीं भेजते ? " देखिए, डा० स्टीनरने जो प्रवास सम्बन्धी प्रश्नोंके अच्छे ज्ञाता हैं " अमेरिकन रिव्यू आफ रिव्यूज " नामक पत्र में लिखा था: “ About Forty percent of our European pea - sant immigrants re-emigrate. They export perhaps 2700,000,000, Rupees each, normal year. During industrial depression or panics these become larger". अर्थात् - अमरीका प्रवासी यूरोपियन किसानों में से चालीस फी सदी लगभग दो अरब, सत्तर करोड़ रुपये प्रत्येक साधारण वर्ष में घर भेजते हैं । जब उद्योग-धन्धों का काम ढीला पड़ जाता है तो यह रकम बढ़ जाती है ।" हमें आश्चर्य है कि ५५ हजार रुपये भारतवासियों ने यदि अपने देशको भेज दिये तो उनके पेटमें क्यों चूहे कूदने लगे ? और यूरोपियन लोग जो प्रायः तीन अरब रुपया अमेरिकासे प्रति वर्ष अपने देशों को भेज देते हैं उसका कुछ जिक्र ही नहीं ! भारतवासियों के इस अपमानकी कुछ सीमा है । हमें उचित तो यह है कि हम अमे-रिकाके बने हुए मालको स्पर्श तक न करें । For Private And Personal Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०६ - ~ भारतमें दाभक्ष । प्यारे भारतवासियो ! क्या कभी आपको भी ऐसे विचारोंने जाग्रत किया है कि आपके देशका कितना धन प्रति वर्ष विदेशी लोग अपने देशोंको भेज देते हैं ? और किस भैाति आपका प्यारा भारतवर्ष निर्धन और दुर्भिक्षके ताण्डव नृत्यसे पादाक्रान्त हो रहा है ? देखा, केवल पचपन हज़ार रुपयोंके भारतमें आने पर अमेरिकाके लोग कैसे घबरा उठे हैं और भारतवासियोंका अमेरिकाप्रवेश रोकनेका कैसा प्रयत्न कर रहे हैं। यह तो एक सभ्य देश अमेरिकाकी वात है, अन्य देशोंकी कथा सुन कर तो आपके रोंगटे खड हो जायँगे ।* अब हमारा यह मुख्य कर्तव्य है कि हम अपनी ब्रिटिश सरकारकी सहायता द्वारा संसारके समस्त देशोंमें भारतवासियोंको समान अधिकार प्राप्त करा लें और बेरोक-टोक प्रत्येक देशमें प्रवेश करनेका अधिकार भी प्राप्त कर लें । तब हमारे देशी भाई विदेशोंमें जाकर आनन्द-पूर्वक अपना जीवन व्यतीत करते हुए, भारतको कुछ धन भी विदेशोंसे भेजते रहेंगे। हमें अब यह अन्याय नहीं सहना चाहिए कि हमारा धन तो विदेशी आनन्द-पर्वक अपने देशोंको उड़ा ले जायें और हम एक भी पैसा विदेशोंसे जब भारतवर्षको लावें तब उनका पेट दुखने लगे ! अब हमें समान अधिकार प्राप्त करनेकी चेष्टा निरन्तर करनी चाहिए और बार बार अपनी सरकारको इसके लिये याद दिलाते रहना चाहिए क्योंकि बिना रोए माता-पिता भी बालककी सुधि नहीं लेते। ___ * इस विषयमें विशेष परिचित होने के लिये हमारे यहाँसे "प्रवासी भारतवासी" नामक पस्तक मँगा कर अवश्य पढ़िए । For Private And Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुछ और भी। २०७ हमारे शास्त्र भी विदेश गमनके कट्टर विरोधी हैं । वे समुद्र यात्राको भारी पाप बताते हैं । किंतु यह भारी भूल ह, क्योंकि " विद्या वित्तं शिल्पं तावन्नाप्नोति मानवः सम्यक् । यावद् व्रजति न भूमौ देशाद्देशान्तरं हृष्टः ।।" इसे भी जाने दीजिए। हमारे पुराणों में अनेक मनुष्यों, देवों, राक्षसों आदिका भारतसे समुद्रों पार विदेशोंमें जानेका साफ तौरसे वर्णन है । फिर यह धार्मिक पचड़ा तो केवल एक वितण्डावाद है, हमें इसकी कोई पर्वाह नहीं करनी चाहिए। __ हा, हमारे लाखों भाई विदेशोंमें हैं, परन्तु वे शर्तबन्दीकी हथक. डियोंसे जकड़ कर भेजे गये हैं--उनका जाना न जाना भारतवर्ष के लिये समान सा ही है । वे बेचारे अपना उदर-पोषण कर लें सोही गनीमत है ! हाँ, यदि कुछ उत्साही, समझदार, लिखे-पढ़े लोग विदेशोंमें जाकर काम करें और नई नई बातें सीख कर भारतमें उनका प्रचार करें तो उनका विदेश-गमन निस्सन्देह सार्थक माना जा सकता है। ___ भारतवासियोंका यह एक मुख्य कर्तव्य है कि उपनिवेशोंसे तथा विदेशोंसे लौटे हुए भारतवासियों के साथ अच्छा. बर्ताव करें, शास्त्ररूपी छुरीसे उनका गला न काटें, उन्हें जातिच्युत कर उन पर वन प्रहार न करें। अब तक इस विषयमें हम लोगोंकी नीति बिलकुल अनु. दार रही है । " फिजीमें मेरे २१ वर्ष " नामक पुस्तकमें पं० तोतारामजी सनाढ्य लिखते हैं:--"कितने ही स्त्री-पुरुष गिरमिट (agrecment) को पूरा करके तथा पाँच वर्ष और रह कर भारतवर्षको लौटना चाहते हैं तो वे इस विचारसे नहीं लौटते कि वहाँ पहुँचने For Private And Personal Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०८ भारतमे दुर्भिक्ष । पर कोई हमें जातिमें तो मिलावेगा नहीं और व्यर्थ ही वहाँ जात्यपमान सहना पड़ेगा, इस लिये मृत्य पर्यंत उन्हें वहीं कष्ट उठाने पड़ते हैं। हमारे देश भाई टापुओंसे लौटे हुए अपने भाइयोंको समुद्र-याबाकी दफा लगा कर जातिच्युत करके उन्हें इतना कष्ट देते हैं कि वे पुनः दुखी होकर टापुओंको लौट जाते हैं और उनका धन जो कि उन्होंने परदेशमें मार-पीट सह कर, अनेक अपमान सह कर और आधे पेट खा-खा कर कौड़ी कौड़ी मुष्किलसे जमा किया है,कुछ तो भाई बन्धु ले लेते हैं और कुछ टकार्थी पुरोहितजी प्रायश्चित्त करानेमें बेदर्द होकर खर्च करवा डालते हैं। अपने देश-बन्धुओंको मैं इसका एक उदाहरण देता हूँ। मेरे घरके पास फिजी टापूमें गुलजारी नामका एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण रहता था । उसने बड़े परिश्रमसे आठ वर्षों में लगभग ३००) रु० संग्रह किये । इसे ब्राह्मण जान कर प्रायः सब लोग प्रति मास पूर्णिमाको सीवे दे दिया करते थे । यह कन्नौजका रहनेवाला था। इसके घरसे इसके भाई ने पत्र में यह लिख भेजा कि तुम चले आओ। यदि इस साल तुम अपने देश नहीं आओगे तो तुम्हें १०१ गऊ मारेकी हत्या होगो । गुलजारीने जब भाईकी लिखी ऐसी शपथ देखी तब ब्राह्मग-धर्म समझ कर वह देशको चला आया। चलते समय लोगोंने इसे कुछ और दक्षिणा दी। जब यह भारतवर्ष में पहुँचा तो दूसरे घरमें ठहराया गया। रुपया पैसा सब भाईको सैंप दिया । तीन चार दिन बाद पुरोहितजी बुलाये गये।ये महाशय कानूनकी पुस्तक साथ लेकर आये । गाँवके बड़े बूढे सब मिल कर बैठे। समुद्र-यात्रा पर विचार हुआ। गुलजारीने घरसे निकलनेसे लेकर फिजीमें पहुँचने तकका For Private And Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir preraman.aniraronmararwarnarrrrammamammmmmmmmmnawwwran.airn.. कुछ और भी। खानपान कह सुनाया । फैसले में सब तीर्थ बतलाये गये, भागवतकी कथा सुननेको बतलाई गई और लगभग पाँच छः गाँवोंको भोजन कराना बतलाया गया। कोई सातसौ या आटसौ रुपयोंके लगभग खर्च करनेका फैसला 'दया गया । गुलजारीने खर्च करनेके लिये अपने दिये हुए रुपये अपने भाईसे मांगे। भाईने कोरा जवाब दिया, जातिवालोंने उसे अलग कर दिया। उसके साथ गांववाले बड़ी घृणा करने लगे। भाई लोग कट्टर शत्रु हो गये और बोले कि तुमने हम लोगोंसे जो रुपया छिपा लिया है वही खर्च करो; यह रुपया तो हम नहीं देंगे । लाचार गुलजारीने फिजीमें अपने इष्ट-मित्रों को, अपनी कष्ट-कहानीकी चिट्ठी भेजी और लिखा कि कसाई के हायसे गाय छुड़ानेके समान मुझे बचा कर पुण्यके भागी बनो । वहाँसे लोगोंने ६००) रु० चन्दा करके भेजा तब गुलजारी अप्रैल सन् १९१४ में फिर फिजी पहुँचा। इसी भाँति कई लोग यहाँसे लौट कर फिज़ी पहुँचे और वहाँ जाकर ईसाई और मुसलमान हो गये । इस समुद्र-यात्राकी धार्मिक दफामें मुजरिम होकर बहुतेरे हमारे भाई अपनी मातृभूमिको अन्तिम नमस्कार करके चले गये हैं।" बड़े बड़े धुरन्धर पंडितोंसे जो समुद्र-यात्राके घोर विरोधी हैं, हम प्रश्न करते हैं कि क्या आप इस प्रकारके अत्याचारोंको धर्मानुमोदित समझते हैं ? यदि नहीं तो फिर बतलाइए कि इन लोगोको पुनः जातिमें मिला लेनेका आपने क्या प्रबन्ध किया है। जो भाई घरके अत्याचारोंसे पीड़ित होकर और नीच आरकाटियों द्वारा बहकाये जाकर विदशोमें भेज दिये गये हैं उसमें उन बेचारोंका क्या दोष है ? For Private And Personal Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२० भारतमें दुर्भिक्ष। ऐसे अन्यायके कई उदाहरण हैं, किंतु हमारा यह विषय नहीं, भत एव विशेष लिखना हम अनुचित समझते हैं । परन्तु हमें देश छोड़ कर विदेश जाना तो दूर रहा, गाँव छोड़ना भी कठिन है । क्योंकि घरके लोग कहा करते हैं-" तुम कहीं न जाओ, हम तो रूखी सूखीसे गुजर कर लेंगे । घरके सब लोगोंको एक जगह मिल कर रहना चाहिए ताकि समय कुसमय, सुख-दुःख में एक दूसरेका संगी रहे; कहींके कहीं पड़े रहना ठीक नहीं, इत्यादि । " सत्य मानिए, ऐसे संकीर्ण विचारोंके कारण ही भारत-वासी वर बैटे गरीब हालतमें गुजर किया करते हैं । यदि भारतमें ही उन्हें कहीं ३०) रु० मासिक मिलता हो तो वे वहँ। कदापि न जावेंगे; घर पर २०) रु० में ही गुजारा करना स्वीकार कर लेंगे। सहस्रों मनुष्य भारतमें ऐसे मिलेंगे कि जिनके तबादले का हुक्म आया कि उन्होंने घर छोड़ कर वहाँ जाना स्वीकार नहीं किया और नौकरीसे इस्तीफा देकर बेरोजगार होकर वे घरमें बैठ रहे। भोजनके लाले पड़ गये, परन्तु घरसे बाहर जाना पाप समझा। जब ऐसी दशा है तो भारतकी श्री-वृद्धि कैसे हो सकती है ? निर्धनता और दुर्भिक्षका कैसे काला मुहूँ हो सकता है ? विदेशी लोगोंके बालक भी समुद्रों पार भारतमें आ जाते हैं और दरिद्र भारतसे मनचाहा द्रव्य पैदा कर अपने देशोंको ले जाते है ! यद्यपि उनके देश दरिद्र नहीं हैं, वहीं उद्योग-धन्धों की कमी नहीं है तथापि वे वहाँसे यहाँ आते हैं; क्योंकि वे इस बातको निश्चय मान चुके हैं कि विदेश-गमन करना मानो अपने देशको धनसे भरना है। इन लोगोंमें एक बड़ी भारी विशेषता यह है कि वे अपने देशसे आकर For Private And Personal Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुछ और भी। यवनोंकी भैाति भारतवर्ष में बस नहीं गये हैं, बल्कि यहाँसे कमा-खा कर अपने देशकी सुधि लेते रहते हैं। उधर विदेशी लोगोंकी यह दशा है तो इधर भारतवासी आमरण एक ही जगह कौओंकी भाँति रह कर अपना जीवन व्यतीत करने में अपने को धन्य समझते हैं, तब भारत दरिद्र क्यों न हो! . जब हिन्दुस्थानकी ऐसी भयंकर स्थिति है तो यही व्यभिचार, नशेबाजी आदि दुर्व्यसनोंकी वृद्धि हो तो आश्चर्य ही क्या ? जब अभ इतना महँगा है और मजदूरीकी दर इतनी सस्ती है कि दिन भर पसीना बहाने पर भी भर पेट अन्न प्राप्त करना कठिन है, बीमारीको दशामें पानीकी भी पूछनेवाला कोई नहीं है, दवा देनेवाला कोई नहीं है, तो उसका फल क्या होगा ? देशमें पापाचरण होंगे, जुआरी बढेंगे, ठग, चोर डाकुओंके दल बनेंगे, नशेबाजोंकी संख्या बढ़ेगी आर व्यभिचारका बाजार गर्म होगा। क्योंकि " कष्टात कष्टतरं क्षुधा ''--भूखसे बढ़कर इस संसारमें कोई कष्ट नहीं है। यह सारा विश्व अपनी क्षुधा शांत करने के उद्योगमें ही लगा हुआ है, इस पापी पेटके भरनेके निमित्त बड़े बड़े घोर पाप तक हो जाते हैं। मौका पाते ही भूख मनुष्यसे अनेक निंद्य और अमानुषिक कृत्य करा डालती है। भारतवर्ष भूखा है, अत एव देशमें नशेबाजी, जुआचोरी, ठगी, व्यभिचार आदि पापोंका मूल कारण एक दुर्भिक्ष है। लोग कहा करते हैं कि “ ईश्वर भूखा उठाता है, किंतु भूखा सुलाता नही "यह बात विचारणीय है, क्योंकि आज भारतवर्षकी करोड़ों संतान--भूखी सोनेकी तो बात ही क्या, बल्कि सदा -सर्वदाके लिये नित्य सो रही है जो कभी न उठेगी! भारतमें दुर्भिक्ष For Private And Personal Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष । wwwmmmmmmmmmmmirmire ने महाप्रलय मचा रखा है। करोड़ों गरीबोंकी ठंडी आहे भारतके पूर्व वैभव और कीर्तिको भस्म कर रही हैं-आज भूखोंके रोदनसे भारतका कोना कोना गूंज रहा है उड़ते प्रभञ्जनसे यथा तप-मध्य सूखे पत्र हैं। लाखों यह। भूखे भिखारी घूमते सर्वत्र हैं ! है एक चिथड़ा ही कमरमें और खप्पर हाथमें । नंगे तथा रोते हुए बालक विकल हैं साथमें । वह पेट उनका पीठसे मिल कर हुआ क्या एक है ! मानो निकलनेको परस्पर हड्डियोंमें टेक है! निकले हुए हैं द॑ात बाहर नेत्र भीतर हैं फँसे । कि न शुष्क आतोंमें न जाने प्राण उनके हैं फैंसे ? अविराम आँखोंसे बरसता आसुओंका मेह है। है लटपटाती चाल उनकी छटपटाती देह है। गिर कर कभी उठते यहाँ, उठ कर कभी गिरते वहीं, घायल हुएसे घूमते हैं वे अनाथ जहाँ तहा ! -भारतभारती। दुर्भिक्ष भारतवासियोंका उसी भाँति संहार कर रहा है जैसे श्रीरामचंद्रजीकी वानरी सेनाका कुंभकर्णने संहार किया था। यह दरिइता ही दुर्भिक्ष, हैजे, प्लेग, ज्वर आदिका भयङ्कर रूप धारण कर भारतका संहार कर रही है। भास्ट्रेलियाके प्रत्येक मनुष्यकी मायका औसत ६००) रु. है और व्यय २८६॥) रु० है, ऐसी दशा में वह ३१३॥) प्रति वर्ष बचा लेता है । अर्थात् वहाँके लोग आनन्दसे खा-पी कर लगभग १) रु For Private And Personal Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुछ और भी। २१३ रोज बचा लेते हैं, परन्तु भारतवासियोंको बचाना तो दूर रहा भर पेट अन खाना भी भाग्यमें नहीं बदा । भारतकी वार्षिक आय औसतसे प्रति मनुष्य १६॥३) है और बहुत जरूरी एवं मामूली खर्च ३०) रु. वार्षिक है अर्थात् प्रत्येक आदमीके लिये १३०) की कमी पड़ती है ! बस हद हो चुकी । यदि आप और हम भर पेट अन्न पा लेते हैं तो उससे तुष्ट न हो जाइए। यहाँ अनेक गावके गाँव भूखों मरते हैं । अनेक वंश दुर्भिक्षने समूल नष्ट कर दिये, अनेकों भारतकी दशा सुधारनेवाले भावी रत्न सदाके लिये उठा लिये। __ भारत भूखों मर रहा है, दुर्भिक्ष सिर पर घूम रहा है, ऐसी अवस्थामें बेसमझे-बूझे संतान उत्पन्न करते चले जाना बिलकुल अनुचित है। बेहद संतानोंका पैदा होना ठीक नहीं। क्योंकि भारतवर्ष में कष्ट बढ़ेगा, दरिद्री बढेंगे, भुखमरोंकी वृद्धि होगी, उत्साह-शन्य पुरुष और अभागी स्त्रिया बढ़ेगी। क्योंकि जन-संख्याकी इस प्रकार निस्सीम वृद्धि होने पर उनके खाने-पहननेको भी चाहिएगा, वे नंगे रह कर वायु भक्षण करके तो जियेंगे ही नहीं। ऐसी दशामें इस जनवृद्धिको रोकने का भी ध्यान होना चाहिए। इसके लिए सबसे उत्तम उपाय एक ब्रह्मचर्य है जो भारतवर्षके लिये सब प्रकारसे उपयोगी है। For Private And Personal Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुर्भिक्ष । ऐसे मनुष्यातीस बता निक्षीको र निस्टर कालिन्सने न्यूजीलैण्डके घोर दरिद्रोंकी दशा दिखा नेके लिये लिखा है कि:" वे ऊँचेसे ऊँचे वृक्ष पर शहदके लिये या छोटी चिड़िया पकडनेके लिये चढ़ जाते हैं।" कहिए क्या भारतमें ऐसे मनुष्योंकी कमी है ! शहद निकालना तो मामूली बात है, हमारे भारतवासी तो तीस पैंतीस गज ऊँचे ताड़ वृक्ष पर भी ताड़ी उतारनेको चढ़ जाते हैं । घोर दुर्भिक्षोंको छोड़ दीजिए, साधारण दुर्भिक्षोंमें, मैंने लोगोंको भूखों मरते अपने कलेजेके टुकड़े, प्राणसे प्यारे अबोध बालकोंको मार कर भून कर खाते देखा है, और थोड़ी देरमें वे भी मर गये हैं। पृथ्वीमेंसे केंचुए निकाल कर खाते देखा है । सापवाले सपेरोंको उनके पेट भरनेके साधन, जिससे वे तमाशा करके पैदा करते थे, भूखों मरते सॉपका सिर और पूंछ काट कर खाते देखा है । वृक्षोंकी छाल कूट-पीस कर रोटी बना कर खाते देखा है। चिऊँटी मकोड़ोंके बिलोंमें, वह घासका बीज और अन्न जो उन्होंने अपने खानेको संचित किया है, लोगोंको उसे खोद कर, निकाल कर खाते देखा है । अपने बालकोंको दो दो तीन तीन रोटियों में बेचते देखा है । " देशदर्शन" नामक पुस्तकके लेखक श्री० ठाकुर शिवनन्दनसिंहजीने लिखा है कि दुर्भिक्षके समय, एक स्त्री एक जगह सड़ी गली लकड़ीमेंसे कीड़े निकाल कर और उन्हें भून कर अपने बालकको खिला रही थी। पूछनेसे पता For Private And Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुर्भिक्ष। . २१५ लगा कि बालक २४ घंटेसे भूखा है और उस स्त्रीके पेटमें तीन दिनसे कोई चीज नहीं पहुँची है। भूखों मरते लोगोंको एक प्रकारका पत्थर पीस-पीस कर खाते देखा है, जिसे खाकर वे भी मर गये । शिव ! शिव ! कैसा भयंकर दृश्य है! बनारसकी ग्रामीण पाठशालाओंको एक बार स्व० मिस्टर कैरहार्डीने अचानक मोटर गाडी द्वारा पहुच कर देखा तो उन्होंने पाठशालाओंके हेडमास्टरोंको एक अत्यंत मैली धोती, जो कई जगहोंसे फटी-पुरानी थी, आधी ओढे और आधी पहने पाया। पूछनेसे मालूम हुआ कि बाजरेका भात, मटरकी दाल और वलोंका शाक भोजन मिलता है । २४ घण्टों में एक बार वे भोजन करते हैं। सायं-प्रातः किसी एक समय चबेना चबा कर क्षुधा निवारण कर लेते हैं । पानीकी छुट्टी हुई तो विद्यार्थी एक भैलीसी पुटलीमेंसे निकाल कर कुछ खाने लगे, यह तो वह अन्न है जिसे पशु और पक्षी खाते हैं । जिसकी पुटलियामें एक गुड़का टुकड़ा है वह एक अच्छे गृहस्थका लड़का है जो औरोंको दिखा-दिखा कर बड़े गर्वके साथ खाता है। वह सबमें अपनेको धनी समझता है। क्या भारतकी यह दुर्दशा देख कर एक देशहितैषीके नेत्रों में दो ऑस नहीं आवेंगे ! स्वर्गीय सर रमेशचन्द्रदत्तने कहा है कि "The Immediate cause of famines is al. most every instance in the failure of rains; but if we honestly seek for the true causes without prejudice or bias we shall not seek in vain. The intensity and the frequency of recent famines are greatly due to the resourceless For Private And Personal Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१६ भारतमै दुर्भिक्ष । condition and the chronic poverty of the cultivators......the poorest and most miserable peasantry on earth." __ अर्थात्-" जब कभी दुर्भिक्ष पड़ता है, तब प्रायः सदा ही उसका कारण पानीका न बरसना होता है। पर हम यदि सत्य भावसे इसका मुख्य कारण ढूँढें तो हम निराश न होंगे। । इस ओर जो इतने कड़े और अधिक दुर्भिक्ष पड़े हैं, उनका कारण किसानोंका सम्पूर्ण निर्धन होना और बहुत पुरानी दरिद्रता है । ये किसान दुनिया भरमें सबसे अधिक निर्धन और विपत्ति-प्रस्त हैं।" लार्ड कर्जनके नाम खुली चिट्ठीमें बाबू आर० सी० दत्त लिखते हैं: “They can save nothing in year of good harvest, and consequently, every year of draught is a year of famine." अर्थात् वे अच्छी फसल में कुछ बचा कर नहीं रख सकते, और इसका फल यह होता है कि जिस साल पानी ठीक तरह पर न बरसा कि बस देशमें दुर्भिक्ष पड़ा।" 'प्रास्परस ब्रिटिश इण्डिया, पृष्ठ १६६ में लिखा है किः "......That he finds slarvation invariably staring him in the face, if any disorder overtakes that little crop which is the only thing which stands between him and death." अर्थात-"कृषकवर्ग कराल कालको हर वक्त अपनी ओर घूरता देखते हैं। जब कभी उनकी छोटीसी खेतोमें कुछ गड़बड़ी पड़ For Private And Personal Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुर्भिक्ष। २१७ जाती है, जो कि उनके और मृत्यु के बीचमें खड़ी रहती है, तो भयंकर काल उनके गले पर सवार हो जाता है।" सर विलियम हण्टर, मिस्टर ए० ओ० हिर्डम, सर आइलैण्ड काल्विन, सर चार्ल्स ईलियट, लार्ड क्रोमर, सर हेनरी काटन, मिस्टर कैरहार्डी, मिस्टर सण्डरलैण्ड और सर जेम्स कार्ड शादि सभी विदेशी सज्जनोंने एक स्वरसे भारतके दुर्भिक्षका प्रधान कारण भारतवर्षकी घोर दरिद्रताको बताया है। मि० माल्थस साहबने लिखा है: “Insufficient supply of food to any people does not show itself merely in the shape of famine. It assumes other forms of distress ar well such as generating evil customs, spreading immorality and vice etc.-' अर्थात्--जब किसी देशके मनुष्योंको भरपेट अन्न नहीं मिलता तब उस देशमें केवल दुर्भिक्ष ही पड़ कर नहीं रह जाते, बल्कि ऐसे देशोंमें तरह तरहकी तकलीफें होती हैं। बुरे बरे रस्म-रिवाज़ फैलते हैं, और व्यभिचार तथा अनाचारकी वृद्धि होती है। पुण्यभूमि, ऋषिभूमि भारतवर्ष में किस प्रकार धीरे धीरे दुर्भिक्ष निशाचरने अपना पैर जमाया, यह निम्न लिखित नकशा देखनेसे स्पष्ट होगा। ११ शताब्दीमें, २ दुर्भिक्ष पड़े। For Private And Personal Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१८ भारतमें दुर्मिक्ष। ८ , सन् १७४५ तक अन अठारहवीं शताब्दीमें सन् १७६९ से लेकर सन् १८०० तक तीन दुर्भिक्ष पड़े जो देशव्यापी नहीं थे। (१) सन् १७०० ई० में बंगालमें । (२) १७८३ ई० में बम्बई और मद्रासमें । (३) सन् १७८४ ई० में उत्तर भारतमें। सन् १७४५ तक ७५० वर्षों में सब मिला कर भारतवर्ष में केवल भठारह दुर्भिक्ष पड़े जो देशव्यापी नहीं थे, स्थानीय या प्रान्तीय ही थे। उन अकालोंमें भी लोगोंको रूपयेका पन्द्रह बीस सेर तकका भन्न खानेको मिल जाता था। __ अब जरा उन्नीसवीं शताब्दीको देखिए । सन् १८०० से सन् १८२५ तक पाँच दुर्भिक्ष पड़े। जिनमें लगभग दस लाख मनुष्योंकी मृत्यु हुई । १८२६ से १८५० तक दो अकाल पड़े, जिनमें पाँच लाख मनुष्य मृत्युके पास हुए । सन् १८५१ से १८७५ तक ६ दुर्भिक्ष पड़े, जिनसे ५० लाख आदमी यमालयमें पहुँचे । सन् १८७६ से १९०० तक १८ दुर्भिक्ष पड़े, जिनमें लगभग दो करोड़, साठ लाख मनुष्य काम आए। इन सौ वर्षोंमें सब मिला कर ३१ दुर्भिक्ष पड़े, और सवा तीन करोड़ भारतवासियोंने भूखों मरते, बिना अन्न छट-पठाते हुए, प्राण परित्याग कर दिये । For Private And Personal Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुर्भिक्ष । २१९ ० ० ० ० ० ० मकालोंसे कितनी हानि होती है इसका अनुमान करनेके लिये सन् १८७७-७८ के एक अकालकी हानिका हिसाब नीचे दिया है सरकारी खर्चमें हानि, ८०,००, ००० पाउण्ड मालगुजारीमें हानि, २५, २०, ००० खेतीकी हानि, ३, ७८, ००, नशेकी वस्तुओंके टेक्समें हानि, २, चुंगीकी आमदनीमें घाटा, नमकके टेक्समें घटी, जेवरोंकी हानि, ९८, ८०, खानेकी चीजोंकी महँगीसे १, ३०,००,००० पशुओंकी हानि. १७, ४९, ५०० , मजदूरोंको हानि, २७, ५०, ००० " कर्ज देनेवालोंकी हानि व्यापारियोंकी हानि १०,००,००० योग ८, २७, ३६, ५०० पाउण्ड इस तरह एक सालके अकालसे ८ करोड़, २७ लाख, ३६ "हजार, ५०० पौंड अर्थात् एक अरब, चौबीस करोड़, दस लाख,सैंतालीस हजार, पाचसौ रुपयेकी हानि हुई, और उसके साथ ही ५० लाख आदमियोंकी हानि हुई । इस हानिका मूल्य क्या रखा जाय, इसका उत्तर पाठक ही दें! दुनियाके किसी देश में न तो इतने लोग भूखों मरते हैं, न दुर्भिक्ष ही पड़ते हैं । जर्मनी, फ्रान्स, अमरीका बादि देश तो दुर्भिक्षका नाम ही भूल गये। पर दरिद्र भारत, जिसे ० ० For Private And Personal Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૨૨૦ भारतमें दुर्मिक्ष । हम लोग ' उन्नत भारत' या 'सुखी भारत' कहते हैं, अकालोंके मारे मरा मिटता है। सन् १७७० ई० से सन् १८७८ तक बड़े भयंकर दुर्भिक्ष पड़े, इनमें यदि १८८९, १८९२, १८९७ और १९०० ई० के अकाल भी मिला दिये जायें तो २२ वोर दुर्भिक्ष होते हैं । जिनका वर्णन सुन कर विदेशी लोग काँप उठते हैं।। . (१) बंगालका अकाल सन् ई०१७७१ ई० । बंगाल प्रान्तको सरकारी नौकरोंने ,तबाह कर दिया था। लोग अत्यन्त दुखी और निर्धन हो गये थे। कोर्ट आफ डाइरेक्टर्सने अपने १७ मई सन् १७६६ के पत्रमें अपने नौकरोंके अत्याचारों पर शोक प्रकट किया था " The corruption and rapacity of our servants " देखिए । सरकारी कर्मचारियोंने वूम-घूम कर जाँच की तो पता लगा कि बंगाल प्रान्तके मनुष्य इस दुर्भिक्षमें मरे, मृत्यु-संख्या एक करोड़ थी। । (२) मद्रासका अकाल सन् १७८३ ई. । मत्युका ठीक अन्दाजा नहीं लगाया जा सका। (३) उत्तर भारतका अकाल सन् १७८४ । भयंकर दुर्भिक्ष था। गाँवके गाँव उजाड़ हो गये। बनारसराज्यमें लोग इतने मरे कि खेती बन्द हो गई। मृत्युका ठोक भन्दाज नहीं। (४) बम्बई और मदासका अकाल सन् १७५५ । » Famines in India. For Private And Personal Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुर्भिक्ष। मृत्युका ठीक अनुमान नहीं किया जा सका, परन्तु भयानक दुर्भिक्ष था। (५) बम्बईका अकाल सन् १८०३ । बम्बई सरकारने दूरसे अन्न मँगा कर एक नियत भाव पर सर्वसाधारणको दिया और बहुत लोगोंकी Relief work द्वारा सहायता की । मृत्यु संख्या ठीक ठीक मालूम नहीं हुई। (६) उत्तर भारतका दुर्भिक्ष सन् १८०४।' सरकारने खूब सहायता दी। बहुतसी मालगुजारी मुआफ कर दी। काश्तकारोंको ऋण दिया और प्रयाग, कानपुर, बनारस आदि नगरोंको जो अन्न गया उस पर कुछ Bounty या एक प्रकारको सहायता दी। (७) मद्रासका अकाल सन् १८०७ । घोर दुर्भिक्ष था। सरकारने सहायता की, अन्न खरीद कर सस्ते भाव पर बेचा और लोगोंके प्राण बचाने में सहायता दी। (८) बम्बई का अकाल सन् १८२३ । सरकारने अन्न पर कुछ Bounty या एक प्रकारकी सहायता दी। (९) मद्रासका अकाल सन् १८२३ । सरकारने थोडीसी सहायता की। (१०) मद्रासका अकाल सन् १८३३ । गंटूर जिले के ५ लाख निवासियोंमेंसे प्रायः दो लाख दुर्भिक्षकी भेट हुए । मद्रास और नीलोरकी सड़कों पर दुर्भिक्षसे मरे मनुष्यों के शव पड़े रहते थे। For Private And Personal Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२२ भारतमे दुर्मिक्ष। (११) उत्तर भारतीय दुर्भिक्ष सन् १८३७ । कानपुर, फतहपुर और आगरा आदि स्थानोंमें मुदाके फेंकनेका खास प्रबन्ध करना पड़ा कि जो लाशें सड़कों पर पड़ी हों वे तुरन्त फेंक दी जायें। कभी कभी इतने मनुष्य मर जाते थे कि लाशें सड़कों पर ही पड़ी रह जाती थीं और उन्हें जंगली जानवर आकर खाते थे । आठ लाख भारतवासी कालके गालमें गये । (१२) मद्रासका अकाल सन् १८५४ । नौ महीने तक Relief work चलते रहा। (१) उत्तरीय भारतका दुर्भिक्ष सन् १८६० । पैंतीस हजार मनुष्योंको Relief work द्वारा और अस्सी हजारको खैराती मदद नौ महीनों तक मिलो। तो भी दो लाख भादमी मरे। (१४) उड़ीसाका दुर्भिक्ष सन् १८६६ । ४२ हजार मनुष्योंकी, १६ महीने तक सहायता की गई, तो भी ४२ लाख आदमी मर गये । सरकारने दो लाख अस्सी हजार मन अन्न पहुँचाया तो भी उड़ीसामें दस लाख आदमी मरे । (१५) उत्तर भारतका दुर्भिक्ष सन् १८६९ । पैंसठ हजार आदमी Relief work पर काम करते रहे और १८ हजारको खैराती सहायता दी गई । इतने पर भी बारह लाख आदमी मृत्युके ग्रास हुए। (१६) बंगाल का अकाल सन् १८७४ । For Private And Personal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुर्भिक्ष। २२३ सात लाख पैंतीस हजार मनुष्य रिलीफ वर्क द्वारा और ४ लाख मनुष्य खैराती मददसे पले । इस वर्ष सरकारी प्रबन्ध इतना अच्छा था कि दुर्भिक्षसे एक भी आदमी नहीं परने पाया ! (१७) मदासका अकाल सन् १८७७ । यहा बंगाल प्रान्तके विपरीत हुआ। उधरकी कसर इधर निकाल दी गई । सर रिचर्ड टेम्युलने यह कह कर मजदूरी घटा दी कि सरकारका फर्ज भर पेट अन्न देना नहीं, बल्कि वह उतना ही अन्न देगी जिससे लोगोंका पेट न भरे, परन्तु प्राण बच जावें । आखिर दो लाख, इक्कीस हजार आठसौ मनुष्योंको अव-पेट सहायता दी गई और ५० लाख भारतवासी काल-कवलित हुए। (१८) उत्तरी भारतका दुर्भिक्ष सन् १८७८ । १२७५० मनुष्योंको अनाथालयोंसे और ५ लाख ५७ हजारको Relief work द्वारा सहायता दी गई । प्रबन्ध ठीक न होने के कारण १२६ लाख मनुष्य मृत्युके ग्रास हुए । (१९) मद्रासका अकाल सन् १८८९ । सहायता दी गई किंतु लोग अधिक मरे । (२०) मद्रास, बंगाल, वर्मा और अजमेरका दुर्भिक्ष सन् १८९७॥ यह अकाल बहुत भयंकर था। सहायता की गई । बंगाल में मृत्यु नहीं हुई, परन्तु मद्रासमें बहुत मरे । (१) उत्तर पश्चिम प्रान्त, बंगाल, वर्मा, मद्रास और बम्बईका दुर्भिक्ष सन् १८९७ । __जितने दुर्भिक्ष भारतमें पड़े यह उन सबोंसे भयानक और कठोर था । इसका प्रभाव समस्त भारत पर पड़ा था। ३० लाख For Private And Personal Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२४ भारतमे दुर्भिक्ष । मादमियोंकी सहायता की गई । मध्यप्रदेशके अतिरिक्त सर्वत्र सुप्रः बन्ध रहा। इस कारण दुर्भिक्षका रूप देखते मौतें अधिक नहीं हुई। (२२) पंजाब, राजपूताना, मध्यप्रदेश और 'बम्बईका अकाल सन् १९००। __ यह भी भारतके अकालोंमें बहुत बड़ा अकाल था। ६० लाख भादमी Relief work पर थे, तो भी मौतें बहुत हुई। आज बीसवीं शताब्दीको आरंभ हुए अभी बीस वर्ष ही बीते हैं, परन्तु प्रायः प्रति वर्ष ही सार्वभौम नहीं तो प्रान्तिक या स्थानीय दुर्भिक्ष भारतमें बना ही रहा है, उत्तरोत्तर दुर्भिक्षने सुरसा राक्षसीकी भाँति अपना कराल मुख पसारना आरंभ कर दिया है। देशमें दुर्भिक्ष सर्व-संहारी रुद्र रूप धारण कर यत्र तत्र घोर ताण्डवनृत्य कर रहा है। इतने पर भी हम बेसुध, अचेत पड़े हैं। जब जब अकाल पड़ हमारी सरकारने हमें सहायता दी, किन्तु जितनी चाहिए उतनी नहीं ! हम बंगालके १८७४ ई० वाले दुर्भिक्षके सुप्रबन्धको देख कर जितने प्रसन्न हुए, उससे कई गुना दुःख सन् १८७७ के मदरासवाले दुर्भिक्षका कुप्रबन्ध देख कर हु । राजा हरिश्चन्द्रके समयमें लगातार उनके राज्यमें १२ वर्ष तक दुर्भिक्ष पड़ा, तब राजाने अपने भोजन बनानेके पात्र तक बेच कर प्रजाकी रक्षा की थी। राजा स्वयं सकुटुम्ब भूखे बैठे थे कि महर्षि विश्वामित्रने आकर द्रव्यकी इच्छा प्रकट की, जिसके कारण राजाने अपनी रानी और पुत्र सहित कितने कष्ट पाये यह बात प्रत्येक भारतवासी जानता है । हमें अब भी भारतके लिये वैसे ही शासकोंकी आवश्यकता है जो प्रजाके हितके लिये अपने प्राण तक सम For Private And Personal Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुर्भिक्ष। २२५ र्पण करनेको उद्यत हों। हमें सर रिचर्ड टेम्युल सरीखे दुर्भिक्षके सगे भाई, अन्याई महाप्रभुओंकी आवश्यकता नहीं है, जिन्हें भारतकी दशाका ज्ञान तक भी नहीं होता । न जाने हमारी सरकार क्यों बिना सोचे-समझे ऐसे निर्दय, पाषाण-हृदय, भारतकी स्थितिसे निपट अज्ञान पुरुषोंको भारतमें शासक बना देती है ! कहते हैं एक बार, ( अँगरेजोंके शासनके पूर्व ) भारतमें दुर्भिक्ष पड़ा, तब तत्कालीन नरेशने प्रजाकी सहायताके लिये यह उत्तम उपाय सोचा कि दिनमें मजदूर-पेशा लोग मजदूरी लेकर एक इमारत तैय्यार करें, और इज्जतवाले मनुष्य जो इमारत बनाना नहीं जानते, और सबके सामने मजदूरी करना अपनी कम इज्जती समझते हैं और माँग कर भी नहीं खा सकते, रातको उस इमा. रतको फोड़ कर मजदूरी ले आवें। इस प्रकार दोनों प्रकारके लोगोंने अपने दुर्भिक्षक दिन आनन्द-पूर्वक बिता दिये ! __ आजकाल हमारी ब्रिटिश सरकार भी चाहे तो भारतवासियोंकी दुर्भिक्षसे रक्षा कर सकती है। ऐसे समयमें जब कि मजदूर बहुत और सस्ते मिलते हों, सरकारको उनसे ऐसे ही काम कराने चाहिए जिनसे देशमें दुर्भिक्षकी कमी हो। जैसे नहर, कुएँ और तालाब खुदाने का काम । ये काम इतने अच्छे हैं कि कामका तो काम हो जाये और अनावृष्टिके समय दुर्भिक्षके दिन दृष्टि गोचर न हों। भारतवर्ष में आज तक बहुतसे रकबे बिना आबपाशीके पड़े हैं। सरकारका जितना ध्यान रेल-पथके विस्तारकी ओर है उतना नहरोंकी ओर भा होना चाहिए, ताकि भारतमें अनावृष्टि द्वारा दुभक्षि पड़नेका भय सदाके लिये दूर हो जाये । इससे गवर्नमेंटको लाभ For Private And Personal Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्मिक्ष । भी खूब हो सकता है । हम सन् १९१० का नहरोंका हिसाब नीचे लिखते हैं: प्रान्त, मुनाफा नहरों में लगी पूंजी, सींचा गया रकबा, . फीसदी पंजाब और पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त | ११० लाख पाउण्ड ६० लाख एकड़ युक्त प्रदेश और अवध ७६ मदरास बंगाल और बिहार बम्बई और सिंघ समग्र ब्रिटिश भारत ५८ ४७ , ये नहरें पर्याप्त नहीं हैं, अभी देशमें नहरोंकी बड़ी ही आवश्यकता है। सरकारको ऐसे कामको शीघ्र ही और अवश्य ऐसे समयमें कराना चाहिए। भारत-सरकार कर तो सब कुछ सकती है, परन्तु उसे करना अभिष्ट हो तभी न ? क्योंकि वह तो खासा उत्तर रखता है कि: “We are not responsible for the poverty of the country, we are not responsible for the occurence of famine. If God does not send rain For Private And Personal Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुर्भिक्ष । २२७ we cannot help it. If plague spread out in spite of the preventive measures adopted by Government, the Government is helpless. So will poverty femine and plague. We have given you peace, we have given you Railways, what more do you want? We are certainly not responsible for the calamity." " सारांश यह कि अगर ईश्वर जल न बरसावे तो हम इसमें क्या कर सकते । तुम्हें हमने शान्तिसे रहने दिया, रेल दी, अब अधिक क्या चाहते हो ? हम किसीकी आफतके अलबत्ता जिम्मेवार नहीं हैं । यही बात दरिद्रता, दुर्भिक्ष, प्लेग आदि सभीके विषयमें है " आप ही कहिए क्या यही उचित है ? समस्त भमण्डलके देशोंकी शासनप्रणाली उस देशकी उन्नतिका मूल कारण मानी जाती है, फिर क्या भारतमें वैसा ही शासन है जैसा कि होना चाहिए ? यदि सरकार और कुछ नहीं कर सकती है तो कमसे कम शासनमें भी तो सुधार करे, फिर हम देख लेंगे कि दुर्भिक्ष कैसे पड़ते हैं । शासनका उत्तम और लाभदायक प्रबन्ध करना आपका काम है, हमारा नहीं । साम्पत्तिक सवाल हम लोगोंसे हल नहीं होगा, और यदि हमी इन प्रश्नोंको हल करने लग जायें तो फिर सरकार किस लिये है ? यदि हमारे देशमें सुवर्षा हो और रोग-शोक समूल नष्ट हो जायें तो आपकी और डाक्टरोंकी आवश्यकता ही क्या है ? सरकारका कर्तव्य इस प्रकार बेईमानीसे इन्कार करना नहीं, बल्कि उसको दूर कर देशको उन्नत बनाना होना चाहिए । इंग्लैण्डकी ही बात लीजिए, आप जानते ही हैं कि वहाँ अन्नका सदा दुर्मिक्ष For Private And Personal Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२८ भारतमें दुर्भिक्ष । रहता है । वहाँके निवासी अपने अन्न द्वारा केवल तीन महीने पेट भर सकते हैं ! यदि वहाकी प्रजासे भी सरकार कहे कि "हम तुमको सहायता नहीं दे सकते, क्योंकि भूमि उपजाऊ नहीं है। इससे केवल तीन महीने का खर्चा चलता है, इस लिये तुम लोग बाकी नौ महीने निराहार रहो । " तब वहाँकी प्रजा क्या कहेगी ? वहाकी प्रजा स्वाधीन विचारोंकी है, वह तुरन्त सरकारके विरुद्ध हो जावेगी और मंत्रि-मंडलको पदत्याग करनेको विवश करेगी। वह कह देगी "If you cannot give food for twelve months you had better resign, and we shall have another ministry and another Parliament.” अर्थात्-यदि तुम हमें वर्षभरका भोजन नहीं दे सकते तो तुम्हें चाहिए कि अपने अपने पदोंको त्याग दो, हम दूसरे मंत्रिमंडल अथवा पार्लियामेंटकी योजना कर लेंगे-" इत्यादि । सन् १९०० के बाद आज तक नित्य ही अकाल पड़ते चले आ रहे हैं। सन् १९१८-१९१९ का कराल दुर्भिक्ष आप देख चुके हैं, ऐसी अभूत-पूर्व महँगी आज तक नहीं देखने में आई थी। कोई वस्तु, ऐसी नहीं जिसकी दुगुनी चौगुनी कीमत न हो गई हो। यहाँ तक कि रेल भी महँगी हो गई, उसके भाड़ेमें भी वृद्धि हो गई । तार, डाक सभी महँगे हो गये । कैसा भयंकर समय है ! पशुओंके लिये तण भी अत्यन्त महँगा मिलता है। भारतके प्राणियोंको, क्या मनष्य, क्या पशु-पक्षी, सभीको अपने जीवन में सन्देह है। इस विषयमें हम यहाँ कुछ समाचार-पत्रों में प्रकाशित लेख पाठकोंके For Private And Personal Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुर्भिक्ष। २२९ आगे रखेंगे, जिससे हमारे पाठकोंको इस वर्तमान महा भयंकर दुर्भिक्षका पता लग जायेगा। इस विषय में प्रायः सभी पत्रोंने लिखा है तथापि हम २-४ प्रसिद्ध पत्रोंके दुर्भिक्ष-क्रंदनको यहाँ लिखेंगे। "हिन्दी समाचार " दिल्ली ता. २४ सितम्बर १९१८ ई० के अंकमें लिखता है ?. सभी चीजें बेहद मँहगी हुई हैं, पर अनाजकी महँगीके कारण हमारे देशवासियों के कष्ट बहुत बढ़ गये । पिछले सौ वर्षोंमें जितना महँगा कभी नहीं हुआ था उतना अब हुआ है। उत्तर भारतमें पाँच सेर और दक्षिगमें अढाई सेरका अनाज है। बड़े बड़े शहरों में अकालका स्वरूप कुछ भी दिखाई नहीं देता--पर साधारण गाँवों और किसानोंकी बस्तियों में जाकर देखिए, बिना अन्न वहाँ हाहाकार मच रहा है। दिन रातमें एक बार भी जिनको भर पेट खानेको नहीं मिलता, उनकी तकलीफोंका अंदाजा मोटरों पर सैर करनेचाले अफसरोंकी अकलमें नहीं समा सकता। इस अकालका सबसे पहला कारण हिन्दुस्तानका अनाज यहाँसे बाहर भेजा जाना है। पिछले तीन सालमें जितना अनाज इस देशसे बाहर भेजा गया है उतना पहले कभी नहीं भेजा गया था। सरकारने अनाज पर कंट्रोल कर रक्खा है और रेलीबादरकी मारफत उसने देशका अनाज बहुत कुछ अपने हाथमें ले लिया है। हम बार बार कहते रहे हैं कि हम सरकारके अनाज बाहर भेजने का विरोध नहीं करते, वह लड़नेवालोंके लिए रसद भेजे, पर ३० करोड़ आदमियों के ३६० दिनके खाने लायक अनाज छोड़ कर बाकी जो हो वह भेजे । सरकारने ऐसा नहीं किया। एक विद्वानका कहना है कि इस समय जितना For Private And Personal Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष । अनाज देशमें है वह यदि सबको बराबर बाट दिया जाय, तब भी कई महीने लोगोंको निराहार रहना होगा । यानी अनाज कम और खानेवाले जियादा हैं। अकालका मुख्य कारण रेलोंका किराया बढ़ाना है। रेलोंकी आमद पिछले बरसोंसे अब दुगनी और तिगुनी है। जरूरी माल अधिक किराया देकर भी एक जगहसे दूसरी जगह भेजना ही पड़ता है । इस लिये रेलवेकी आमद तो बढ़ गई, पर किराया अधिक पड़ जानेके कारण चीजें महंगी हो गई। इस समय देशकी तमाम रेलवे लड़ाई के सबबसे सरकारके हाथमें है और सरकारके हाथमें होते हुए किराया बढ़ा इस लिये सरकार ही इसकी भी जिम्मेदार है । बिना सरकारकी आज्ञाके रेलवे बड़ी तादादमें माल नहीं लेती और अनाज तो एक जगहसे दूसरी जगह लादती ही नहीं। जो लादती है उस पर इतना जियादा किराया लगाया जाता है कि अनाजकी आधी कीमत किरायेके सबबसे ही बढ, जाती है। यानी एक तो पिछले तीन साल की सरकारी खरीदके कारण देशमें अनाज ही कम है, दूसरे जो कुछ है उसे रेलवे महँगा कर रही है। इस समय आवश्यकता है कि सरकार रेलवे पर अपने कब्जेका फायदा न उठा कर एक या डेढ आने मन किराये पर रेलवे द्वारा अनाज भेजना शुरू करे। अभी बम्बई और पूनेकी म्युनिसिपैलिटियोंने सस्ती दर पर अनाज बेचनेका इन्तजाम किया था, पर जहाँसे उन्होंने अनाज खरीदा वहाँसे रेलवे लाद कर लाई ही नहीं। अन्तमें मजबूर होकर उन्हें अपनी दुकानें उठा देनी पड़ी। पर इस तरफसे आँख मींचनेसे सरकार और देश दोनोंहीका कल्याण नहीं है । अकालका तीसरा कारण पानीका कम बरसना है। इस For Private And Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुर्भिक्ष । २३१ साल देशमें एक तरहसे सूखा पड़ा है। सूखा अकाल पानीके अकालसे बड़ा भयानक होता है। अधिक पानी बरसनेसे जो अकाल होता है उससे फिर भी रबीके होनेकी उम्मीद होती है, पर सूखेके कारण खरीप तो बिगड़ ही जाती है, पर जमीन सूखी होनेके कारण रबीकी भी आशा नहीं होती। यानी सूखा अकाल दोनों फसलोंका घातक होता है और इस समय हिन्दुस्तानके सामने वही घातक अकाल है । इसका निवारण नहरोंसे हो सकता है। पर सरकारने पिछले पचास बरसोंमें जितना जियादा फौजी खर्च बढ़ाया उसका चौथाई भी प्रजाको भूखों मरनेसे बचानेवाली नहरोंको बढानेमें खर्च नहीं किया। देशकी शान्ति और सुव्यवस्था इसमें है कि प्रजा भूखों न मरे, पर सरकार यह समझती रही है कि शान्ति और सुव्यवस्था बड़ी जंगी फौज रखनेसे होती है, इसी लिए हमारी सरकारने शान्तिके समय भी इतनी जियादा फौज रक्खी कि उसकी चौथाई भी दूसरे देश नहीं रखते । इस बढ़े हुए फौनी खर्चके मारे हम पर खासा टैक्स लगता रहा और नहरों आदिके लिए एक पैसा भी सरकारके हाथ न बचा । सरकारने चाहे जान कर किया या उससे अनजानमें हुभा, पर देश भूखा हुआ है और तकलीफें बढ़ी हैं। ऊपर लिखे तीनों कारणोंने मिल कर प्रजाको इस हालतमें ला डाला है कि वह कलकत्ते और मदरासमें दंगे, लूट और झगड़े करने पर उतारू हुई । मदरासमें तो साफ ही अनाजकी मॅहगीसे तंग आकर लोगोंने लूट की और बड़े बड़े विचारजोका कहना है कि कलकत्तेका यह भारी दंगा भी मैंहगीका फल है । जो मँहगीके कारण लोग पहलेसे तंग न होते तो सभा For Private And Personal Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३२ भारतमे दुर्भिक्ष । बंदीसे वे लूट करने पर आमादा न होते। यही नहीं चारों ओरसे कई छोटी मोटी हाटों और दूकानोंके लुटनेकी खबर आ रही है और देहातों में लूट-मार तथा चोरीकी तादाद दिन पर दिन बढ़ रही है । जो इस मँहगीका कोई इलाज न हुआ तो देशके भीतर शान्ति बनी रहना असम्भव है । देश में पूरी शान्तिकी जरूरत है । देश के भीतरकी अशान्ति आगकी चिंगारीका काम देती है । रूसकी जो हालत हुई यह वहाँ के लोगों की तंगीके बेहद बढ़ जाने से हुई थी। लोग जारसे बराबर प्रार्थना करते थे। आखिर सबका यह विश्वास हुआ कि जार और उनकी सरकार ही हमारे कष्टोंकी कारण है । इसी गलत खयालीके कारण वहाँ बलवा हुआ जिसमें जार और उनकी सरकार पकड़ी गई | मतलब देशके भीतरकी अशान्ति आगकी चिंगारी है। इन दोनों में से बिना एकको मिटाये काम नहीं चल सकता | हमारे देश में हर एक चीजकी बेहद मँहगी और खास कर अनाजकी कमीसे प्रजामें भशान्ति बढ़ चली है और साथ ही लड़ाई भी हमारी ओर बढ़ रही है। ऐसी हालत में इसकी उपेक्षा करनेसे काम नहीं चल सकता । अकाल हो गया और यह अकाल कितना नाजुक है सो हम ऊपर बता चुके हैं। अब सरकारको क्या करना चाहिए जिससे यह नाजुक हालत मिटे और लड़ाई में विजय हो । सबसे पहले तो सरकारको उस स्वार्थत्यागके करने की जरूरत है जो वह प्रजासे करनेको कहती है । हमारे देशकी यह हालत है कि लाखों मनुष्य चिना अनाज भूखों मर रहे हैं, पर सरकार दान-पुण्य करने में लगी है । पहला दान सरकारने वलायतको डेढ़ अरब रुपयेका दिया । For Private And Personal Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुर्भिक्ष। २३३ दूसरा दान सड़सठ करोड़का है। पहले दानका रुपया हमारे देशके कर्जकी शकलमें वसूल किया गया और दूसरे दानका रुपया लड़ाईका टैक्स लगा कर वसूल किया जायगा। यदि इतनेसे ही देशका पीछा छूट जाता तब तो कुछ कहने की जरूरत ही न थी, पर लड़ाईका खर्च भी इसी देशको उठाना पड़ेगा और इस खर्चको पूरा करने के लिये यहाँ हर तरहके टैक्स बढ़ाये और नये नये लगाये जायेंगे। पर हिंदुस्तानको जो हालत है उससे हमें उम्मीद नहीं कि यह तमाम खर्च इस देशसे निकल सकेगा-ऐसी हालतमें भविष्यमें हिन्दुस्तानकी सरकार इंग्लैंड, अमेरिका या जापानसे लड़ाईके लिये कर्ज लेगी। यह कर्जकी रकम अरबों रुपये की होगी और उसका बड़ा भारी सूद इस देशसे टैक्सोंके जरियेस अदा किया जायगा । जब भविष्यकी यह हालत दोख रही है तब हम अपनी सरकारके सवा दो अरब रुपये दानकी प्रशंसा कैसे कर सकते हैं ! इस नाजुक हालतको मिटाने के लिए सबसे पहला यह उपाय है कि हमारी सरकार अपने देशवालोंको भूखा मार कर दान-पुण्य न करे । क्योंकि इतनेसे रुपयेसे इंग्लैंडका उतना उपकार नहीं होगा जितना हमारा नाश हो जायगा। यदि सरकारने इतना दान न किया होता तो अगले दो साल तकके लिए लड़ाईके खर्चके लिए रुपया काफी होता और नया टैक्स लगा कर देशको निचोनेकी जरूरत न होती। देशमें शान्ति स्थापित करनेका दूसरा उपाय यह है कि सरकार इस देशसे एक पैसे का भी अनाज बाहर भेजनेके लिए न खरीदे और न किसीको बाहर भेजने दे । हम यह मानते For Private And Personal Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३४ भारतमें दुर्मिक्ष। हैं कि सरहद, मेसोपोटामिया, बसरा आदिकी दस लाख हिन्दुस्थानी फौजोंके लिए खाने-पीनेकी जरूरत है और सरकारको उनको भोजन देना अधिक जरूरी है। पर सरकार बड़ी आसानीसे इसका दूसरा इन्तजाम कर सकती है। और वह याह कि मिसर, यूनान तथा चीन जहाँकी फसल अच्छी है वहाँसे खरीद कर फौजी जरूरत पूरी करे। साथ ही हिन्दुस्तानका खरीदा हुआ जो अनाज सरकारके कब्जेमें है वह हिन्दुस्तानी म्युनिसिपल कमेटियोंको इस शर्त पर खरीदके भाव बेच दे कि म्युनिसपिल कमेटियाँ उसे सस्ती दर पर गरीबोंको दें। इस उपायको काममें लाते हुए सरकारको सिर्फ इस बातमें उन होगा कि हिन्दुस्तानसे बाहर अनाजका भेजना कानूनन नहीं रोक सकती । पर यदि सरकार कानूनन अनाजका बाहर जाना न रोकेगी तो देशमें शान्ति रहना भी असम्भव है ! देशमें अकालको रोकनेका तीसरा उपाय प्रजाके लिए अनाजका कंट्रोल किया जाय और कपड़े की तरह घातकी बिल न बना कर ऐसा कुछ किया जाय जिससे प्रजाको अनाज मिले । इसका सबसे अच्छा ढंग यह है कि बाहर जाना रोक कर यह कानून कर दिया जाय कि एक खास तादादसे अधिक अनाज कोई व्यापारी दो सप्ताहसे अधिक अपने स्टोकमें न रक्खे । और अनाजका सट्टा रोकनेके लिए लाइसैंस मुकरिर किये जायँ, जिनसे सिवाय अनाजका व्यापार करनेवालोंके और कोई सट्टा न बनावें । अकालको रोकनेका चौथा उपाय रेलों द्वारा अनाजका एक स्थानसे दूसरे स्थान कम दर पर भेजा जाना है । इस समय रेलें सरकारी कंट्रोल में हैं For Private And Personal Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir n h - AA... दुर्मिक्ष । ૨૩ और देशमें शान्ति स्थापित करना सरकारके लिए सबसे अधिक आवश्यक हो गया है। इस लिये अनाजका किराया एक स्थानसे दूसरे स्थान पर भेजने में की मन आने डेढ़ आनेसे अधिक न लिया जाय। इन चारों उपायोंको पूरी तरहसे अमलमें लाने पर देशसे अकालका भय बहुत कुछ मिट कर पूरी शान्ति स्थापित हो सकती है। इनके बिना न तो शान्ति होगी और न तकलीफोंसे लोगोंका छुटकारा होगा। यह माना कि देश की म्युनिसिपैलिटियाँ यदि सस्ते अनाजकी दूकानें खोलेंगी तो कुछ सहारा मिलेगा, पर देशके बड़े भारी हिस्से में म्युनिसिपैलिटिया ही नहीं हैं। फिर जो थोडीसी हैं। उनमें बहुतोंकी हालत अच्छी नहीं है--जिनकी हालत अच्छी है और जो सस्ती दूकानें खोलेंगी भी उनसे मुलाहजगीरों और म्युनिसिपिल मेम्बरोंके दोस्तोंके सबबसे जितना फायदा पहुँचना चाहिए उसका दसा हिस्सा भी न पहुँचेगा। मतलब म्युनिसिपैलिटिया देशका अकाल नहीं मिटा सकतीं। देशकी हालत ऊपरवाली बातोंसे ही कुछ सुधर सकती है। यदि सरकारको प्रजाका कुछ खयाल है और वह सचमुच प्रजाकी तकलीफें दूर करना चाहती है तो इस ओर पूरा ध्यान दे। “ उत्साह " उरई ता० २७ सितम्बर १९१९ में लिखता है। चारेकी इतनी कमी पड़ गई है कि यदि शीघ्र प्रबन्ध न किया गया तो५० फीस दी पशुओंके मर जानेकी सम्भावना है। मनुष्योंकी कमी, दैवका कोप, और कर्मचारियोंकी असावधानी ही इस दुर्गतिके कारण हैं । पेटकी रक्षा सबसे प्रधान रक्षा है। भारत ऐसे कृषि-प्रधान देशमें यह कोई शोभाकी बात नहीं कि यहाँवाले तो. For Private And Personal Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३६ भारतमे दुर्भिक्ष । -भूखों मरें और विदेशों के दुःख मोचनके लिये लाखों मन गेहूँ जहाजोंमें लाद कर बाहर भेज दिया जाय । मद्रास और बंगालमें अनकी - कमी के कारण लूट-मार हो चुकी है। वह इस भयंकर स्थितिका *पष्ट परिचय दे रही है । आवश्यकता है कि भारत सरकार आँख - खोल कर इस विषय पर विचार करे । न्याय यह है कि तीस करोड़ भारतवासियोंके लिये आवश्यक अन्न देशमें रख कर यदि बचे तो बाहर भेजा जाय । 6 पाटलिपुत्र " बाँकीपुर आश्विन कृष्ण ९ सं० १९७५ के - अंक में लिखता है कि वर्तमान यूरोपीय महायुद्धने यूरोप में ही नहीं; बरन् समस्त संसा रमें जो हलचल पैदा कर दी है, जिस प्रकार से संसारकी जनता अनेक कष्ट सह रही हैं, उसका विशेष वर्णन करना अनावश्यक है । यूरोपमें युद्ध हो रहा है । अतः वहाँ की सर्व साधारण प्रजा जो कष्ट सह रही है, वह अनिवार्य है; पर हम देख रहे हैं कि जिन देशों में युद्ध नहीं, वे देश भी आज उक्त युद्धके कारण विशेष कष्ट सह रहे हैं। यूरोपको छोड़ कर एशियाई देशों में जो दुःख इस समय भारत झेल रहा है, उसकी तुलना अन्य देशोंसे नहीं हो सकती । निव्यके व्यवहार में आनेवाली प्रायः सभी चीजें इस समय ऐसी महँगी हो गई हैं और होती जा रही हैं कि भारतीय सर्व साधारण प्रजाको लज्जा और क्षुधा निवारण करना बड़ा ही दुस्साध्य हो पड़ा हैं 1 रूई इस समय आठ छटाककी बिक रही है; लोहा, तांबा, पीतल, राँगा, जस्ता, शीशा आदि धातु और उपधातुओंकी महँगी तो वर्षों से दुःख पहुँचा रही है । कपड़े की महँगीने जो अपार कष्ट भारतीयोंको 7 1 For Private And Personal Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुर्भिक्ष । २३७. दे रखा था, वह किंचित् भी कम होने नहीं पाया कि इधर तीन महीनोंसे खाद्य पदार्थों की नित्यकी बढ़ती हुई महँगीने इस समय सर्व-साधारणको एक बारगी ही विचलित कर दिया है। हम जानते हैं कि वर्तमान यूरोपीय युद्ध में विजय प्राप्ति होने पर भारतको अनेक दुःखोंसे छुटकारा मिलेगा। वह अपने साम्राज्यका रक्षण रखता हुआ अपने मनोभिलषत पदको पायेगा, और इसी आशा-भरोसेके बल पर भारतने वर्तमान युद्ध में ब्रिटिश सरकारको अपार सहायता पहुँचाई है; पर जब हम देखते हैं कि भूखके मारे देशकी गरीब और साधारण स्थितिवाली प्रजा आज एक चारगी विह्वल हो उठी है, उसे पेटके कष्टके निवारण करने के लिये एककी जगह दो-दो तीन-तीन खर्च करने पड़ते हैं, तब उसकी इस अवस्थाको देख विशेष कष्ट होता है । लोहा, पीतल आदिकी महँगी सही जा सकती है, कपड़ेकी महँगी भी उस प्रकारका दुःख नहीं दे सकती, जितना कि खाद्य पदार्थोकी महँगीसे प्रजा दुःख उठाती है । लोहा, पीतल प्रभृति बिना अत्यावश्यक कार्यके हम नहीं खरीदते, धोतीकी जगह गमछेसे लोग काम चला सकते हैं, नंगे बदन रहते हुए भी केवल लंगोट बाँध कर गरीब परुष लज्जा निवारण कर सकते हैं । पर अन्नकी कमी किसी अवस्थामें भी सही नहीं जा सकती। पेटके दुःखके सामने कोई दुःख टिक नहीं सकता । फलतः इस समय अन्नकी दर जिस रीतिसे नित्य बढ़ती जा रही है, उसे देख विचारशील मात्रको विशेष चिन्तित होना पड़ा है। __ लड़ाई के कारण जो वस्तुएँ महँगी हुई हैं, उनकी महँगी बिना युद समाप्त हुए पूर्णमात्रामें घट नहीं सकती। पर जिन वस्तुओंका For Private And Personal Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३८ भारतमें दुर्भिक्ष । लड़ाईसे कोई विशेष सम्बन्ध नहीं, वे भी इस समय महँगी होती जा रही हैं । लोहा आदि धातुओंके खरीदनेवाले व्यापारी जब लोहा, पीतल, प्रभृति तेज भावमें खरीदते हैं, तब वे अपनी चीजें भी महँगी बेचते हैं । इस समय वस्त्रके रोजगारी वस्त्र महँगा बेच कर जब पैसे कमा रहे हैं, तब अन्नके व्यापारी कपड़ेकी लागतको महँगी बेच कर पूरा करने में लगे हैं। बात यह है कि इस समय प्रत्येक वस्तुका व्यापारी एक चीज महँगी खरीदता तो अपनी चीजें भी महँगी बेच कर अपने घाटेको पूरा करना चाहता है । व्यापारियोंकी इस ऊपरा-चढ़ीमें उन्हीं लोगोंकी खराबी है जो लोग कोई रोजगार नहीं करते और बँधी हुई आमदनी रखते हैं। साधारण जमींदारों, महाजनों और नौकरी पेशेवालोंको इस महँगीसे विशेष कष्ट सहना पड़ता है। कम मासिक पानेवाले नौकर तो इस समय बे तरह मर रहे हैं। दस-पन्द्रह रुपये मासिक आयमें परिवारका भरण-पोषण करना इस समय एक बारगी ही असम्भव है। नीचेकी सूचीके देखनेसे पाठकोंको मालूम हो जायगा कि गत जून में अन्नादिका क्या भाव था और इस समय क्या भाव है। जिन्नसका नाम, जूनकी दर, इस समयकी दर । चावल ४) गेहूँ २) दाल अरहर चना मसूर खेसारी ६) ४) ४॥) २) १०) ३) For Private And Personal Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुर्भिक्ष। २३९ उर्द २६) २१) १३) ५।) मूंग ६॥1) ४) ७॥ सरसोंको तेल १८) दानेका तेल रेडीका तेल ३५) रेड़ी दाना ८11) सरसों ८॥) ऊपरके लेखेमें पाठक देखेंगे कि तीन महीनोंमें खाद्य पदार्थोकी दर किस रूपमें बढ़ गई। यदि इस प्रकार दर बढ़ती गई तो देशकी क्या दशा होगी, सो सरकारको खूब ध्यान पूर्वक सोच रखना चाहिए। कितने ही लोगोंका कहना है कि खानेपीनेकी चीजें यदि विदेशमें न भेजी जायें तो आज कम वर्षा होने पर भी देशमें इतना अन्न है,जिससे प्रजाका किसी प्रकार निर्वाह हो सकता है। वर्षा की कमी और अधिक तासे यद्यपि विशेष उपज नहीं नहीं हुई है,पर'काम चलने लायक अन्न कई प्रान्तोंमें हो जायेगा। फलतः भारतीय सरकारका कर्तव्य है कि वह, इस समय अन्नका विदश जाना यथाशीत्र रोक दे । संवत १९५६ के अकाल में जिस भावसे अन्न बिकता था, इस समय कई अन्नोंका भाव उससे भी चढ़ा हुआ है । उस समय घी २६) २७) मन तक बिक गया था। और और भी कितनी ही आवश्यक वस्तुएँ सस्ती थीं; पर इस समय तो खाने पहनने आदिकी सभी चीजोंमें आग लगी है । फलतः यदि वर्तमान अकालका कोई उचित प्रबन्ध सरकार न करेगी तो देशकी अवस्था बड़ी ही भयानक हो जायेगी। For Private And Personal Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २४० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष । " हिन्दी - समाचार " कहता है कि: हम पिछले सप्ताह लिख चुके हैं कि भारतका अकाल ज्यों ज्यों जमाना गुजरता है त्यों त्यों भयानक से भयानक होता जा रहा है । अकालोंकी भयानकता ज्यों ज्यों जमाना बीतता है बढ़ती ही जाती है । इसके मुख्य चार सबब हम बता चुके हैं और साथ ही यह भी लिख चुके हैं कि जब तक यह दूर न होंगे तब तक भारतका पीछा अकालोंसे नहीं छूट सकता । इस समय हिन्दुस्तान के अकालको दशा बड़ी भयानक है। बरसात के दिन सूखे गुजरे, तमाम जामा बीतने के किनारे पर है, पर पानी नहीं। एक ही प्रान्त नहीं, बल्कि एक सिरे से दूसरे सिरे तक यही हाल है । चारों ओर महँगीका कष्ट दिखाई दे रहा है । शहरों में चारों ओर बिना नौकरीवाले जियादा भटकते नजर आते हैं । बम्बई में अपनी तनखाह बढ़वानेके लिए ७५ मिलोंके एक लाख मजदूरोंने हड़ताल कर दी है । ऐसी हड़ताल हिन्दुस्तान के इतिहास में कभी नहीं हुई थी। 1 " अवधवासी " लखनऊ अपने २९ जनवरी १९१९ के अंक में लिखता है कि: कोई तीन मास पूर्व यह आशा उत्पन्न हुई थी कि मोटा कपड़ा जिससे गरीबोंका काम चलेगा, सरकारी उद्योगसे कुछ सस्ता बिकेगा। सरकार नियत दर पर कई प्रकारका मोटा कपड़ा बेचने और बिकबनेका प्रबन्ध कर रही है, यह समाचार प्रचरित होनेके बाद कपड़ा कई दिनों तक सस्ता बिका, आधे दामों तक उतर गया था । परन्तु फिर वही गति हो गई और सरकारी सस्ते कपड़ेका न कहीं पता है और न कोई समाचार ही है । 'घरी भरमें घर जरे और ढाई घरी For Private And Personal Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४१ दुर्भिक्ष । भद्रा ' इसी को कहते हैं। अकाल और कपड़ेकी महँगीसे गरीब प्रजा हाय हाय कर रही है और सरकारी यन्त्र अपनो चिर अभ्यस्त शाहाना चालसे ही चल रहा है। इसमें सन्देह नहीं कि हमारे लिये 'तुरन्त कपड़ा सस्ती दर पर बेचने का प्रबन्ध किया जाय' कह देना जितना सहज है, उतना ही सहज राजकीय कर्मचारियों के लिये निश्चयको कार्य में परिणत करना नहीं है; परन्तु समयकी आव. श्यकता और प्रजाकी विकट विपत्तिका ध्यान भी तो कोई चीज है। हमें सन्देह है कि जिन अधिकारियों पर बँधी दर पर मिलोंसे कपड़ा तैय्यार करवाने और उसे उचित मूल्य पर बिकवानेका भार डाला गया है वे अपने उत्तरदायित्वका यथार्थ अनुभव कर रहे हैं । कपडेकी महँगीसे एक और दुर्भाव भी फैल रहा है। मूर्ख लोग समझते हैं कि लड़ाई अभी बन्द नहीं हुई । उनका तर्क है कि-लाख समझाइए पर कौन सुनता है-यदि लड़ाई बन्द हो गई होती तो कपड़ा सस्ता हो जाता । इधर बुद्धिमान लोगोंकी सम्मति है कि अतिरिक्त समर-लाभ पर अतिरिक्त कर बैठानेका निश्चय ही मँहगीका वास्तविक कारण है । यदि सचमुच यही कारण है तो सरकारको तुरन्त अतिरिक्त कर उगाहनेका विचार त्याग देना चाहिए । समर बन्द हो जाने पर उसका लगाना सर्वथा अनुचित है । ऐंग्लो-इण्डियन तथा भारतीय सभी एक स्वरसे अतिरिक्त करका विरोध कर रहे हैं, परन्तु सरकार चुप है । यह बेपरवाई अति निन्द्य है। यदि हम भूलते नहीं हैं तो, दायित्व पूर्ण अधिकारियोंको सूचनामें स्वीकार किया गया था कि तीन वर्षका काम चलाने भरको भारतमें कपड़ा मौजूद है। इतना कपड़ा होते हुए भी, यह महँगी और भी बुरी तथा बेजड़ है । सरकारको शीघ्र ही कुछ कर दिखाना चाहिए । For Private And Personal Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष । "हिन्दी-बंगवासी' ३ फरवरी १९१८ ई. के अकमें लिखता है भन्न और वस्त्र मनुष्य-जीवनके सर्वापेक्षा अधिक आवश्यक द्रव्य हैं । बिना अन्नके मनुष्य जी नहीं सकता; बिना वस्त्रके मनुष्य लज्जा निवारण कर नहीं सकता । फिर भी इस समय यह दोनों ही आवश्यक द्रव्य अतीव दुष्प्राप्य हो गये हैं। इन दोनों द्रव्योंका मूल्य इतना अधिक हो गया है कि इन्हें दरिद्र तो दरिद्र, मध्यश्रेणीके भी मनुष्य आसानीसे पा नहीं सकते हैं। जिस समय केवल वस्तु महँगी और अन्न सस्ता था उस समय केवल दिगम्बरीका भय था। इस समय इन दोनों द्रव्योंके महाघ हो जानेसे दिगम्बरीकी भी आशङ्का है। अकाल मृत्युको भी आशङ्का है; केवल आश ङ्का ही क्यों, अनेक स्थलों में दिगम्बरी और मृत्यु दोनों हाथसे हाथ मिला पैशाचिक नृत्य करती दिखाई देती हैं । नहीं जानते कि इन दोनोंके अत्याचारसे भारतवासियोंकी रक्षा कैसे होगी ? यूरोपीय युद्धके उपरान्त जब समग्र भारतमें महार्यता दिखाई दी थी, तब भारत सरकारने अग्रसर हो यह कहा था कि इस युद्धके समय भारतीय अन्न देशान्तरित करने का अधिकार यूरोपीय व्यवसायियोंके हाथ नहीं; भारत-सरकारके हाथ रहेगा। यह कह इस सरकारने यह अधिकार यूरोपीय व्यवसायियोंके हाथसे निकाल अपने हाथ लिया था। साथ-साथ इसका सुफल भी प्रकट हुआ था। भारतीय भन्नकी चढ़ी हुई दर एकाएक गिर गई थी। किन्तु यह ब त कुछ ही समय तक रही। इसके उपरान्त वह दर एक बार फिर चढ़ने लगी । चढ़ते-चढ़ते वह बहुत चढ़ गई। इस समय यह For Private And Personal Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुर्भिक्ष। २४३ चरमको पहुँची है । सच तो यह है कि इस समय भारतीय अन्नकी दर यहाँ तक चढ़ गई है; जहाँ तक इसकी रफ्तनी यूरोपीय व्यवसायियोंके हाथ रहनेसे भी न चढ़ी थी। फिर भी इस विषयमें चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ है । किसी तरहकी कैफियत निकल नहीं रही है; इसके प्रतिकारके सम्बधमें कोई सुव्यवस्था होती नहीं दिखाई देती है। इस विषयमें किसी भी प्रादेशिक सरकारकी ओरसे विशेष कोई बात कही नहीं गई है । गत सप्ताह एक बिहार सरकारने एक अच्छी बात कही है । उसकी ओरसे कहा गया है कि इस समय इस प्रदेशमें अन्नकी जैसी महाधता उपस्थित है उससे कृषकोंमें तकाबी बॉटनेकी व्यवस्था होने की बड़ी आवश्यकता प्रतीत हुई है। हो तकाबीकी व्यवस्था; किन्तु एक इसी व्यवस्थासे सारे भारतका महाप्रता-जनित हाहाकार कैसे मिट सकेगा? इस विषयमें जब तक भारत-सरकार कोई सुव्यवस्था न करेगी तब तक लोगोंका यह कष्ट कैसे मिटेगा? महार्घताके फलसे सारा देश उद्विग्न है; कोटि कोटि मनुष्य अन्नकी ज्वालासे सूखे जा रहे हैं; क्या इस समय भी भारतीय अन्नको वैदेशकि रफतीमें रुकावट उत्पन्न करने की आवश्यकता उपलब्ध की नहीं जाती है ! वस्त्रकी महार्घता भी कम आवश्यक प्रश्न नहीं । बहुतेरे लज्जाशील मनुष्य लज्जा परित्याग करने से पहले अपना जीवन परित्याग कर दिया करते हैं । अबसे कुछ समय पहले ऐसी कितनी ही दुर्घट. नाएँ हो चुकी हैं। कौन जानता है कि इस समय भी हो न रही होंगी। ऐसी ही इस भीषण आवश्यकताके मिटानेका क्या उपाय हो रहा है ? अबसे कुछ समय पहले भारत-सरकार समग्र भारतके लिये For Private And Personal Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४४ भारतमें दुर्भिक्ष । ष्टाण्डर्ड वस्त्र बनवाने पर उद्यत हुई थी। इसके फलसे भारतीय वस्त्रकी महार्यता कुछ घट गई थी। किन्तु जैसे ही वस्त्र-व्यवसायियोंको यह विदित हुआ कि गर्जनके उपरान्त वर्षण न होगा यानी इस सरकारी आज्ञाके अनुसार कार्य न होगा; वैसे ही उन सबने वस्त्रकी गिरी हुई दर एक बार फिर चढ़ा दी। इस समय वस्त्रको दर प्रायः पूर्ववत् है । भारत-सरकारके इस गर्जनके अनुसार भारतके सम्भवतः एक प्रदेशमें वर्षण हुआ है। इस प्रदेशको नाम बिहार और उड़ीसा है। उस दिन इस प्रदेशकी सरकारकी ओरसे प्रकट किया गया है कि इसने अपने प्रदेश में प्रचुर संख्यक सरकारी वस्त्र मँगा उन्हें विलायती वस्त्रकी अपेक्षा सैकड़े पीछे तीस या चालीस रुपये कम दर पर बेचना आरम्भ किया है। हम जहाँ तक समझते हैं, अन्यान्य भारतीय प्रदेशों में ऐसे वस्त्रका प्रचार नहीं हुआ है । उस दिन बङ्गीय व्यवस्थापक-सभामें इस विषयका एक प्रश्न होने पर सरकारकी ओरसे कहा गया,--" वस्त्रकी दर गिर जाने से सरकारी वस्त्र मँगाये न गये ! इन वस्त्रोंका मँगाया जाना घटनाचक्र पर निर्भर करता है।" सुभानल्लाह ! कितनी प्यारी बात है। बङ्गाल-सरकारको इस बातकी खबर ही नहीं कि सरकारी वस्त्रके आगमनके समाचारने ही वस्त्रकी दर गिराई और उसके न आनेसे यह गिरी हुई दर एक बार फिर चढ़ गई । इस तरह इस विषयका अभाव दूर करनेके सम्बन्धमें प्रत्यक्षमें अभी तक कोई भी उपाय किया नहीं गया है। यह बात ठीक नहीं । हम इन दोनों अभावोंकी ओर भारत-सरकारकी दृष्टि आकृष्ट करते हैं। यही समय है कि भारत सरकार इन For Private And Personal Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुर्भिक्ष । दोनों अभावोंकी ओर ध्यान दे-इनके मिटानेके सम्बन्धमें कोई उपयुक्त व्यवस्था करे। भारतवर्षकी इस समय अत्यन्त भयकर स्थिति है। यदि हम अब भी अपने पैरों नहीं खड़े हुए तो देशकी दशाका सुधरना असंभव है । भारतवासियोंको अपनी दशा सुधारनेकी स्वयं चेष्टा करनी चाहिए, अब दूसरोंका मुंह ताकनेका समय नहीं है । जरा विचारिए, १९ वीं सदीके पिछले २५ वर्षोंमें दो करोड़ पच्चीस लाख मनुष्य दुर्भिक्षसे मरे, अर्थात् प्रति वर्ष १० लाख, प्रति मास ८६ हजार और प्रति दिन २८८० और प्रति घण्टा १२० एवं प्रति मिनिट २ भारतीय बराबर २५ वर्षों तक दुर्भिक्षसे मरते रहे । उन दिनों ही जब प्रति मिनिट दो मनुष्य मरे तो जरा आजका अन्दाजा आप ही लगा लीजिए कि कितने भारतवासी प्रति मिनिट भूखके मारे प्राण छोड़ रहे हैं ! हाय यह दुर्भिक्ष है या भारतवर्षका अन्तिम दृश्य ! भारतवासियो, यह निश्चय मान लो 'कि जब आप आनन्द-पूर्वक पलंग पर सुखसे लेटे हैं तब न जाने आपके कितने देश-भाई भूखों मरते इस संसारसे बिदा हो रहे हैं ! कोई एसा नहीं जो उनके मुखमें पानीकी बूंद भी जाफर डाले ! माता-पिताके जीवित रहते भूखसे व्याकुल हो, बिना अन्न उनके हृत्खण्ड छोटे छोटे बालक प्राण विसर्जन कर रहे हैं । और बादमें स्वयं भी प्राणत्याग रहे हैं। यदि माताने पहले प्राण त्याग दिये हैं तो बच्चा क्षुधा-तृषासे पीड़ित अपनी मृत माताके स्तनोंको चूस रहा है और अन्तमें रोते रोते भूखसे तड़फड़ाते हुए, हताश हो कर उसीकी छाती पर आप भी प्राण दोड़ देता है ! शिव ! शिव ! कैसा लोमहर्षण भयानक दृश्य है। For Private And Personal Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमे दुर्भिक्ष । भारतके कोने कोने में यही दृश्य दिखाई पड़ता है। उनकी लाशोंका अन्त्येष्टि संस्कार कौए, श्वान, गद्ध और सियार करते हैं। हाय ! कैसी पाषाणको भी शतखण्ड करनेवाली हमारे देशकी अवस्था है। प्यारे भारतके सपूतो ! आप किस तानमें अफलातून हैं । धोरे धीरे यह दुर्भिक्ष निशाचर भारतके एक एक पुत्रको इसी भाँति भूखों मार डालेगा, भारतका नाम मिटा देगा, ऋषियोंके पपित्र नाम और ऋषि सन्ताने सदाके लिये संसारसे उठ जावेंगी। प्यारे देशभक्तो! मातृभूमिके लिये बलिदान होनेवाले वीरो! अपने भारतवर्षकी हीनावस्था पर ध्यान दो, अपने भाइयोंके करुण-क्रन्दन पर चार आँसू बहाओ ! अब भी सँभलो, नहीं तो फिर पछताओगे। For Private And Personal Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिशिष्ट। “ It is better to follow the real truth of things than an imaginary view of them.” - Machiavelli. किसी बातके सम्बन्धमें वास्तविक सत्यका जानना, उसके खयाली चित्रसे कहीं अच्छा है। + + डिगबी साहब " १७६९ से १९०. तकमें मर गये।" २,२५००००० मनुष्य भूखसे चार्ल्स एडवर्ड रसेल " १८३३ के मद्रासके दुर्भिक्षमें झुण्डके झुंड मनुष्य सड़कों पर मर गये । गाँवोंकी सड़कें एक बड़े भीषण क्षेत्रका दृश्य दिखाती थी । गंटोरकी पाँच लाखकी आबादीमेंसे दो लाख आदमी भूखसे तड़प तड़प कर मर गये । सन् १८७३ में उत्तरीय भारतके दुर्मिक्षमें दस लाख मनुष्योंने प्राण खोए । १८६६ में उड़ीसाकी तिहाई भाबादी, प्रायः दस लाख मनुष्योंकी जानें, हा अन्न ! हा भन्न ! For Private And Personal Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४८ भारतमें दुर्भिक्ष। करते हुए गई। १८६९ के उत्तरीय भारतके दुर्भिक्षमें मृत्यु संख्या, १२,५०,००० थी। १८२७ के दुर्भिक्षमें केवल तीस लाख भारतवासी सरकारी सहायता पाकर जीवित रहे । मोटे हिसाबसे सन् १८९१ से १९०१ ई. तकमें जन-संख्या में अस्सी लाख मनुष्योंकी कमी हुई।" ___ + + + + + __" हिसाब लगा कर देखनेसे मालूम हुआ है कि अकेले भारतसचिव माननीय लार्ड जार्ज हेमिल्टनने जो रुपये वेतनके रूपमें प्राप्त किये थे, वे नब्बे हजार भारतीयोंकी वार्षिक आयके बराबर थे।" + + डिगबी महोदय "भारतवर्षसे प्रति वर्ष प्रायः १६, ५०,००,०००) रु० का गेहूँ और चावल बाहर भेजा जाता है। " + + मि० रसेल "डेढसौ वर्षोंमें अकालसे २,८०,००,००० मनुष्यों के मर जानेका जो अतुलनीय लेखा है, उसका प्रधान कारण भूमिका लगान और जमीनके पहेकी प्रणाली है................जो सबसे निर्बल लोगों पर भारी बोझ डालती है।" For Private And Personal Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुर्भिक्ष। २४९ "दुर्भिक्षोंका निकटस्थ कारण अनाव ष्टि है, किंतु उसका भी आरंभिक और मूल कारण.............लगान और टेक्सकी प्रणा __" भारतीय किसानको संसार में सबसे अधिक टैक्स देना पड़ता है। उसको अपनी आमदनी पर प्रति शत ५५ का टक्स देना पड़ता है। नगरोंके व्यापारी तथा रम्य नगरोंके सुखस्वामी कुरसीतोड़ स्वयंभुओंको किसानोंकी अपेक्षा बहुत ही कम कर देना पड़ता है, तिस पर भी ऐसे मनुष्य मौजूद हैं जिन्हें दुर्भिक्ष पड़ने पर आश्चर्य होता है !" ___+ + मि० सण्डरलैण्ड--- " भारतीय दुर्भिक्ष वर्तमान समयकी सबसे आश्चर्य-जनक और रोमाञ्चकारी बात है, दिनों दिन वे अधिक पड़ते जाते हैं और साथ ही साथ उनकी कठोरता भी बढ़ती जाती है । इनकी मृत्यु. संख्या भयानक है।' डाक्टर आल्फ्रेडरसल वेलेन्स The final and absolute test of good government is the well-being and contenment of the people-not the extent of the Empire or the abundance of the revenue and the trade. Tried be this test, how seldom have we succeeded in ruling subject peoples ? Recurrent famines and plague in India ; discontent, chronic want and For Private And Personal Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष। Av misery; famines more or less severe and continuous depopulation in our sister-island at home-these must surely be reckoned among the most terrible and most disastrous failures. of the nineteenth century. “The viilage in India has been the fundamentel and inderstuctible mist of the Social system, serviving the down fall of dynesty after dynesty. श्रीयुत् अरविन्द घोष--- "What I cannot do not now in the sign of what I shall do hereafter. The sense of impossibility is the begining of all possibilities." मारतपितामह दादामाई नवरोजी This system of all European service in India is the root cause and curse of all India's evils, woes and suffering.” "If is liberty alone which fits men for liberty. This proposition, like every other in politics, has its bounds, but it is for safer than the counter doctrine , wait till they are fit. For Private And Personal Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir gfri M महात्मा गोपाल कृष्ण गोखले “ India needs to.day above everything else that the gospel of " Swadeshism" should be proached to high and low, to prince and to peasant, in town and in hamlot, till the service of motherland becomes with us as over mastering a passion as it is in Japan. महात्मा रानाडे “ The true end of our work, is to renovate, to purify and also to perfect the whole man by liberating his intellect, olevating his standard of duty, and developing to the full all his powers. Till so renovated, purified and perfected, we can never hope to be what our ancestors once wore-a chosen people, to whom great tasks were alloted and by whom great deeds were performed. Where this feeling animates the worker, it is a matter of comperative indifference in what particular direction it asserts itself and in what particular methoed it proceeds to work. With buoyant hope, with a faith that never shriks duty, with a sense of justice that deals fairly by all, with unclouded intellect and power fully cultivated, and, lastly, with a love that over-leaps all For Private And Personal Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५२ . HITTA TI www. no bounds removated India will take her proper rank among the nations of the world, and be the.master of the situation and of her own destiny. This is the goal to be reached, this is the promised land. ( Aftas ?). Happy are they who see it in distant vision, happier those who are permitted to work and clear the way on to it, happiest they who live to see it with their eyes and tread upon the holy soil once more. Famine and pestilence, oppression and sorrow, will then be myths of the past, and the Gods will then again descend to the earth and associate with men as they did in times which we now call mythical.” समाप्त. For Private And Personal Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हिन्दी-गौरव-ग्रन्थमाला। इस उत्कृष्ट ग्रंथमालाके स्थायी ग्राहकोंको नीचे लिखी इसकी सब पुस्तके पौनी कीमतमें दी जाती हैं। सफल-गृहस्थ । अँगरेजीके प्रसिद्ध लेखक सर ऑथर हेल्प्सके निष. न्धोंका अनुवाद । इसमें मानसिक शान्तिके उपाय, कार्य-कुशलता, कुटुम्बशासन, हृदयकी गंभीरता, संयम आदि पर सुंदर विवेचन है । नया संस्करण मू. ) २ आरोग्य-दिग्दर्शन । मल-लेखक महात्मा गांधी । पुस्तक प्रत्येक गृहस्थ के लिए बड़ी उपयोगी है । पुस्तकमें हवा, पानी, खूराक, जल-चिकित्सा, मिट्टी के उपचार, छूतके रोग, बच्चोंकी सँभाल, सर्प बिच्छू आदिका काटना, डूबना या जलजाना आदि अनेक विषयों पर विवेचन है । तीसरा संस्करण मू. 10) ३ कांग्रेसके पिता मि• हम । कांग्रेसके जन्मदाता, भारतमें राष्ट्रीय भावोंके उत्पादक, मनुष्य-जातिके परम हितैषी, स्वार्थ त्यागी महात्मा मि. घुमका यह जीवन-चरित्र प्रत्येक देशभक्तके पढ़ने योग्य है । मूल्य बारह आने । ४ जीवनके महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर प्रकाश । जेम्स एलनकी पुस्तकका सरल-सुन्दर अनुवाद । प्रत्येक युवकके पढ़ने लायक चरित्र संगठन में बड़ी उपयोगी पस्तक है । नया संस्करण मू० ॥-) ५विवेकानन्द (नाटक)। स्वामी विवेकानन्दने अमेरिकामें जो हिन्दूधर्मका प्रचार किया, उसका इसमें सन्दर चित्र खींचा गया है । देशभक्तिकी पवित्र भावनाओंसे यह नाटक भरा हुआ है । मू० १) रु. ६ स्वदेशाभिमान । इसमें कितने ही ऐसे विदेशी रत्न-रत्नोंकी खास खास घटनाओंका उल्लेख है, जिन्होंने अपनी मातृभूमिकी स्वाधीनताकी रक्षाके लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर संसारके सामने एक उच्च आदर्श खड़ा कर दिया है । नया संस्करण । मूल्य ।) ७ स्वराज्यकी योग्यता । स्वराज्यके विरुद्ध जो आपत्तियाँ उठाई जाती हैं उनका इसमें बड़ी उत्तमताके साथ खण्डन कर इस बातको अच्छी सरह सिद्ध कर दिया है कि भारतको स्वराज्य मिलना ही चाहिए । मू. १) रु. ८एकाग्रता और दिव्यशक्ति । इसमें दिव्यशक्ति--आरोग्य, आनन्द, सक्ति और सफलता की प्राप्तिके सरल उपाय बतलाये गये हैं। सजि०म०१।०) For Private And Personal Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९ जीवन और श्रम । परिश्रम करनेसे घबड़ानेवाले और परिश्रम करनेको बुरा समझनेवाले भारतके लिए यह पुस्तक संजीवनी शक्तिकी दाता है । श्रम कितने महत्वकी वस्तु है, यह इसे पढ़नेसे मालूम होगा। मूल्य डेढ़ रुपया, स. १me) १० प्रफुल्ल ( नाटक )। हमारे धरों और समाजमें जो फूट, स्वार्थ, मकदमेबाजी, ईर्षा-द्वेष आदि अनेक दोषोंने घुस कर उन्हें नरक धाम बना दिया है उनके संशोधन के लिए महाकवि गिरिश बाबूके उत्कृष्ट सामाजिक नाटकोंका घर घरमें प्रचार होना चाहिए । मूल्य १३) सजि० १॥) रु. ११ लक्ष्मीबाई । झाँसीकी रानीकी यह जीवनी बड़ी खोजके साथ लिखी गई है । सरस्वतीके सम्पादकका कहना है कि " केवल इसी पुस्तकके लिए मराठी सीखनी चाहिए । " मूल्य १।) २०, खजिल्दका 107) १२ पृथ्वीराज (नाटक)। भारतके सुप्रसिद्ध वीर पृथ्वीराज चोहानने गजनीके दुर्दमनीय मुगल सम्राटको पराजित कर पुण्यभूमि भारतकी रक्षाके लिए जो अपूर्व आत्म-बलिदान किया था उसी वीरका वीररस-प्रधान चरित्र इसमें चित्रित किया गया है । मू०॥) महात्मा गाँधी । छः सुन्दर चित्रों-सहित । हिंदी साहित्यमें यह बहुत घड़ी और अपूर्व पुस्तक है । इसके पहले खण्डमें महात्माजीकी १३२ पृष्ठोंमें विस्तृत जीवनी है और दूसरे खण्डमें महात्माजीके लगभग ८० महत्त्वपूर्ण व्याख्यानों और लेखोंका संग्रह है; और उनमें ऐसे व्याख्यान बहुत हैं जिन्हें हिंदी-संसारने बहुत ही कम पढ़ा है । पृष्ठ संख्या लगभग ४७५। मू० ३) रु.। १४ वैधव्य कठोर दंड है या शान्ति ? भारतीय आदर्शको गिरानेवाले विधवा विवाहसे होने वाली दुर्दशाका . बड़ा ही मार्मिक और हृदयको हिला देनेवाला चित्र इसमें खींचा गया है । मु. ), सजि. १।।) १५ आत्मविद्या । नये ढंगसे लिखा हुआ वेदान्त विषयका यह अपूर्व ग्रंथ है । इसमें संक्षिप्तमें पर बड़ी सुन्दरताके साथ वेदान्तके महान ग्रंथ योगवशिष्ठका सार दे दिया गया है । इसका मराठीसे अनुवाद श्रीयुत पं० माधव राव सप्रे बी० ए० ने किया है। मू० २) रु०, कपड़े की जि० २॥) रु.।। १६ सम्राट अशोक । यह एक उत्कृष्ट और भाव पूर्ण उपन्यास है । For Private And Personal Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हिन्दीमें ऐसे भाव-पूर्ण उपन्यास बहुत ही कम हैं । इसमें अशोकका विश्वप्रेम, महात्मा मोग्गली-पुत्र तिष्य और धेष्ठी उपगुप्तकी परहित-साधनकी समुज्ज्वल भावनाएँ, कुमार बीताशोकका भ्रातृप्रेम, प्रमिलाका कारस्थान और इन्दिरा तथा जितेन्द्रका स्वर्गीय प्रेम आदिकी एकसे एक बढ़कर सुधा-स्यन्दिनी, रसभीनी कहानी पढ़ोंगे तब आप मुग्ध हो जायँगे मूल्य २॥)5० कपड़े की जि० ३।) । १७ बलिदान । महाकवि गिरिशचंद्र धोषके एक उत्कृष्ट सामाजिक नाटकका अनुवाद । इसमें वर-विक्रयसे होनेवाली दुर्दशाका चित्र बड़ी कारुणिक भाषामें खींचा गया है, जिसे पढ़ कर आप रो उठेंगे । देशं और जातियोंको हालतसे आपका हृदय त मला उठेगा। सारे हिन्दी-साहित्यमें शायद ही इसके जोड़का कोई नाटक हो। उन लोगोंको भी यह नाटक अवश्य पढ़ना चाहिए जिनमें कन्या-विक्रय जारी है। मू. २० कपड़े की जि. १) -. १८ हिन्दजातिका स्वातन्त्र्य-प्रेम । हिन्दी-साहित्यमें स्वतंत्र लिखी हुई एक उत्कृष्ट पुस्तक । इसमें स्वतंत्रता-प्राप्तिके लिए बलिदान होनेवाली हिन्दूजातिको वीरताका ज्वलंत चित्र खींचा गया है, जिसे पढ़ कर आपका रोम रोम फड़क उठेगा । भाषा बड़ी ओजस्वी है । मू० रु०१), सजिल्द)। १९ चाँदबीबी-( नाटक ) बंगालके प्रख्यात नाटककार श्रीयुत् क्षीरोदप्रसाद विद्याविनोद एम० ए० के वीररस-पूर्ण नाटकका अनुवाद । इसमें बीजा. पुरकी वीरनारी बगम चाँद-सुलतानाकी अद्भुत वीरता और क्षमता, देशके उछरते हुए बालकोंका जन्मभूमिके लिए अपूर्व बलिदान और मराठे वीर रघुजीकी हृदयको हिलादेनेवाली स्वामीभक्ति आदिकी वीर और करुण कहानीको पढ़ कर आपका हृदय भर आयेगा । नाटक भावपूर्ण और बड़ी उत्सुकता बढ़ानेवाला है । मूल्य ११), कपड़ की पक्की जिल्दके १॥1) रु. २० भारतमे दुर्भिक्ष-ले. पं० गणेशदत्त शर्मा । कई पुस्तकों के आधार पर लिखा गया स्वतंत्र ग्रंथ । भारतमें जब अँगरेजोंका राज्य स्थापित नहीं हुआ था तब अन्न, वस्त्र, घी, दूध आदि सभी वस्तुएँ खूब सस्ती-पानीके भाव--थीं; देशमें क्या गरीव, क्या धनी सभी सुखी थे; दुर्भिक्ष, महामार्ग आदिके उपद्रव तब कभी कहीं नाम मात्रको हो जाया करते थे और जबसे For Private And Personal Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अँगरेजोंका प्रभुत्व स्थापित हुआ तबसे देशके सब व्यापार-धन्धे विदेशियोंके हाथ चले गये; देशकी कारीगरी, कला-कौशल घड़ी-ऋरतासे बरबार कर दिये गये; अन्न, वस्त्र, दूध, घी आदिकी अभूत-पूर्व मँहगीने गरीब भारतीयोंको तबाह कर दिया; शताब्दियोंसे भारतकी छाती पर दुर्भिक्ष-दानव लोमहर्षण तांडवनत्य कर रहा है। जिस भारतें ७५० वर्षों में केवल 1८ अकाल पड़ेसो भी देशव्यापी नहीं, प्रान्तीय -- उसी में सिर्फ सौ वर्षों में ३१ दारुण अकाल पड़े और उनमें सवा तीन करोड़ मनुष्य काल-कवलित हुए ! देशकी इस रोमाञ्चकारी दुर्दशाको पढ़ कर पत्थरके जैसा हृदय भी दहल उठेगा और सहानुभतिकी आहोंके साथ आँखोंसे आँसू गिरने लगेंगे। प्रत्येक सहृदय भारतवासीको एक बार यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए । मू. १) रु. पक्की जिल्दक।) २१ स्वाधीन भारत-ले०महात्मा गाँधी । भारत पराधीन है-गुलामीकी बेड़ियोंसे जकड़ा हुआ है । वह स्वाधीन कैसे हो सकता है, इसी विषय पर सत्य, दृढ़ता और निर्भीकतासे महात्माजीने इस दिव्य पुस्तक विवेचन किया है। संक्षिप्तमें इस पुस्तकको महात्माजी के सारे जीवनका अनुभव समझिए । इस पुस्तकका घर-घरमें प्रचार होना चाहिए । इसी विचारसे इसका मूल्य भी कम रक्खा गया है । १५० पृष्ठोंकी पुस्तका मूल्य सिर्फ बारह आने। __ २२ महाराजा रणजीतसिंह-ले. पं० नन्दकुमारदेव शर्मा । कोई २५-३० ग्रंथों के आधार पर लिखा गया पंजाब केसरी रणजीतसिंहका स्वतंत्र और महत्त्वपूर्ण जीवनचरित । इसे पंजाबका सौ वर्षाका इतिहास समझिए । पंजाब केसरी बड़े वीर और प्रतिभाशाली अन्तिम हिन्दू राजा हुए हैं। पंजाब जब बड़ी बिकट स्थितिमें था और चारों ओर खून-खराबी और मारकाटका बाजार गर्म था तब पंजाब केसरी अपनी लोकोत्तर वीरता और बुद्धिसे थोड़े ही वर्षामें सारे पंजाब पर विजय करके उसे एकाधिपत्य शासनके छत्रतले ले आये। उनमें अद्भुत संगठन-शक्ति और शासन-क्षमता थी। उनकी वीरता और महाप्राणताकी विदेशी विद्वानोंने भी बड़ी तारीफ की है। प्रत्येक देशाभिमानीको पंजाब केसरीकी यह वीर रस-पूर्ण जीवनी पढ़नी चाहिए । मू० १ ) रु० सजि. २१) रु. मैनेजर-गाँधी हिन्दी-पुस्तक भंडार, कालबादेवी--बम्बई For Private And Personal Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only