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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ७० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष | I पहुँचा दिया । न्यायसे या अन्यायसे, इस विषय में हमें कुछ नहीं कहना हैं । हाँ इतना अवश्य कहेंगे कि अँगरेजी शासन काल में भारत बिलकुल दरिद्र और दुर्भिक्षका अखाड़ा बन गया है । यवन-राज्यमें कई धन-लोलुप बादशाह हुए और उन्होंने अगणित रत्न अपने देशों को भेजे, पर वे व्यापारी नहीं बने । उन्होंने अपने देश की बनी वस्तुओंको जबरन् भारतमें नहीं भरा। वे केवल शासन और धनके भूखे थे । नित्य लड़ाइयाँ उनती थीं—किसीका राज्य जाता तो किसी के हाथ आता । यवन काल में इसके सिवाय और कोई बात नहीं हुई । इसके अतिरिक्त जितने मुसलमान भाई विदेशों से भारत में आये, वे सबके सब यहीं बस गये - भारतीय बन गये । इस कारण हमारे देशका धन देशही में रहा, बाहर नहीं गया । यवनांने भी हिन्दुओंके दिल दुखाने में कुछ उठान रखा - लट-खसोट भी कम नहीं की; परन्तु प्रत्यक्ष । किंतु बृटिश गवनमटने किस होशियारीसे भारतको अपने अि कारम कर लिया ! किसीको मालूम भी न होने दिया ! किस साबधानासे यवनोंको ठिकाने लगाया -कहीं खून खराबी न होने दी और भारत पर पूर्ण अधिकार कर लिया । बृटिश सरकारने शस्त्र द्वारा भारत पर शासन नहीं किया, बल्कि अपनी कुशाग्र बुद्धि द्वारा । व्यर्थ ही सहस्रों मनुष्यों का बलिदान नहीं किया, जैसा कि यवनकालमें हुआ था । हमारे भारतीय व्यापारी-समाज के लिये कितनी लज्जास्पद बात है कि विदेशी व्यापारियोंने उनके स्वदेश भारत पर व्यापार द्वारा शासन कर लिया ! जरा आप व्यापारके महत्त्वको देखिए । व्यापार में शासन करनेकी शक्ति भी मौजूद है । एक ओर भारतीय व्यापारी भी हैं जिन्होंने देशको दुर्भिक्षका क्रीड़ास्थल और भिखारी बना कर पराधीनता के दृढ़ पाश में बाँध दिया । For Private And Personal Use Only
SR No.020121
Book TitleBharat me Durbhiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshdatta Sharma
PublisherGandhi Hindi Pustak Bhandar
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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